-रजनीश आनंद-
पुरी में समुद्र देखने
का रोमांच इतना ज्यादा था कि हम होटल में रूकना नहीं चाह रहे थे, हम सब बालकनी
में आ गये. रिस्पेशन पर चाय के लिए बोल दिया था, जबतक चाय आती हम ताक-झांक के
मूड में थे. बालकनी में आते ही समुद्र किनारे बहने वाली हवा ने तन-मन को आनंदित कर
दिया. होटल के सामने ढेले पर चाय मिल रही थी और लोग होटलों से निकलकर वहां जमा
थे. दूध-चायपत्ती के साथ उबलती चाय. बेहतरीन स्वाद और सुगंध. मेरा ध्यान रह-रह कर उस
ओर जा रहा था और कोफ्त हो रही थी कि होटल वाला चाय लेकर क्यों नहीं आया,
जबकि पांच मिनट से ज्यादा का समय नहीं हुआ था. बालकनी के ठीक नीचे से दाहिनी ओर एक
गली जा रही थी जहां पर अंग्रेजी में लिखा था- Seabeach this way. सामने दूसरी
होटलों की लाइन. उन्हीं होटलों के बीच से एक नारियल के पेड़ के पीछे साफ दिख रहा
था समुद्र. जिसकी विशालता का अनुभव 500-600 मीटर से भी सहजता से किया जा सकता था.
बंगाल की खाड़ी का यह
हिस्सा देखने के लिए हम बेचैन थे. तबतक चाय आ गयी थी. जिसे पीने में आनंद तो नहीं
आ रहा था. लेकिन गरम थी और सुबह-सुबह फ्रेश होने के लिए जरूरी. बिना उसके
प्रेशर फील नहीं होता. चाय का स्वाद तो मैंने पीया आंखों ही आंखों में बालकनी से ले लिया
था. बच्चे एक साथ ही ब्रश कर रहे थे. टाॅयलेट वेस्टर्न था तो छुटकू यानी लकी
बाबू को बहुत समस्या थी खैर उसे पकड़ कर वेस्टर्न टाॅयलेट में इंडियन स्टाइल में बैठाना
पड़ा क्योंकि उसने देखकर कहा कि यह तो दादा का टाॅयलेट है हम इसमें पाॅटी नहीं करेंगे.
काफी मान-मनौव्वल के बाद वह माना, क्योंकि घूमने की जल्दी थी उसे.
तो फ्रेश होकर हम समुद्र
की तरह भागे, जैसे वह पुकार रहा हो हमें. जिस ओर सब जा रहे थे हम भी उसी ओर हो लिए.
महज 400 मीटर चले होंगे कि समुद्र की गर्जना सुनाई पड़ने लगी, बच्चों के साथ-साथ
हम भी उत्साहित. जिस सड़क से हम जा रहे थे, सड़क की दोनों ओर खाने का सामान बिक रहा
था. कहीं उरद के बड़े तो कहीं पूरी-सब्जी, ब्रेड आदि. कुछ छोटे-छोट होटल भी थे. इसके
अतिरिक्त होटलों में भी रेस्तरां था. मगर हम खाने के मूड में नहीं थे. गली से निकलकर
पक्की सड़क पर आये और फिर रेत ही रेत. सुबह-सुबह समुद्र का नजारा बहुत खूबसूरत था.
