रविवार, 7 मार्च 2021

international womensday 2021: हक मांगिए ठोक के लेकिन, ये भी रखें याद

#internationalwomensday2021 : एक बार फिर हम महिलाओं को महिला दिवस की शुभकामनाएं . लेकिन शुभकामनाएं इसलिए नहीं कि यह जश्न का दिन है और हम प्यारे संदेशों और गिफ्ट के भार से दब जायें। स्त्री का व्यक्तित्व भरा पूरा होता है, उसे दबाव में आने की जरूरत मुझे तो नहीं दिखती। तो शुभकामनाएं इसलिए कि हमने हक की लड़ाई में एक लंबा अरसा तय किया है और सफलताएं भी हासिल की हैं। तभी तो स्त्रियों को उनका हक कमोबेश मिलता नजर आता है। मानव सभ्यता के इतिहास से लेकर आजतक स्त्री को संघर्ष करना पड़ा है तो आज जरूरत इस बात की है कि हम संघर्ष मे एकजुट रहें। 
महिलाओं से अपील 
महिलाओं से गुजारिश है कि वो बंटे नहीं। जाति-धर्म के नाम पर आपस में भिड़ेंगी तो जंग हारना निश्चित है। महिलाओं से अपीलमैं ज्ञान नहीं दे रही व्यावहारिकता पर बात कर ही हूं। आयशा के वायरल वीडियो को इसलिए इग्नोर ना करें कि उसने बुर्का पहना है। या हाथरस केस को इसलिए भूल जायें कि वो तो दलितों का मसला था। बुर्के और घूंघट में छिपी सच्चाई से हम भलीभाँति परिचित हैं। लेकिन यहाँ गौर करने वाली बात यह भी है आपस के वैचारिक विरोध को कितना दबाएं, तो मैं यह कहूंगी कि घरेलू हिंसा को छिपाते आये हैं हमसब। परिवार की इज्जत के लिए कुरबान हुए हैं हमसब। तो क्या अपने हक और स्वाभिमान केलिए अपने अपने बाण को प्रत्यंचा से हटा नहीं सकते हम। एक दूसरे की शारीरिक बनावट और अक्षमता पर बयान देना बंद करें। बहनापा कायम करें, पुरूषों से एकजुटता सीखें। पुरूष नहीं समाज की पुरूष वादीसोच का विरोध करते हैं हम। पापा हमारे सबसे प्यारे, जिनसे हम सीखते हैं जीवन का पाठ। पापा हमारे हीरो, जिसके गले लगकर हम आनंदित होते है वो भी पुरुष और हमारे जीवन को संपूर्णता देने वाली संतान भी पुरुष फिर पुरुषों का विरोध क्यों? हम तो सम्मान की चाह रखते हैं। लेकिन महिला दिवस पर या रखें जहाँ हक ना मिले वहाँ लूट सही की स्थिति में हम क्या कई बार सीमाएं लाघं जाते हैं यह ना भूले। संविधान शक्ति संपन्न है बस गुहार लगाने का माद्दा जीवित रहे। साथ ही इस बात का भी ध्यान रखें कि अबला बनकर किसी को अपने भीतर समाने का मौका ना दे, जो वाजिब हक है उसे हम लेकर रहीं
पुरूषों से अपील
महिलाओं के लिए मन में अगर सम्मान है तो उसे रोके नहीं बतायें। अधिकार छीनकर लिया जाये तो सुकून नहीं देता, इसलिएदिया बेटियों और पत्नी को अधिकार दें। स्त्रियाँ  मांस का लोथड़ा नहीं जिससे सिर्फ दैहिक आग बुझाई जाये। एक पुरूष यह  ऐलान कर खुश होता है मैंने जितनी महिलाओं से प्रेम किया सब अनोखी थीं, पर उन अनोखी महिलाओं के हृदय में क्या था यह जानने की कोशिश की आपने? उनका सम्मान किया कभी। बेतुके चुटकुले शेयर करने वाले से भी आग्रह। आफिस जाने वाली स्त्री हर किसी के लिए उपलब्ध नहीं होती यह बात जाने और समझें। बलात्कारी एलियन नहीं अपनी धरती के ही होतेहैं लेकिन जब बात किसी बलात्कारी की होती है तो हम उसे एलियन बताते हैं। यह स्थिति बदलनी होगी आओ अब बहुत हुआ, नयी शुरुआत करें कहीं पढ़ा था शिव से शक्ति को निकाल दो वह शव हो जाता है। माता का ऋण चुकाइए स्त्री के लिए अपमानजनक शब्दों को सिर्फ दिवस के दिन नहीं हमेशा के लिए भूलें। बधाई और शुभकामनाएं सभी को।

