सोमवार, 23 सितंबर 2019

स्त्री का माप

मत मापो एक स्त्री को
उसके स्तन की गोलाई और उभार से
कभी उसके मस्तिष्क का माप भी लो
स्त्री के मन को तो ना समझे कभी
मस्तिष्क को ही समझकर देख लो।

है अफसोस इस बात का
मस्तिष्क की माप से पहले ही
हावी हो जाता है, देह का नाप
किंतु स्त्री शिथिल है, माप के मापदंड से
नहीं बिखरता उसका व्यक्तित्व है।

स्त्री होने का दर्द
तभी भान होता है, जब
मिलता है जन्म स्त्री का
खंडित किया जाता स्वाभिमान
मात्र लिंग बनता है कारण है।

मन हताश होता है
कभी-कभी इन बातों से
लेकिन आंसू नहीं गिरते
वर्षों की अनदेखी ने कलेजा पत्थर किया है
तभी तो छलावे के घास नहीं उगते...

रजनीश आनंद

शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

खून के धब्बे

सफेद कपड़ों पर लगे खून के दाग
आसानी से नहीं धुलते
अगर रख दिया हो उन्हें छिपाकर वर्षों
सर्फ एक्सेल से भी नहीं धुलते
खौलता पानी डालकर,  साबुन लगाकर
ब्रश से घिसो तब भी
हल्के होते हैं, पर धुलते नहीं
मरे रिश्तों की तरह चिपके खून के दाग
मौत तो स्वीकार्य है, हत्या नहीं
तभी तो इंसान घिसता रहता है
सफेद कमीज को,  परिणाम जानते हुए भी...

रजनीश आनंद

रविवार, 1 सितंबर 2019

सिंगूर-नंदीग्राम को मौके की तरह इस्तेमाल कर ममता ने टीएमसी को पुनर्जीवित किया


-रजनीश आनंद-
बंगाल में अभी ममता बनर्जी ने ‘दीदी के बोलो’ अभियान शुरू कर रखा है. यह अभियान एक्सपर्ट प्रशांत किशोर की सलाह पर जनता से सीधे संवाद के लिए शुरू किया है.  ममता की यह तैयारी आगमाी विधानसभा चुनाव को लेकर है. जनता से संवाद होगा तो हर तरह की प्रतिक्रिया आयेगी इसमें कोई दो राय नहीं है, लेकिन यह बात भी सही है कि अगर प्रतिक्रियाओं पर गौर किया जाये तो ममता बनर्जी बंगाल में हो रहे ‘डैमेज’ को रोक सकती हैं. यह बात इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में ममता बनर्जी को भाजपा ने कड़ी टक्कर दी है.  कुल 42 लोकसभा सीटों में से 22 पर टीएमसी 18 पर भाजपा और मात्र दो पर कांग्रेस को जीत मिली है. माकपा का कहीं नामोनिशान नहीं है. कहने का आशय यह है कि अगर ममता को भी माकपा की तरह बंगाल की राजनीति से दूर नहीं होना है, तो उन्हें भाजपा को रोकना होगा. लोकसभा चुनाव और उससे पहले भी जिस तरह की हिंसा बंगाल में हुई और भाजपा ने यह आरोप लगाया कि टीएमसी के कार्यकर्ता उनके कार्यकर्ताओं की हत्या कर रहे हैं, यह एक तरह से बंगाल की राजनीति में पहले हुई घटना का दोहराव है.