टूरिस्ट भी बहुत थे. बैलून वाले भी दिख रहे थे. हम भागकर किनारे तक पहुंचे. भीड़ थी
सब समु्द्र की आती-जाती लहरों का मजा ले रहे थे. सभी के चेहरे पर सुकून दिख
रहा था. बच्चों के चेहरे पर मुस्कान थी और हमदोनों बहनें उन्हें देखकर आनंदित. आसपास
जो लोग थे वे भी अपने में खोये. दूर से ही महसूस हो जाता था कि अब जो लहर
आने वाली है वह कितनी तेज धक्का देगी. लहरें आतीं और भीगाकर चली जातीं. मुंह में
उसका नमकीन पानी जाता, तो जिंदगी भी, नमकीन हो जाती, जैसे
प्रेमी ने चूम लिया हो
और हम सब बैठे उसके दूसरे चुंबन के आवेग का इंतजार करते. लहर पूरे फोर्स में
आती थी, संभलकर ना रहो तो पटक दे आपको. कई बच्चे तो धड़ाम-धड़ाम गिरते थे. कुछ कपल लहर
के साथ प्रेम के हिचकोले भी खाते नजर आ रहे थे. उनकी कहानी उनकी नजरें बयां कर देती
थीं.
बड़ी शांति महसूस हो रही
थी, ना तो बच्चों को स्कूल जाना था और ना हमें आफिस. बस हम सुमुद्र का आलिंगन और उसके
बीच मस्ती करते बच्चे. मिकी का खिला चेहरा देखकर बहुत सुकून मिल रहा था. छुट्कू शुरुआत
में दैत्याकार समुद्र को देखकर डरा था, लेकिन कुछ ही देर में उसका डर जाता रहा
और वह मस्ती करने लगा था. दीपांशु भी मजे ले रहा था. बच्चे कभी लेटकर
कभी बैठकर लहर का आनंद ले रहे थे. हम भी रेत पर बैठे थे, तभी एक व्यक्ति
ने मुझसे कहा-दीदी रोसगुल्ला खाबेन? खूब मिष्टी. एकदोम फ्रेश. समुद्र के नमकीन पानी से भीगा मन मीठा खाने को ना जाने
क्यों ललचा गया. मैंने बच्चों की ओर देखा, उन्हें उस व्यक्ति की बात समझ तो नहीं
आयी थी लेकिन जब उसने अपने मटके में से थोड़ा मटमैला सफेद सा रसगुल्ला निकाला
तो लकी दौड़कर आया बुआ, हम भी खायेंगे. फिर हमने दो-तीन दोना रोसोगुल्ला उस भाईना
से ले लिया. ओडिशा में भाई को भाईना बोलते हैं. वैसे दादा खूब चलता है और
अगर बांग्ला जानते-समझते हैं, तो बातचीत में कोई परेशानी नहीं है. हमारे रांची के रसगुल्ले
से कुछ अलग किंतु स्वादिष्ट. मजा आया खाकर. शायद रांची में बंगाल का रसगुल्ला मिलता है और यहां ओडिशा का रसगुल्ला
था. खैर रसगुल्ले की जंग बंगाल-ओडिशा वाले
लड़ते
रहें हम तो झारखंडी आदमी, जिसके पूर्वज बिहारी थे और हम खाने के शौकीन हैं, बस भोजन
स्वादिष्ट होना चाहिए. रसगुल्ले के लिए जीआई टैग की जंग से अपन को कुछ लेना-देना
नहीं था. थोड़ी ही देर में बच्चों को भूख लग गयी और हम यह भी प्लान
करने लगे कि क्या किया जाये हमारे पास पूरा समय था, घूमने की योजना भी थी.
हम बेमन से समुद्र
की आगोश से निकले जैसे प्रेमिका निकलती
है प्रेमी की बांहों से पर एक उम्मीद थी कि कुछ देर में फिर आना है, इसलिए
बहुत निराशा नहीं हुई. हम बात कर ही रहे थे कि कहां और क्या खायेंगे कि लकी
को चश्मावाला दिख गया, बस वह रेत पर दौड़ने लगा,
चश्मा चाहिए, चश्मा चाहिए. फिर उसने रंजू से एक चश्मा और एक हैट खरीदवा लिया
और फिर हम घोष होटल में
थे. जल्दी में पूरी-सब्जी मिल रही थी, तो उसी का आनंद लिया और होटल के
सामने से ही कैब बुक कर लिया. कैब वाले पैसा समझते हैं और कहां जाना है यह समझते हैं बाकी बातें
ना उन्हें समझ आती है और ना वे समझने की कोशिश करते हैं. खैर हमें भी उनसे इससे ज्यादा
बातचीत करनी नहीं थी. हमने पूरी के आसपास के मंदिर और कुछ टूरिस्ट प्लेस
देखने की योजना बनायी.