बुधवार, 28 अक्तूबर 2020

माँ

तोतली बोली से चेहरे पर 
उग आयी हल्की मूंछों तक
मैंने हर रोज संवारना चाहा
खुशी से तुममें अपना जीवन
स्तनपान हो या स्नान, औलाद देती है
सिर्फ और सिर्फ खुशी एक माँ को
हाँ, जो तड़प और भय माँ 
सहेजे है कलेजे में, वह भी कारक हैं
बस प्रेम और हर्ष का। 
बावजूद इसके माँ कई बार
नहीं बन पाती, संतान के लिए कवच
जिस गोद में वह सुकून से सोता है
वहाँ नहीं होती दवा हर मर्ज की
कई दफा योद्धा माताएं भी
बेबस होती हैं नियति के समझ
नजरें उतारते और मिर्च जलाते
कभी कभी उसकी खांसी बन जाती है दमा
भगवान के नाम का जाप करती माताएं
कुछ नहीं भूलतीं ना जीतिया ना  छठ
गुहार, लड़ाई, सिफारिश कुछ भी नहीं छोड़ती
फिर भी ना जाने हो जाती है क्या चूक... 

रजनीश आनंद

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2020

चांद रात

चांद रात को मैं अकेली
खिड़की से देख रही थी
बाहर का नजारा, सर्द थी रात
कई सवाल अतीत से सामने आकर
बढ़ा रहे थे कमरे की उष्णता
चांद का चुंबन, कभी उत्तेजना से सराबोर था
लेकिन आज, निरर्थक, निष्क्रिय
समय की गति अनोखी है
यह सोने को राख और 
राख को सोना बना सकती है
किंतु जबतक यह रहस्य उजागर होता है
सफेद हो जाते हैं केश
और नजर हो जाती है कमजोर
काश कि जिंदगी, पहली पाली में ही
समझा देती यह गूढ़ रहस्य
तो अनगिनत रिश्ते टूटने से बच जाते,,, काश

रजनीश आनंद


बुधवार, 7 अक्तूबर 2020

मर्तबान

इंसान अंदर से खाली होता है
चीनी मिट्टी के मर्तबान की तरह
हाँ, कांच के मर्तबान कम ही होते हैं
जिससे होकर हर नजर गुजर जाये
तभी तो जाहिर नहीं होती लोगों की शख्सीयत
इंसान का खालीपन उसकी पूंजी है
जिसके भरोसे वह खेलता है दांव
वह पूंजी के साथ लौटा लाना चाहता है
कारोबार का मुनाफा भी, किंतु
इंसान यह नहीं जानता कि
जिस चीज़ को वह अपनी पूंजी मानता है
दरअसल वह  जीवन का सबसे बड़ा दांव है
वो भ्रम है, जिसके होने की गलतफहमी में
इंसान पूरी जिंदगी मिटा देता है
लेकिन जब भी वो  होता है अकेला
चीनी मिट्टी का मर्तबान उसे दिखाता है
अपने अंदर की रिक्तता, वह सिसकता है
आंसू से भर जाता है मर्तबान, 
लेकिन कायम है सिसकती रिक्तता... 

