शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2017

उम्मीद

जीवन  में क्या मायने हैं उम्मीद के?
यह सवाल मेरे लिए बेमानी था तब तक,
जब तक की मैंने नहीं थामा था दामन इसका
पर ज्योंही मैंने उम्मीद को आगोश में लिया
वह धंस सा गया मेरे सीने में
मैं पिघलती गयी उसके सीने से लगकर
और वह मेरी कमजोरी बनता गया
जकड़ लिया बिलकुल उसने मुझे
फिर शातिर खिलाड़ी की तरह उसने कुतरे मेरे पर
मैं झटपटाई, लेकिन कुछ कर ना पायी
उम्मीद ने तो कैद कर लिया था मुझे पिंजरे में
सपने टूटे, वास्तविकता सामने थी मेरे
उम्मीद का चेहरा क्रूर होता जा रहा था
मैं डरने लगी थी उससे और उसका आगोश
चुभने लगा था मुझे, तब समझ पा रही थी मैं
उम्मीद के टूटने का दर्द, हां अब भी स्मरण है
जब पहली बार टूटी थी उम्मीद
प्रतीत हुआ था चांदनी रात में
छा गया हो अमावस जैसे
बहे थे इतने आंसू कि पोंछने की
इच्छा ना रही थी शेष, लेकिन
अब मैं समझ गयी हूं
उम्मीद है , तो सकारात्मक अनुभूति
किंतु जो इसका गुलाम हुआ इसने
दोजख से बदतर कर दी उसकी जिंदगी
इसलिए प्रण किया है मैंने
उम्मीद से प्रेम तो करूंगी, लेकिन
नहीं बनने दूंगी उसे मेरा भाग्यविधाता
क्योंक नकारात्मकता से मुझे चिढ़ है
जीवन सुंदर है इसे एक उम्मीद पर कुर्बान क्यों करना?
रजनीश आनंद
24-02-17

बुधवार, 22 फ़रवरी 2017

...जिसपर लिखा था सबसे छुपाकर तुम्हारा नाम

रात की तन्हाई में जब भी
मैं किताब को थाम कर बैठती हूं
तुम्हारे आसपास होने का एहसास
करा जाती हैं हवाएं.
कानों में चुपके से कहतीं हैं
सोना नहीं वो आयेगा
सजा ले सपने तू पलकों पे
सुन कर उसकी बात मैंने
लजाकर ज्यों किताब को भींचा
हैरान हो गयी मैं
किताब में धड़क रहा था तुम्हारा दिल
धड़कते दिल की बात समझने की
चाह में मैंने पलटा ज्यों किताब का पन्ना
तुम्हारी प्यारी आवाज कानों में गूंज गयी
जिसने किया मुझसे ये वादा
तुम हर पल साथ खड़े हो मेरे
देह या अदेह, स्वरूप कोई भी हो
तुमने थाम रखा है हाथ मेरा
तुम हर संघर्ष में हो साथ मेरे
पहाड़ से मजबूत इरादों के साथ
तुम्हारे वादे पर यकीन कर मैंने
किताब को चूम लिया
जिसपर लिख रखा था
सबसे छुपाकर मैंने नाम तुम्हारा...
रजनीश आनंद
23-02-17

जीवन की धुरी

घड़ी की सुइयों से जुड़ गया है
कुछ ऐसा नाता कि 
कभी-कभी मालूम होता है
जैसे मैं खुद घड़ी की सुई
बन घूम रही हूं उसकी धुरी पर
सुबह के पांच बजते ही 
घड़ी का अलार्म कानों में 
कहता है बस , अब और नहीं
बिस्तर को नहीं है तुम्हारी जरूरत
उठो कि कई काम है तुम्हें निपटाने
ब्रश को हाथ में पकड़े-पकड़े
मैं कर लेती हूं कई प्लानिंग
घर-बाहर की जिम्मेदारियां निभाते
कभी-कभी महीनों बीत जाते हैं
खुद से बातें किये, सोचे हुए
लेकिन मैं खुश हूं, क्योंकि कायम है
मेरी पहचान, मैंने मिटने नहीं दिया है
उस अस्तित्व को जो मुझे कराता है
एहसास मेरे जिंदा होने का
जिसकी अपनी खुशियां हैं
और अपने फैसले भी, जिन्हें
मैं स्वयं गढ़ती हूं, अपने लिए...
रजनीश आनंद
22-02-17