पूरे एक हजार में कैब वाला
तैयार था. हम जगन्नाथ मंदिर आज जाने वाले
नहीं थे क्योंकि अपनी संस्कृति और परंपरा अनुसार हम जगन्नाथ जी के दर्शन खा-पीकर नहीं
कर सकते थे. आप जैसे कितने भी प्रगतिशील हो जायें, कुछ चीजें आपके डीएनए में है, जिसे आप चाहकर भी
बदल नहीं
सकते. तो खैर पुरी देखने के इरादे से हम निकले.
टैक्सी मुख्य सड़क से निकलकर तुरंत ही हाइवे पर आ गयी. खाली
सड़कें. ट्रैफिक का कोई नामोनिशान नहीं. पुरी दरअसल जगन्नाथ मंदिर और शीबिच के कारण ही प्रसिद्ध है अन्यथा यह
एक छोटा सा कस्बाई शहर है. हमारी रांची झारखंड की राजधानी बनने के बाद से पिछले
19 सालों में काफी बदल गयी है. माॅल रेस्तरां,
होटल, स्कूल, काॅलेज खुल गये
हैं. लेकिन पुरी तो वैसा शहर भी नहीं जैसी रांची, बिहार में थी.
हां एक बात है कि रांची एक ऐसे जगह का प्रतिनिधित्व करती है जो खनिज संपदा से परिपूर्ण
है, पुरी के पास यह कमी है. ओडिशा भारत के पिछड़े राज्यों में से एक है, यह बताने की
जरूरत नहीं पड़ती है, यह वहां दिखता है. लोगों के आजीविका का
मुख्य स्रोत टूरिस्ट हैं. अगर टूरिस्ट ना आयें, तो पुरी की अर्थव्यवस्था भरभरा कर धराशायी
हो जायेगी. संबलपुरी प्रिंट की साड़ियां ही महिलाएं
पहनी हुईं दिख रही थीं. चूड़ी की जगह पर बंगाली
महिलाओं की तरह शंखा-पोला
और लाल सिंदूर.
हालांकि बंगाली महिलाएं खुद को ज्यादा ग्लैमरस
तरीके से सजाती-संवारती हैं, उसका अभाव दिखा उड़िया महिलाओं
में. बंगाली और मिथिलांचल (बिहार) की महिलाओं की यह खासियत है
कि वे खुद को अच्छे से सजा-संवार कर रखती हैं.
छोटे से छोटे मौके पर भी वे फिटफाट दिखती हैं.
खैर हम जिस टैक्सी
में बैठे थे उसका ड्राइवर बिलकुल पागल मालूम हो रहा था. ऐसा भी संभव है कि किसी पुरुष सदस्य को हमारे
साथ ना देखकर वह ज्यादा ही दिखावा कर रहा है. गाड़ी वह 100-110 की स्पीड में चलाता
और बीच-बीच में कार का दरवाजा खोलकर थूकता. उस स्पीड में जब वह कार का दरवाजा खोल थूकता तो मन करता था कि एक चपत लगा
दूं , रंजू मैडम तो डर के मारे जय बजरंग बलि का राग अलाप
रहीं थी और कुछ पूछो तो कोई जवाब नहीं दे रही थीं. मैं समझ गयी उसकी हालत
खराब है. हम टैक्सी वाले को पेमेंट कर चुके थे, अब उस चूसे हुए आम जैसे चेहरे वाले
ड्राइवर को हमें झेलना था. एक मन हुआ था कि भुवनेश्वर होकर आते, लेकिन
आधे रास्ते से ही मन बदल दिया.