रजनीश आनंद

बुधवार, 30 सितंबर 2020

रेप की वजहें और पीड़िता

एक और नाम जुड़ गया है फेहरिस्त में हाथरस गैंगरेप। ऐसे ही दिल्ली गैंगरेप, कठुआ गैंगरेप, उन्नाव गैंगरेप और बदायूं गैंगरेप। हमारे जेहन में ऐसे कई  केस हैं हम अरूणा शानबाग को नहीं भूले। मथुरा को नहीं भूले पर हम ऐसी घटनाओं को नहीं रोक सके। देश में बलात्कार के दोषियों के लिए मृत्यु दंड तक का प्रावधान है, बावजूद इसके तेलंगाना में रेप करके पीड़िता को जला दिया जाता है। उनका एनकाउंटर होता है, लेकिन बलात्कारी डरे? दिल्ली गैंगरेप के दोषी फांसी पर चढ़ाये गये क्या उस एक दिन भी देश में बलात्कार की घटना रूकी? नहीं रूकी। 
दर असल यह मसला आज का नहीं है। मानव जाति के साथ ही बलात्कार भी फूलता फलता रहा है। चूंकि हमारे समाज में इसे लड़कियों की इज्जत से जोड़ा जाता है, इसलिए कितने बलात्कारी सहजता से अपराध करके घूमते रहे और स्त्री जीवन भर सिसकती रही। यह बिडम्बना है, पर सच है। अगर घटना सामने आ गयी और सरकार की अकर्मण्यता पर सवाल उठे तो मुआवजा ठूंस दिया जाता है मुंह में 25 लाख का, उसपर सरकारी नौकरी भी। 
एक गरीब तो यूं ही चुप बैठ जायेगा, बेटी तो चली गयी बची खुची इज्जत बचाने लो और जीवन भर की रोटी का जुगाड़ बेटी ने मरकर कर ही दिया है। सवाल है कि क्या समाज से यह रोग कभी नहीं जायेगा? क्या स्त्री हमेशा अभिशप्त रहेगी?

स्त्री की हमारे समाज में अपनी आइडेंटिटी नहीं है। उसे इंसान नहीं वस्तु बनाया गया है जिसका उपभोग पुरूष करता है। पुराने समय से हमारे समाज में ऐसे उदाहरण हैं।  द्रौपदी को जुए में हारना उसे वस्तु ही साबित करता है। जब एक महारानी की समाज में ऐसी स्थिति थी तो आम महिला की कैसी होगी। 
चूंकि हमारा समाज जाति आधारित है, इसलिए रेप जैसे अपराध को भी वैसे ही समझना होगाः

यह कहना कि सवर्ण महिला के साथ रेप नहीं होता, बिलकुल गलत है। उनके साथ भी खूब रेप होते हैं। बाहर तो छोड़ दें घरों में भी होते हैं जिसकी चीख इज्जत की महल से बाहर नहीं जाती। बावजूद इसके ये महिलाएं गरीब तबके की औरतों से सुरक्षित हैं क्योंकि उनका परिवार उन्हें सुरक्षित करता है। काम करना है तो कहाँ करना है? सुरक्षा है या नहीं जैसे कई मसलों पर परिवार विचार करता है। लेकिन यह सुविधा दलित या आदिवासी महिलाओं के पास नहीं है। 
जीवन बचाने के लिए उन्हें संघर्ष करना होता है, और ऐसे में वे यह नहीं समझ पाती कि कहाँ काम करना है कहाँ नहीं। कारण वह सभी के लिए सहज उपलब्ध होती हैं। गाँव में शौचालय की समस्या है देर रात या अहले सुबह गयी मैदान तो कोई ना कोई भेड़िया ताक में होगा। बलात्कार के सिर्फ यही कारण हैं ऐसा नहीं है। लेकिन यह महत्वपूर्ण वजह हैं ऐसा मैंने पाया है। जाति आधारित समाज में दबंग जातियों की दबंगई भी चलती है गरीब महिलाएँ पिसती हैं। दलित महिलाओं के साथ रेप इसलिए ज्यादा होते हैं। महिला जाति ही दलित है और उसके शरीर का दोहरा बदस्तूर जारी है। समाज के हर तबके को इसपर विचार करना चाहिए, कि आखिर यह अपराध समाज से कैसे मिटेगा। राजनीति का अपराधीकरण किया जा भी इस अपराध को बढ़ावा देने के मूल में है। और भी कई वजह हैं जिनपर विचार करके शायद हम समाज से बलात्कार मिटा पायें। किंतु इसके लिए पहले महिला को सम्मान देना होगा जैसे वह पुरुष को देती है। किसी को देखती ही टंच माल कहकर लार टपकाने और उसका विश्लेषण उसके शारीरिक उभारों से करने से अपराध वह भी रेप के अपराध नहीं रूकेंगे।