सोमवार, 20 फ़रवरी 2017

... रात की खामोशी कलरव में बदल गयी

मेरी बोलती रातें अचानक
यूं खामोश हुईं कि उसकी
आह तक नहीं पहुंच पा रही थी मुझतक
मैं तरस गयी थी उसकी एक हां सुनने को
लेकिन उसने इस कदर अलग किया था
खुद को मुझसे कि चाहकर भी
जकड़ ना पायी मैं उसे, खामोशी के साथ
आंखों में सारी रात गयी.
अहले सुबह जब मैंने खोला घर का दरवाजा
चांद को चमकते देखा आंगन में
एक उम्मीद सी जागी, लगा अभी बहुत कुछ है शेष
तभी फागुनी बयार ने हल्के से छुआ मुझे
जैसे दे गया हो किसी का संदेश
लेकिन मन को भरोसा ना हुआ
सुबह का अखबार हाथ में लिये
 मैं चली आयी कमरे में
रोजमर्रा के काम तो निपटाती गयी मैं
लेकिन रात की खामोशी,
मन में वाचाल थी, जो अंदर से तोड़ रही थी मुझे
सुबह की पहली चाय की प्याली को उठा
ज्यों होंठों से लगाया, वो फीकी चाय
करा गयी मुझमें किसी की उपस्थिति
उस उपस्थिति को कस के जकड़ा मैंने
मन को समझाया, इंतजार कर सब ठीक होगा
मंजिल से दूर नहीं तू पास है बिलकुल
इस सकारात्मकता को मन में लिये
भारी कदमों से मैं चली थी आफिस की ओर
तभी मेरे फोन की घंटी कुछ यूं बजी
कि रात की खामोशी कलरव में बदल गयी
मन चहक उठा, नयन बरस गये
क्योंकि मजबूती के साथ खड़ी थी ‘जिंदगी’...

रजनीश आनंद
21-02-17

शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

एक द्वंद्व सुबह-शाम

एक द्वंद्व सुबह -शाम,
चला मेरे मन में आज
क्या जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं है?
आफिस की सीढ़यों को गिनते हुए
जब मैं पहुंची अपने कमरे तक
कई पुरानी यादें मेरीे मानसपटल पर छा गयीं
बचपन से आजतक टूटें कई सपने मेरे
टूटे हुए खिलौनों की कसक
अब भी हैै मन में बाकी
वे खिलौने पूछते हैं मुझसे
क्या जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं?
कंप्यूटर के की-बोर्ड को दिनभर खड़खड़ती मैं
खबरों को लिखती -सुधारती मैं
कहीं सदन में मारपीट, कहीं आतंकी हमला
किसी अभिनेत्री का यौन शोषण,
तो किसी नये खिलाड़ी का उद्भव
द्वंद्व फिर उभरा क्या जीवन में
कुछ भी स्थायी नहीं है?
बचपन की दहलीज लांघ
कुछ रिश्ते थे जोड़े मैंने
क्षण भर का साथ निभा पुख्ता कर गये
वे रिश्ते कि जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं है
लोगों ने भी दिये सबूत,विश्वास दिलाया मुझे
लेकिन सारे दावों को नकारती
मैं खड़ी हूं अपने विश्वास के साथ कि
प्रेम स्थायी है और यह हमेशा रहेगा कायम
मेरे जीवन के बाद भी,
मेरे इस विश्वास को प्राप्त है
आशीष शिवालय का भी
खड़ी हूं तुम्हारे सामने मैं इस दावे के साथ
आजीवन कायम रहेगा
प्रेम मेरा और तुम्हारा
इस विश्वास को दिल में समेट
मैं चल पड़ी थी घर की ओर
दरवाजा जो मैंने खटखटाया
मेरी जिंदगी ने बांह पसार कर बुलाया
असमंजस में जो लिपट गयी सीने से उसके
धड़कनों की बेचैनी समझ
उसने पूछा क्या हुआ माँ?
सवाल पर उसके थिरक गयी
मुस्कान मेरे चेहरे पर
विश्वास हुआ मजबूत
जीवन में प्रेम हमेशा होता है स्थायी
तब ही तो वह बिन बोले
समझ लेता है दिल की बात
दिल ने मजबूती से कहा मुझसे
प्रेम मेरा-तुम्हारा सच्चा है, बाकी सब बेमानी...
रजनीश आनंद
18-02-17


शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2017

रेत की तरह फिसलती है जाती है जिंदगी...