हमने साक्षी गोपाल मंदिर,सोनार
गौरंग मंदिर और सुदर्शन म्यूजियम देखा. मंदिरों में कलिंग
शैली का स्थापत्य हर जगह दिखता है. हमें भूख भी लगी
गयी थी तो एक जगह पर रूककर खाने का आर्डर दिया. हम रांची से ही मन बनाकर गये थे कि
पुरी में मछली खायेंगे, सो हम बहनें माछ-भात का आॅर्डर कर बैठी और बच्चे
हमेशा की तरह चिकेन-चावल. खैर जैसे ही खाना आया मैं शौक से खाने के लिए
तैयार हुई. मछली की ग्रेवी में कोई स्वाद ही नहीं आया. साथ ही वह मीठा भी
था. मछली भी बहुत कम फ्राई होने के कारण अजीब सा लग
रहा था. खैर किसी तरह खा लिया और यह सोचा कि हमारे यहां जो सरसों डालकर
मछली बनती है, उसका कोई सानी नहीं. बच्चों से पूछा चिकन कैसा
है, तो उन्हें तो घूमने की मस्ती में स्वाद का कोई ख्याल ही नहीं था. खैर खाकर हम होटल वापस आ गये और कुछ देर सोने की योजना बनायी.
शाम को हम फिर
शीबिच पर जाने के लिए तैयार थे. शाम को शीबिच का सौंदर्य कुछ ज्यादा ही हो जाता
है और एक-दूसरे में खोये लोग किनारे पर बैठे होते हैं. खैर हमारे साथ तो बच्चे थे इसलिए
हमने श्रृंगाररस को किनारे कर छालमुढ़ी पर कंस्ट्रेट किया. बहुत आनंद आ रहा था छालमुढ़ी
खाने में हम पांचों ने बीस-बीस रुपये का एक-एक ले
लिया.
दीपांशु रांची से कह रहा था बुआ हमलोग वहां पर फिश फ्राई खायेंगे, प्राउन खायेंगे और केकड़ा
भी खायेंगे. मैंने कहा चलो देखते हैं. कुछ दूरी पर ही ढेले
में समुद्री मछली, प्राउन और केकड़े को फ्राई किया जा रहा था, लेकिन
तेल की
गंध ज्योंही नथुने से टकराई दीपांशु बोल उठा हम नहीं खायेंगे, कैसा अजीब से महक रहा है. हम नहीं खायेंगे.
बड़ा ना बोला तो बाकी दो ने भी सरेंडर कर दिया. फिर हम रसगुल्ले
पर टूटे और देर से दोपहर का खाना खाने के कारण हमने डिनर मिस करना ही बेहतर समझा. हां
अमूलकूल पी
लिया
था.
हम शीबिच से होटल के लिए नौ बजे निकल गये, रास्ते पर चहल-पहल थी. किसी तरह की कोई परेशानी नहीं. काफी टूरिस्ट रहते हैं
और टूरिस्ट यहां के लोगों की लाइफलाइन इसलिए उनके साथ कोई अनहोनी नहीं होती. लेकिन
एक चीज जो मुझे थोड़ा खटकती रही थी, वह यहां के लोगों
का बोलने का तरीका. बड़े ही रफ तरीके से बातचीत करते हैं. फिर मुझे
लगा
कि शायद भाषा बदलने से भाषा की नम्रता भी मिस हो जाती है उनकी शायद. हमारे यहां इतने कठोर स्वर में ग्राहकों से बातचीत
नहीं की जाती है.