मंगलवार, 29 सितंबर 2020

बौनी लड़की

जेहन में आज भी कायम है 
वो इलाहाबाद की सर्द सुबह
जब आराम से बालकनी में बैठ
खा रही थी, शुद्ध घी में चुपड़ी लिट्टी 
और धनिया पत्ती की चटनी
साथ में अदरक वाली चाय, 
जायके और सेहत का पूरा इंतजाम
प्रेम प्रस्फुटित था सामने
दो किशोरवय जोड़ा
उनकी नजरें टकरातीं
तो उनकी सांसों की गरमाहट
महसूस हो जाती थी मुझे
उस गरमाहट में एक बर्फीले स्पर्श ने जगाया
सामने एक मैले से कपड़े में
छोटी सी बच्ची, एक डेढ़ साल की
मेरे प्लेट को ध्यान से देख रही थी
मैंने सोचा बच्ची है पता नहीं कहाँ से आयी
तब- तक नीचे से मकान मालिकन
ढूंढ़ती आ गयी, कर्कश आवाज और क्रूर चेहरा लिये
अरी बहुत शैतान है, ऊपर कैसे आयी?
बच्ची डरी नहीं, ढीठ होकर बोली
लिट्टी की खुशबू खींच लायी
मैं दंग थी उसके जवाब पर
हैरत से पूछा- बोलना आता है बेटा? 
नाम क्या है तुम्हारा
वो बोली श्वेता, पर है काली कलूटी
दादाजी ने रख दिया है नाम
बिना सोचे समझे
वह खींचकर उसने ले जाने लगी
बच्ची की नजर मेरे प्लेट पर थी
मैं भागकर गयी और दो लिट्टी उसे थमाया
उसकी आंखों में चमक थी
फिर वो आने लगी मेरे पास
कभी चॉकलेट, कभी मिठाई या कुछ और
मैं उसे खिलाती वो आकर खाती
पता चला सात आठ साल की है
पर लंबाई बढ़ती नहीं
घर वाले ही ‘बौनी’ कहकर बुलाते
एक रात नीचे से रोने की आवाज आयी
लगा पिटाई हो रही बौनी की
मन हुआ जाकर देखूं
कलेजे पर पत्थर रखा
रात कैसे कटी मालूम नहीं
सुबह वह आयी नहीं, मैं बेचैन रही
दो दिन बीते, तीसरी सुबह आयी वो
मैंने उसे पास खींचकर पूछा कहां थी 
आयी क्यों नहीं थी?
उसके चेहरे पर चोट के निशान थे
कहा- मैंने मांग दिया था अंडा
पर, मेरे हिस्से तो है छूछी रोटी
अंडा दूध तो भाई के लिए है
श्वेता का मन कलुषित था
उस व्यवहार पर, जो मिला था उसे परिवार से
मैंने देखा, वह बौनी लड़की 
समाज पर बड़े सवाल खड़ी कर
चुपचाप उतर रही थी सीढ़ियां... 

-रजनीश आनंद

रविवार, 27 सितंबर 2020

लैप पोस्ट

मेरे कमरे की खिड़की के सीध में है ये लैप पोस्ट
हर रात इसे देखती हूं
कभी मच्छरदानी खोंसते तो 
कभी किताबों को पढ़ते
पता नहीं क्यों? 
निस्तब्ध रात्रि में वाचाल होते हैं ये लैप पोस्ट
मैं समझना चाहती हूं 
इसकी मूक वाणी को
लेकिन इससे नजरें नहीं मिला पाती
ये मेरे सवालों को धुंधला कर देती है। 
जब घिसती हूं बेटे के तलवे पर सरसों का तेल
उसकी झांस से बचने का उपाय 
मैं ढ़ंढ़ती हूं लैप पोस्ट में 
अगर नहीं होता लैप पोस्ट तो? 
चूंकि मै कुछ दूरी बनाकर पूछती हूं मच्छरदानी के अंदर से
जवाब बिखरे नजर आते हैं लैप पोस्ट के नीचे
सड़क डरावनी हो जाती
खो जाता सुरक्षा का एहसास
बेटियां शाम होते दुबकती घरों में
कोई गरीब बच्चा इसके नीचे बड़ा ना बनता
 लैप पोस्ट हमेशा विपरीत परिस्थितियों में रौशन होता है
आंधी तूफान का उसे डर नहीं
ना डर है अकेले पन का
तब ही तो लैप पोस्ट मुझे स्त्रीलिंग लगते है
क्योंकि विपरीत परिस्थितियों में सृजन औरत का शगल है... 

रजनीश आनंद