जब टीएमसी के मात्र एक सांसद के रूप में संसद पहुंचीं 
टीएमसी को यह याद करने की जरूरत है कि किस तरह मात्र एक सांसद से उसने बंगाल में खुद को सत्ता तक पहुंचाया. सिंगूर और नंदीग्राम के मुद्दे को किस तरह जनअभियान बनाकर ममता नेत्री बनीं, ममता बनर्जी के लिए अभी यह मौका है उस राजनीति को याद करने और वैसी ही बाजी खेलना का अन्यथा अगला विधानसभा चुनाव उनके लिए टेढ़ी खीर साबित होगा. बात उन दिनों की है जब टीएमसी से सिर्फ ममता बनर्जी जीतकर संसद पहुंची थीं. वर्ष था 2004 ममता अकेली अपनी पार्टी से सांसद थीं. यह समय था जब उन्होंने संघर्ष किया और खुद को खड़ा किया. हालांकि जब वे कांग्रेस से अलग हुईं थी तो राजनीतिक विश्लेषकों को लगा था कि उनका कैरियर खत्म हो जायेगा. पार्टी में उनका बहुत अपमान हुआ था. ममता ने उन तमाम अपमान को अपने अंदर आग की तरह जलाया खुद तपीं और राख नहीं बनीं, कुंदन (सोना) बनकर सामने आयीं. उन्होंने ना सिर्फ लेफ्ट का प्रदेश से सफाया किया, बल्कि कांग्रेस को भी अपनी मोहताज बना दिया. 2004 का चुनाव ममता के लिए बहुत अपमानजनक था. सुदापा पाॅल की किताब ‘दीदी’ में लिखा है – ममता जब संसद पहुंचती थीं, तो उनका स्वागत होता था, सब उनसे पूछते थे अच्छी हैं दीदी? लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं था. कोई उनके स्वागत के लिए नहीं आया. यहां तक कि किसी ने उनसे बात तक नहीं की. उस दौर में उनका सेक्रेटरी उन्हें सेंट्रल हाॅल तक छोड़ता था वापसी में वहीं उनका इंतजार करताथा. कुछ ही साल पहले ममता अपनी पार्टी से अलग होकर अपनी पार्टी बनायी थीं और अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थीं. इसी समय उनके सामने मौका बनकर आया सिंगूर और नंदीग्राम का मुद्दा.
बंगाल को औद्योगिकीकरण ओर ले जाना चाहते थे बुद्धदेव भट्टाचार्य
बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य प्रदेश की अर्थव्यवस्था को उदारीकरण की ओर ले जाना चाहते थे. कारण यह था कि प्रदेश का विकास दर देश के विकास दर का चौथाई रह गया था. इंडस्ट्री नहीं थी, प्रदेश के युवाओं के पास काम नहीं था और वे प्रदेश से पलायन कर रहे थे. ऐसे में प्रदेश में औद्योगिकरण ही एकमात्र रास्ता था. इसके लिए लेफ्ट की सरकार ने किसानों के जमीन का अधिग्रहण करना शुरू किया और प्रदेश के लिए नयी आईटी पाॅलिसी लेकर आयी. इससे पहले प्रदेश में छोटे किसानों की मदद के लिए लैंड रिफाॅर्म को इंप्रूव किया गया था, जिससे किसानों को फायदा हुआ था और छोटे किसान भी साल में दो-तीन उगा ले रहे थे. लेकिन औद्योगिकीकरण की मार इनपर पड़ने वाली थी सरकार ने बिग प्रोजेक्ट शुरू करने की ठानी थी, जिसमें उसे विधानसभा चुनाव 2006 की जीत भी सहायता कर रही थी. 