खैर हम होटल आ गये और चैन से सो गये. एसी आॅन था तो राहत थी, क्योंकि
मार्च के महीने में भी यहां चिपचिपा मौसम था गरमी थी. अगले
दिन सुबह हम मंदिर जाने के लिए तैयार थे. मंदिर होटल से 10 मिनट की दूरी पर था पर आॅटो वाले
ने हमसे 260 रुपये ले लिये. मैंने उससे कहा भी लूट
क्यों मचा रखी है भाई? उसपर मंदिर से 100 कदम पहले
ही हमें छोड़ दिया. उसने कहा कि आगे जाने पर उससे 50 रुपये ले
लिया
जायेगा, सो आप लोग पैदल ही
चले जायें. खैर पैसे देते हुए मैंने उससे पूछा, (क्योंकि वह
ठीक-ठाक हिंदी बोल और
समझ रहा था) यहां के लोगों के आय का स्रोत क्या है? तो उसने कहा सब टूरिस्ट पर
निर्भर हैं. खैर हम पतली गलियों से होकर मंदिर की ओर बढ़े. पुराना बसा इलाका.
टूटे-फूटे घर और ओडिशा की अर्थव्यवस्था सब दिख रही थी वहां पर. मंदिर परिसर पहुंचते
ही एक पंडित जिसे हम देवघर में पंडा कहते हैं, ने हमें अपनी गिरफ्त में ले लिया. कोई पंडा तो चाहिए तो मैंने और मेरी बहन ने आंखों में
ही इशारा कर लिया उसने कहा चलो यही सही. वह हमें सामने के बैरिकेटिंग पार कराता हुआ
मंदिर के अंदर ले गया और हां इससे पहले उसने एक सवाल दाग दिया था कि आपलोग हिंदू हैं
ना?
सुनने में अजीब सा लगा, पर यह हमारे समाज की सच्चाई की है कि भगवान के घर में
भी जाति-धर्म पूछकर उसके तथाकथित नुमांइदे आपको प्रवेश की इजाजत देते हैं. हालांकि
यह व्यवस्था अब कुछ सीमित जगहों पर ही है , लेकिन
दुर्भाग्य कि यह है और आप इससे रूबरू भी हो सकते हैं. यह खामी सिर्फ हिंदुओं में है,
ऐसा भी नहीं है. इस्लाम, ईसाइयत सब में आपको इस तरह की व्यवस्था मिलेगी
जहां आप दूसरे धर्म के होने के कारण भगवान से भी दूर किये जा सकते हैं. यहां मोबाइल फोन और चप्पल आदि
बाहर रखने की व्यवस्था थी. मेरा फोन नया था मात्र दस दिन पुराना, पूरे 14 हजार देकर
लिया
था किस्तों में तो मन नहीं कर रहा था कि फोन जमा करूं, लेकिन
उपाय नहीं था क्योंकि मोबाइल के
साथ पकड़े जाने पर भयंकर जुर्माना था शायद पांच हजार. सो बेमन से मैंने फोन जमा किया.
मंदिर परिसर में दाखिल होते
ही पहले वाले पंडे ने हमें दूसरे पंडे के हवाले
कर दिया. वह हमारा सामान्य ज्ञान मंदिर को लेकर बढ़ाते हुए अंदर
ले
गया, जहां उसने हमें प्रसाद खरीदवाया. हमने 101 रुपये का प्रसाद लिया.
वही खाजा मुरी वगैरह. अब उसने शुरू की अपनी बात, आप पांच लोग
हैं जगन्नाथ जी को केवल इतना
ही प्रसाद चढ़ायेगा. ठाकुर क्या सोचेगा बोलो? सबको अपने हिस्से
का प्रार्थना करना पड़ता है इसलिए सब प्रसाद ले लो.
मैंने कहा नहीं लेना है. प्रार्थना सब अपने हिस्से का कर लेंगे.
उसने जीवन तर जाये इसके लिए काफी हुज्जत ही, लेकिन
हम तो भगवान को बाबूजी मानने वालों में से हैं, सोचा अपने बाप से मिलने
के लिए मुझे पंडों से वकालत
करनी पड़ रही है, लेकिन प्रसाद तो हम और नहीं लेंगे
नाराज हो जायें जगन्नाथ तो हो जायें, उन्हें तो पता है कि हमारे पाॅकेट में पैसे कितने
हैं. मन में कहा जय जगन्नाथ और 101 रुपये का प्रसाद लेकर
ही चल पड़े.
