बुधवार, 31 मई 2017

हृदय पर अंकित मैं

ये रात कुछ ऐसी बिखरी है
जैसे टूटकर बिखरा हो
तुम्हारा प्यार मुझपर
मैं समेट कर इन्हें
सजाना चाहती हूं तनबदन
ताकि जिस रात तुम
ना हो साथ मेरे
मैं इन सजावट को जी लूं
महसूस लूं तुम्हारी
खुशबू को जो बिखरी है आसपास
थाम कर तुम्हारे दोनों हाथ
मैं देखना चाहती हूं
हाथ की रेखाओं में
अपना नाम, लेकिन!!!
ना पाकर अपना नाम
जब झलकते हैं नयन मेरे
तो दोनों हाथोंं से सहेज कर मुझे
तुम अपने हृदय पर लिखा मेरा नाम दिखाते हो...
रजनीश आनंद
31-05-17

रविवार, 28 मई 2017

आकाश सा विस्तृत प्रेम...

तुम जैसे हो वैसे ही स्वीकार्य मुझे
मैं नहीं चाहती तुम्हें बदलना
बस थाम कर हाथ मेरा
जीवनपथ पर चलना तुम
आंखें मूंदकर, झांकों मेरे मन मेंं
आकाश सा विस्तृत प्रेम है तुम्हारे लिए
मैं नहीं चाहती
प्रेम का आडंबर तुमसे
बस, कठोर धरातल पर भी
चाहती हूं तुम्हारी बांहों का मजबूत घेरा
और कहना तुमसे , हां मुझे प्रेम है
और हमेशा रहेगा...

रजनीश आनंद
28-05-17

शनिवार, 27 मई 2017

मन पतंग

पतंग की तरह
ऊंचे आसमान में
उड़ना चाहती हूंं
जानते हैं सब
अगर ढील मिली
तो ऊंचे उड़ जाऊंगी मैं
इसलिए लटई को
तान कर पकड़ते हैंं
अंकुश लगते हैं
मेरी उड़ान पर
सुरक्षा के नाम पर
काट दिए जाने का
डर दिखाते हैं
तो कभी आड़ लेते है
हवा के विपरीत दबाव का
लेकिन मैं अपने हिस्से का
आसमान चाहती हूं
किसी के अधिकारों
पर कब्जा नहीं
औरत हूं तो क्या ?
पूर्वाग्रह नहीं , मौका चाहती हूं...
रजनीश आनंद
27-5-17

शनिवार, 20 मई 2017

औरत या मशीन

रास्ते से आते-जाते
हर रोज देखती थी उसे
पैर मशीन के पहिये पर
और हाथ फिसलते कपड़ों पर
स्टूल पर बैठ वह सिलती
ना जाने किसके-किसके कपड़े
लेकिन खुद के लिये कपड़े
नहींं सिल पा रही थी वो
पड़ोंं के टुकड़ों से बने
बिस्तर पर सोई रहती थी
एक अबोध, जिसके रुंदन को भी
दरकिनार कर वो चलाती रहती थी मशीन
कई बार महसूस किया
उसकी आंखों की तड़प को
बच्ची के रुंदन पर वह
मशीन बंद नहीं करती
मुख से निकालती थी अजीब सी धुन
जिसे सुन बच्चे को होता था
मां के साथ होने का अहसास
इस अहसास को ही मां समझ बैठी थी बच्ची
और मुझे दिखती थी मां की तड़प
और बेबसी
कई बार देखा दूध से भींगा स्तन
क्योंकि मशीन छीन रहा था
बच्चे से मां का आंचल
भूख से जंग में मां तो जीत रही थी
लेकिन हार रही थी मानवता
जब भी गुजरती थी उस ओर से
सोचती थी भेद क्या बचा है
औरत और मशीन का?
रजनीश आनंद
20-05-17

गुरुवार, 18 मई 2017

तुम मेरे जीवन की प्रेम कविता...

तुम मेरे जीवन की प्रेम कविता हो
बहते हो नस-नस में जीवन सरिता बनकर
मेरे दृगों में सजती है छवि तुम्हारी
वाणी से फूटते हैं तुम्हारे बोल
विचारों में बुनती हूं तुम्हारे साथ के सपने
चोट लगे तो आह की जगह निकलता है नाम तुम्हारा
खुशी की खबर तो खैर तुम्हारे नाम के
लिफाफे में ही कैद होकर आती है पास मेरे
सोचती हूं आखिर क्यों है इतना प्रेम तुमसे
तो मन कहता है , बाती ने कभी बताया
उसे क्यों है दीपक से इतना प्रेम
चांदनी और चांद के प्रेम का क्या है रहस्य?
तुम तो बस प्रेम करो और जीयो इस जीवन को
जो रौशन है उसकी एक बात से कि वो तुम्हारा है...
रजनीश आनंद
18-05-17

मंगलवार, 16 मई 2017

सहजन का पेड़

मेरे घर के आंगन में खड़ा है
एक सहजन का पेड़
फल देने के बाद
काट दी जाती हैं जिसकी शाखाएं.
फिर भी वो विलाप नहींं करता
नयी उम्मीदों को संजोता है
और उन्हीं के सहारे
उसके तन पर खिलते हैं
नव पल्लव और पुनः
लहलहाता है पेड़
तमाम गुणों के बावजूद
पूजनीय नहीं बन पाया कभी
उस औरत की भांति
जिसे हमेशा इस्तेमाल कर
छोड़ दिया जाता है
तड़पने के लिए, लेकिन
मैं एक विवश औरत नहीं
उम्मीदों से परिपूर्ण नारी हूं
जिसने सीखा है सहजन के पेड़ से
उम्मीदों को संजो कर दुबारा जीना...
रजनीश आनंद
16-05-17

सोमवार, 15 मई 2017

तब कोपल खिलते हैं...