अजीब है जिंदगी
मैं जितना सहेजना चाहती हूं
रेत की तरह फिसलती जाती है
मेरी हाथों से
ऐसा नहीं कि मुझे मोहब्बत नहीं जिंदगी से
लेकिन मुझसे हो जाती हैं कुछ गलतियां
भय और आशंका के बीच ऐसा महसूस होता है
मानो जिंदगी अनदेखी कर रही है मेरी
उपेक्षा की भावना घर कर जाती है
मैं जिंदगी को समझा नहीं पाती अपनी बातें
मैं चाहती हूं कि जिंदगी खुशनुमा हो
इस चाह में पकड़ना चाहती हूं
उसे प्रेम से
लेकिन उसे घुटन महसूस होती है
मैं तो बस उसके सीने से लगकर
कहना चाहती थी तुम साथ रहो मेरे
क्योंकि तुम बिन
सूरज की ऊष्मा नहीं होती महसूस
हवा की शीतलता, मन को नहीं देती शीतलता
जिंदगी का हर व्यंजन हो जाता है बेस्वाद
लेकिन शायद मेरा तरीका गलत है
तभी तो जिंदगी रूठ गयी है मुझसे
तो क्या दफन हो जायेंगे मेरे सारे ख्वाब
जो देखे हैं मैंने जिंदगी की आंखों में?
नहीं-नहीं ऐसा ना कर ‘ओ जिंदगी’!
गुजारिश है सुन लो मेरी बात
मैंने जो भी आरोप लगाये तुमपर
वह दुर्भावनावश नहीं हैं
बस इसके मूल में तुमसे प्रेम ही है
हां, लेकिन अब समझ गयी हूं मैं
जिंदगी को संवारने के लिए प्रेम काफी नहीं
कई और चीजें भी हैं, हुनर भी हैं
जो सिखा देगी जिंदगी मुझे...

रजनीश आनंद
18-02-17

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

ख्वाहिश


ख्वाहिश तो ना की थी कभी

कि पा लूं तुमको, लेकिन

कुछ यूं आये तुम जीवन मेंं

सारी ख्वाहिशें खारिज हो गयीं

बस एक ही तमन्ना है बाकी

मोहब्बत जो पा लूं तुम्हारी

दामन में सज जायेंगे खुशियों के सितारे

इल्तिजा है तो बस इतनी सी

एक दिन के लिए ही सही,

 बना लो मलिका ए जिगर अपनी

महसूस होगा कुछ यूं मूझे जैसे

जन्नत में बीत गयी जिंदगी मेरी...

रजनीश आनंद
16-02-17

सोमवार, 13 फ़रवरी 2017

साथ हो गंतव्य तक...

जिंदगी की गाड़ी चलती है
जंगल, पहाड़, खेत, नदियां
साथी मुसाफिर गुजरते हैं
कोई अपना सा लगता है
कोई हंसाता है, कोई रुलाता है
कोई छल करता है
कोई  विश्वास करना सिखाता है
लेकिन कोई ऐसा भी होता है
जिसके जाने से सीट खाली सी लगती है
भले ही वह स्टेशन पर
पानी की बोतलें लेने गया हो
लेकिन बेचैन होता है मन
कहता है, कहां रह गये तुम
गाड़ी चल पड़ेगी, नहीं पीना
पानी मुझे, बस तुम आ जाओ
तुम छूट गये, तो
नीरस, निरुद्देश्य
हो जायेगा सफर
तुम हो साथ, तो लंबा सफर थकाता नहीं
बैठे-बैठे अकड़ता नहीं बदन
तुम्हारे कांधे पर सिर रखकर
झपकी ले लेती हूं, तो मिट जाती है थकान
ठंड लगती है, तो तुम
ढंक देते हो चादर मुझे
जिसमें गरमाहट है तुम्हारे प्रेम की
और हां तुम्हारे साथ मूंगफली बहुत भाती है
तो आओ ना साथ जी लें यह सफर
जीवन के अंतिम स्टेशन पर
हम होंगे साथ गंतव्य तक...
रजनीश आनंद
14-02-17