2006 के चुनाव में लेफ्ट ने 296 में से 233 सीट जीता था और टीएमसी मात्र 30 पर सिमटी हुई थी. मिदनापुर में देश का सबसे बड़ा स्टील प्लांट, नंदीग्राम में केमिकल हब और सिंगूर में टाटा नैनो का प्लांट. इसके लिए खेतिहर जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा था, जिससे किसानों को भारी नुकसान होता. लैंड सिलिंग एक्ट के अनुसार 12.5 एकड़ से ज्यादा की जमीन का अधिग्रहण संभव नहीं था, अब सरकार ही उद्योग के लिए जमीन दिला सकती थी. सरकार ने उद्योगजगत के स्वागत में रेड कारपेट बिछा दिया. सरकार ने अधिग्रहण के बारे में जनता को जानकारी नहीं दी और ना ही गांवों में जाकर यह बताया कि इसका क्या असर किसानों पर पड़ेगा. सरकार ने बस आदेश जारी किया और बताया कि उसका पालन अनिवार्य है. सरकार के इस फैसले से उसकी सहयोगी लेफ्ट फ्रंट भी नाराज थी. सरकार यह बता रही कि जहां कि जमीन सरकार ले रही है वहां कुछ खास उत्पादन नहीं होता है, जबकि सच्चाई यह थी कि सिंगूर की जमीन बहुफसली थी.
जमीन अधिग्रहण के खिलाफ ममता ने खोला मोर्चा
मीडिया में यह बात आयी और सरकार की परेशानी तब बढ़ी जब विपक्ष की नेता ममता बनर्जी ने खेती की जमीन के अधिग्रहण के खिलाफ बड़ी रैली आयोजित की. यह 2005 में हुआ था, जिसके बाद विधानसभा चुनाव में माकपा जीती तो लेकिन उसका मार्जिन घटा, लेकिन वह इस संकेत को समझी नहीं और अंतत: ममता ने मौके को लपक लिया. जुलाई 2006 में टाटा के नैनो प्लांट के लिए 997 एकड़ जमीन की आवश्यकता थी. इसके 8.9 लाख रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से दिये जा रहे थे. मुआवजे की राशि बहुत कम थी. फैक्टरियों में उन्हें काम मिलेगा या नहीं इसकी जानकारी भी स्पष्ट नहीं थी. किसान हताश, निराश और आंदोलनरत थे. ममता बनर्जी ने उन्हें नेतृत्व दिया और उनकी हमदर्द बनीं.
ममता ने सिंगूर के किसानों के आंदोलन को नेतृत्व दिया, जिसके कारण टाटा कंपनी ममता के साथ वार्ता करके स्थिति को अपने पक्ष में करना चाह रही थी. तय हुआ कि तीन लोग ममता बनर्जी के पास कालीघाट स्थित उनके आवास पर वार्ता के लिए आयेंगे, जिनमें टाटा ग्रुप के मैनेजिंग डायरेक्टर भी शामिल होंगे. ममता तैयार थीं, लेकिन ऐन मौके पर टाटा कंपनी ने वार्ता रद्द कर दी. कारण यह था कि बुद्धदेव की सरकार ने उन्हें आश्वस्त किया कि उन्हें ममता से मिलने की जरूरत नहीं है वे इस समस्या का समाधान करवा देंगे. यह ममता के लिए बेहद अपमानजनक था. इस अपमान को भूलना ममता के लिए संभव नहीं था. ममता ने टाटा कंपनी और सरकार को एक सुनहरा मौका दिया था वार्ता का,जिसे इन्होंने गंवा दिया. अब ममता कोई चूक करने को रेडी नहीं थी. ममता ने अपनी पूरी ऊर्जा सिंगूर आंदोलन में झोंक दिया. ममता ने मांग की कि किसानों की जमीन वापस दी जाये और इससे कम कुछ भी स्वीकार्य नहीं होगा. ममता के इस आंदोलन ने लेफ्ट पार्टियों को ऐसा झटका दिया कि वे प्रदेश की राजनीति में आज मृतप्राय हैं और ममता दूसरी बार प्रदेश की मुख्यमंत्री बन चुकी हैं.
सिंगूर बना रणक्षेत्र