पिछली दफा जब आयी थी तो पंडों की मनमान थी खास भोग के लिए
हमसे 1500 रुपये लिया था, पर इस बार ओडिशा सरकार इस काम को कर रही थी, तो
51 रुपये से 5000 रुपये तक कूपन दिया जा रहा था जितना सामर्थ्य हो लें.
यह व्यवस्था अच्छी लगी अंतत: पंडा हार गया और नाराज होकर कहा चलो
अपना कर्म जानो. हम उसके साथ चल दिये.
अब उसने हमें मंदिर के अंदर तीसरे पंडे के हवाले
किये और 51 रुपये हमसे लेकर चल दिया.
शायद वह जान गया था कि हमारी औकात इतने की है. तभी ऊलू
ध्वनि सुनायी दी. बंगालियों को शुभ अवसर पर ऐसी ध्वनि निकालते
सुना है. जगन्नाथ का मंदिर परंपरानुसार नतमस्तक हो गये हम. पुजारी 20-21 साल का रहा होगा. उसने हमसे प्रसाद लिया
और भगवान को चढ़ाने चला गया. हम बाहर निवेदन प्रार्थना में थे. पांच मिनट में वापस
आ गया, कहा-अभी जगन्नाथ जी को भोग लग रहा है कुछ देर में द्वार खुलेगा
तो दर्शन कर लेना. हम सामने से देख रहे थे, द्वार बंद था. भक्ति में डूबे
कई भक्त प्रार्थना करते कभी-कभी भावुक होकर रोते. कई जय जगन्नाथ का नाद करते तो कभी
ऊलू ध्वनि करते. अद्भुत वातावरण. ईश्वर का अस्तित्व है चाहे
नहीं है, पर यह वातावरण और आस्था अद्भुत. बिलकुल शांत सुकून देने वाला
वातावरण. पत्थरों से बना यह मंदिर कलिंग शैली का अनोखा उदाहरण. पर अभी भी मंदिर काफी मजबूत दिखता है.
हम जगन्नाथ जी के दर्शन के लिए इंतजार में खड़े थे, तभी आठ-दस लड़कों
का ग्रुप आया, सभी तिलकधारी, नयी ऊर्जा से परिपूर्ण भगवाधारी. एक पंडे को चाटना
शुरू किया. यह मंदिर कब बना है? किसने बनवाया है? उनके सवाल से ही समझ आ रहा था कि बिहार से हैं. पुजारी चुप. अब उनका
जवाब सुनिए. कब से पूजा कराते हैं यहां. बचपन से. यह कहकर पुजारी कट लिया.
अब ये चर्चा कर रहे हैं-साला बचपन से पूजा कराता है और पता नहीं कि मंदिर किस राजा ने
बनवाया.साले ढोंगी. वैसे इतिहास के अनुसार इस मंदिर का निर्माण कार्य
कलिंग के राजा अनंतवर्मन चोडगंगदेव ने 1148 में शुरू करवाया
था, जिसे 1197 में राजा अनंग भीम ने पूरा करवाया. काफी विशाल मंदिर 20-25 फीट ऊंची छत. बीच-बीच में जय जगन्नाथ का घोष
ध्यान भंग कर रहा था. आधे घंटे खड़े रहने के बाद दर्शन शुरू हुआ. पंक्तिबद्ध होकर आराम
से दर्शन संभव था. लेकिन एक क्रियेटेड हंगामा. अफरा-तफरी. मेरी बहन भीड़ से घबराती
है. तो हम चल दिये
उसी भीड़ में महि़ला पुलिस भी मौजूद थी जो भीड़ को नियंत्रित कर रही थी. भगवान तक
पहुंचने में मशक्कत काफी बच्चों को संभालना. खैर दर्शन हुए
भगवान के. मोहक कान्हा का बालरूप नहीं है यहां. अर्द्धनिर्मित मूर्ति जिसे आप ठीक से देख
भी नहीं पायेंगे और भीड़ आपको धकेल देगी.