मुझे ज्ञात है
पास नहीं हो तुम
फिर भी मैं चाहती हूं
जकड़ना तुम्हें यादों में
क्योंंकि यादें दामन नहीं छुड़ाती
उन यादों में हौले से
तुम्हें चूमकर, आंखें बंद कर
पुकारना चाहती हूं
लेकर तुम्हारा नाम
जानते हो प्रिये यादों में
तुम झट से चले आते हो
फिर हमारे बीच
नहींं होती है कोई दीवार
हम संजोते हैं सपने कई
तुम कहते हो मैं सुनती हूं
टकटकी लगाये देखती हूं
तुम्हारी आंंखों में, जिसमें
नजर आती हूं मैं
गौरवान्वित तुम्हारे साथ से
उस वक्त पेड़ों से पत्ते नहींं झड़ते
कोपल खिलते हैं
चांद कटता नहीं
पूर्ण होकर मुस्कुराता है
और मैं तुम्हारी बांहों में
कसी सृजन करती हूं
अपने लिए खुशियों की
जो सिर्फ और सिर्फ तुमसे है...
रजनीश आनंद
15-05-17

शनिवार, 13 मई 2017

मेरी पहुंच तुम तक...

तुम्हें छूने की चाह में
हर पूनम की रात को
जब चांद तुम्हारी तरह मुस्कुराता है
मैं बढ़ाती हूं अपना हाथ
लेकिन रेत के टीले में
जैसे धंसता जाता है हाथ
और ठौर नहीं मिलता
वैसे ही विस्तृत आकाश में
चांद तक नहीं पहुंचती बांहें मेरी
और पूनम की रात अमावस में बदलती है
पर अमावस की काली रात भी
उस दीये की रौशनी को
ढांक नहीं पायेगी जिससे
रौशन है हृदय मेरा , रक्त बनकर
बहता है मेरे नस-नस में प्रेम तेरा
उम्मीद है प्रेम मेरा संपूर्ण होगा
तब हाथ बढ़ाकर छू लूंगी तुम्हें...
रजनीश आनंद
13-05-17

शनिवार, 6 मई 2017

कहानी मेरी तुम्हारी...

कहानी नहीं ये आम है
जिसमें एक लड़का और
एक लड़की होते हैं
जिनके मिलन पर समाप्त का
बोर्ड चस्पां हो जाता है
ये कहानी तो अनूठी है
मेरी और तुम्हारी
जिसमें बहती है
हमारे प्रेम की नदी
जिसने सराबोर कर रखा है हमें
नदी के दो किनारे हम
प्रेम के उतार-चढ़ाव में भी
बहेंगे बिलकुल साथ
विस्तार और संकुचन के साथ
नदी के बूंद-बूंद में
बसता है प्रेम हमारा
नकारात्मक नहीं सकारात्मक है
इस प्रेम का उद्वेग
क्योंकि हमारे रिश्ते का आधार
सिर्फ और सिर्फ प्रेम है...
रजनीश आनंद
06-05-17

मैं दिकू नहीं बेटी हूं...

दिकू यह शब्द झकझोरता है मुझे
अस्तित्व पर उठाता है कई सवाल
पूछता है क्योंं चस्पां हूं मैं तुमपर?
जानना तो मैं भी चाहती हूं,
इसी माटी में जन्मी,
यहीं फनां होने की चाह
फिर भी एक परायापन क्यों
जब नंगी की जाती हैं
जबरन जंगल और बेटियां
तो दर्द सिर्फ आदिवासियों को नहीं
मुझ जैसे दिकुओं को भी होता है
जल-जंगल-जमीन पर हक की लड़ाई में
अपनों को पराया करना,
उन्हें शक की नजर से देखना
कितना न्यायोचित है?
यह सवाल उनसे जो मुझे दिकू
करार देने पर आमदा है
क्या अपनी जमीन से बेदखल किये जाने का
दर्द मुझे नहीं सालता है?
ना कभी सौदा किया धरती का
ना दलालों की सुनी कभी
चंद भेड़ियों के दोष का
ठीकरा मेरे सिर क्यों?
जब जंगल में पलाश खिलते हैं
तो मन मेरा भी बावरा होता है
रूगड़ा,खूंखड़ी का स्वाद
मुझे भी बहुत भाता है
झक सफेद लाल पाड़ की साड़ी
मुझ पर बहुत खिलती है
प्रकृति ने मुझे बेटी माना है
तो फिर वे लोग कौन हैं?
जो मुझे दिकू बताने पर आमदा हैं
यह धरती मेरी,यहां के झरने मेरे
धरती आबा मेरे,मैं दिकू नहीं
झारखंड की बेटी हूं...

रजनीश आनंद
06-05-17

गुरुवार, 4 मई 2017

वो सुबह...

सोचती हूं वो कैसी सुबह थी
जब मन के कहने पर
मैंने दी थी तुम्हारे दरवाजे पर दस्तक
सूरज तो पूरब से ही निकला था
हवाएं भी वैसे ही थीं
पहली ही दस्तक में
खुल गया था दरवाजा
हां ,सुना  मैंने बज रह थे कई धुन
जो खींंच रहे थे मुझे अपनी ओर
मैंने रोका खुद को, मिन्नतें की
लेकिन दिल नहीं माना
मैंने दरवाजे के अंदर प्रवेश किया
तुम सीढियों के ऊपर खड़े थे
तुम तक पहुंचने लिए
मुझे करनी थी कई बाधाएं पार
मेरी जिजीविषा बालमन हो गयी
सकारात्मकता जीवन में सजग हो गयी
और मैं तुम्हारी हो गयी...
रजनीश आनंद
05.05.2017