उस वर्ष पूरा प्रदेश दुर्गापूजा के उल्लास में डूबा था, लेकिन सिंगूर रणभूमि बना हुआ था. बीडीओ के आफिस के पास लाठीचार्ज हुआ, स्थानीय विरोध प्रदर्शन जो पकड़ने लगा. ममता ने अपनी ऊर्जा इस आंदोलन को नेतृत्व देने में लगा दी. किसानों के प्रदर्शन के कारण पूर्व चीफ जस्टिस जेए वर्मा, राजेंद्र वर्मा और एमएन राव ने टाटा कंपनी से सिंगूर छोड़ने को कहा, ताकि वहां शांति बहाल हो सके. किसानों के आंदोलन को मेधा पाटकर और महाश्वेता देवी का समर्थन भी मिला. ममता बनर्जी ने अनशन शुरू कर दिया था. बुद्धिजीवियों का साथ उन्हें मिल चुका था. चार दिसंबर 2006 को उन्होंने अनशन सत्याग्रह की शुरुआत की. यह अनशन 26 दिनों तक चला. इन 26 दिनों में ममता की राजनीति शीर्ष पर चली गयी और उनकी लोकप्रियता हद से ज्यादा बढ़ गयी. अनशन से पहले ममता अपने आंदोलन को विधानसभा तक ले गयी और लोगों का समर्थन प्राप्त किया. पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने उनसे आग्रह किया किया वे खुद को ना मारें और अनशन समाप्त करें, क्योंकि इतने लंबे उपवास से किडनी पर बुरा असर पड़ता है. ममता काफी कमजोर हो गयी थीं अंतत: राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम और प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे में हस्तक्षेप किया और ममता से अनशन समाप्त करने को कहा. बुद्धदेव भट्टाचार्य ममता द्वारा उठाये गये सभी मुद्दों पर बात करने के लिए तैयार थे. ममता ने अपना अनशन समाप्त कर दिया, लेकिन उनका कैरियर और जनसमर्थन हद से ज्यादा बढ़ चुका था. वे एक महान नेता बन चुकी थीं. जनता की नजरों में लेफ्ट की छवि जनता विरोधी की बन चुकी थी. अंतत: 2008 में टाटा कंपनी ने बंगाल से नैनो का प्लांट गुजरात स्थानांतरित कर दिया.
ममता को मिली नैतिक जीत
इतना ही नहीं ममता की नैतिक जीत तब हुई जब सुप्रीम कोर्ट ने 2016 में सिंगूर में हुए जमीन अधिग्रहण को असंवैधानिक और गलत बता दिया. यह ममता की नैतिक जीत थी. ममता ने कहा था-अब मैं शांति से मर सकती हूं यह किसानों की जीत है.
नंदीग्राम में भी बुद्धदेव भट्टाचार्य की सरकार को मुंह की खानी पड़ी और लेफ्ट की छवि पूरी तरह धूमिल हो गयी. ममता छह दिन के अनशन से कमजोर हो गयी थीं, उसी दौरान नंदीग्राम में हिंसा और प्रदर्शन की खबर उनतक पहुंची. उन्होंने पार्थो चटर्जी और मुकुल राय से घटना की जानकारी मांगी और किसानों के आंदोलन को समर्थन देने चार फरवरी 2007 को नंदीग्राम पहुंची. सरकार ने यहां किसानों के प्रदर्शन पर फायरिंग करवा दिया और यह लेफ्ट सरकार की ताबूत का अंतिम कील साबित हुआ. इस पुलिस फायरिंग में कुल 14 लोग मारे गये थे और 35 लोग घायल हुए थे. प्रदर्शनकारियों ने पुलिस पर पत्थराव किया था, लेकिन पुलिस फायरिंग राज्य का कठोर कदम था जिसने वामपंथी बुद्धिजीवियों को भी बंगाल सरकार का विरोधी बना दिया. सरकार के इस आदेश को कलकत्ता हाईकोर्ट ने असंवैधानिक बता दिया, जिससे उनकी भद्द पिट गयी और ममता ‘मां, माटी और मानुष’ का लेकर विजेता बन गयीं. ममता अब किसानों की हमदर्द थीं और लेफ्ट की जमीन खिसक चुकी थी, जिसका असर विधानसभा चुनाव में साफ दिखा. ममता पूर्ण बहुमत से चुनकर आयीं और ऐतिहासिक क्षणों में शपथ लेकर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं. ममता को उनके तमाम अपमान का बदला मिल चुका था, लेफ्ट का प्रदेश से सफाया हो गया था...