मन में बस एक ही बात था जगन्नाथ कल्याण करना. इसके अतिरिक्त कुछ नहीं, क्योंकि वहां से सुरक्षित
निकलना सर्वापरि था. बाहर निकल आये तो जान में जान आयी. सबसे पहले
बच्चों को देखा, सब ठीक-ठाक ना. सब ठीक था. शांति मिली,
जगन्नाथ ने बचा लिया वरना उनके अंधभक्त जान ले
लें.
बाहर आये तो मोबाइल की
याद आ गयी. जल्दी से वहां पहुंचे. पूजा कराने के बाद पंडे कहां गायब हो
जाते हैं ना मालूम. इसलिए मोबाइल ढूंढना
था. ढूंढ़कर उस जगह पहुंचे और मोबाइल वापस
लिया,
तो जान में जान आयी. फिर चप्पल और
फिर बच्चों को लग गयी भूख. मंदिर प्रांगण से निकलते
वक्त एक जगह पर भोग का अंबार लगा था जिसे पैसे लेकर दिया जा रहा था.
भगवान माफ करें पर वे जिस तरह से बेचे जा रहे थे, उन्हें लेने
का मन नहीं हुआ. चावल, खीर यही सब था. हमने एक साफ-सुथरी जगह देकर खीर के लिए
पूछा-कुड़ी टका में एक दोना पायस. मतलब 20 रुपये में खीर. खैर मैंने एक ले
लिया.
भगवान का डर लगता है भाई. चखा तो नमकीन सा था. खैर उसे खाकर हम सब तर गये
और भगवान से कहा, जय जगन्नाथ कल्याण करो. बाहर निकले
. बच्चे भूख से बिलबिला रहे थे. खैर हमने कुछ जगह पर भोजन तलाशा
पर मिला नहीं.
अंतत: वहीं आ गये जहां भोजन कर रहे थे. हमने थाली
पूछा और जानना चाहा उसमें क्या होगा, तो वेटर ने बहुत अच्छे से समझाया. यहां बंगाली
स्टाइल का
थाली मिलेगा. सब्जी में मीठापन होगा, चाहे फिश करी भी खायें. हम मछली
को चीनी के साथ नहीं खाते, तो हमने एगकरी और चावल खाना बेहतर समझा. खा लिया
आनंद आया. मीठी सब्जी से बेहतर था. फिर समुद्र पर गये. लहरों
का आनंद लिया. बच्चों ने ऊंट की सवारी की. मैं रेत पर बैठी यह सोच
रही थी कि मंदिर में सिर्फ हिंदुओं को प्रवेश क्यों? मन आहत था. सोचा पहले
तो दलितों को भी मंदिर में प्रवेश नहीं मिलता
था आज उनकी तकलीफ का अंदाजा हुआ. मालूम
हुआ कि भुवनेश्वर के लिंगराज मंदिर में भी धर्म पूछकर इंट्री मिलती
है, तो बहुत अफसोस हुआ. कुछ देर समुद्र किनारे आनंद लेकर
हम वापस होटल आ
गये. शाम को सात बजे होटल से
चेकआउट कर गये, क्योंकि रात की ट्रेन थी. ट्रेन में बैठकर हमने खाना आर्डर कर दिया,
जो हमें भुवनेश्वर में मिला और फिर हम लौट चले
अपनी रांची की ओर. जगन्नाथ से यह प्रार्थना करते कि हे ईश्वर तुम तो सबसे प्रेम करते
थे और गीता में कहा भी है तुमने कि चाहे जड़ हो या चेतन उसमें मेरा अंश है, फिर तुम्हारे
द्वार पर यह भेदभाव क्यों? प्रभु मिटाओ यह सब, लेकिन
जवाब नहीं मिला, शायद इंसानों ने भगवान को अपनी गिरफ्त में ले
लिया
है और भगवान भी बेबस है....
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