भूख

रसोई के खाली डिब्बों को
टटोलती-खंगालती मैं
कि मिल जाए दो मुट्ठी
अनाज के दाने,ताकि
मिटा सकूं भूख की आग
जो भड़क रही थी तुम्हारे बच्चे की पेट में
हर खाली डिब्बे का ढक्कन खोलते ही
मेरे अंदर भी बन रही थी एक रिक्तता
रिस रहा था एक दर्द अपनी अपूर्णता का
क्या भूख को बस में करना संभव नहीं?
क्या मैं इतनी बेबस हो गयी हूं
भूख के साथ जंग में मैं
हथियार डालना नहीं चाहती थी
मिले ज्योंही अनाज के दाने
मैं भागी उसे सिझाने
उम्मीद के चूल्हे पर
चढ़ा दी जोश की हांड़ी
चावल तो एक मुट्ठी ही मिली थी
लेकिन कुछ कोमल पत्तों को
चावल के साथ उबाल बना लिया था 
भूख शांत करने योग्य खाद्य
जिसकी मदद से तुम्हारे बच्चे की
भूख तो शांत कर दी थी मैंने
लेकिन तुम्हारी ना कर पायी
क्योंकि वो भूख पेट की ना थी
उसे तो चाहिए था मेरा मांसल तन
उसे कोई सरोकार ना था मेरी जद्दोहद से
मेरी ना सुनकर तुम्हारे चेहरे पर
उभरे थे तिरस्कार के भाव
जिसे झेलना बनती जा रही थी मेरी नियति
क्योंकि मैं एक औरत हूं
जिसका कर्तव्य ही है भूख मिटाना
फिर चाहे वो भूख किसी भी प्रकृति की हो
लेकिन बस अब और नहीं
मैं नहीं बनने दूंगी, इसे अपनी नियति
क्योंकि जीने का, हंसने का
हक मैं खोना नहीं चाहती...

रजनीश आनंद
13-02-17

पर ना भूलना मेरे प्रेम को...

कोई मजबूरी नहीं तुम्हारा प्रेम
जिसे छुपाती फिरूं मैं
यह गर्व का विषय है
जो स्पष्ट दिखता है
मेरे चेहरे पर
जब पुकारते हो तुम मुझे
तो दमक उठता है चेहरा मेरा
जैसे चांद के आने से इठलाती है रात
तुम्हारी महक में इस कदर सराबोर हूं
जैसे उपवन में मंडराती कोई तितली
मेरे नयनों में सजते हैं सपने तब
जब शिद्दत से कहते हो तुम
हां, मुझे तुमसे प्रेम है,
मेरे सीने में हमेशा जीवित रहेगा यह प्रेम
बस इतनी सी है गुजारिश
चाहे तो भूल जाना मुझे
पर ना भूलना मेरे प्रेम को,
इसकी खुशबू को
ताकि मुझे हमेशा महसूस हो
तुम आसपास हो मेरे...

रजनीश आनंद
13-02-17

शनिवार, 4 फ़रवरी 2017

एक उम्मीद है...


खामोश सी जिंदगी में
एक उम्मीद है इस बात की
अभी कोई अपना सा आकर
पूछेगा हाल मेरा, थाम कर हाथ मेरा
कहेगा चलो कुछ देर जी लें हम-तुम
शहर की सड़कों पर चलें हम बेपरवाह
चेहरे पर बिखरते बालों को
समेटकर कहे, वो खुले बालों में
सुंदर दिखती हो तुम.
किसी महंगे से मॉल के शोकेस में लगी
सुंदर साड़ी को दिखाकर उसे
मैं कहूं उससे ये वाली चाहिए मुझे
और वो मुस्कुरा कहे, हां जरूर
मैं लेकर दूंगा तुम्हें
उसकी यही बात सुकून दे जायेगी
साड़ी तो बस बहाना है
उसके दिल में अपने लिए
जगह तलाशना चाहती हूं मैं...

रजनीश आनंद
04-02-17

मैं नहीं छिनने दूंगी अपनी पहचान...


ए सुनो पितृसत्तामक समाज
मैं तुमसे पूछना चाहती हूं एक सवाल?
क्यों मेरी पहचान छिनना चाहते हो तुम?
मैंने तो तुमसे कभी नहीं कहा
भूल जाओ, अपनी जड़ों को
मां-बाप, परिजनों को
उन गलियों को जहां हम जीते हैं
अपना बचपन, जहां होती है जिंदगी जवां
कैसे भूलूं मैं मां की लोरियों को
पापा के लाड़ को,
भैया-दीदी, दोस्तों के साथ की मस्ती को
मैं तो अपनी जड़ों से बिछड़कर
लहलहाती हूं तुम्हारे आंगन में
हां सही है मेरा नाम जुड़ा है तुमसे
संग कटेंगे अब जीवन के शेष अध्याय
लेकिन इसके माने ये तो नहीं
कि तुमसे जुड़ते ही जीवन की किताब के
मिट गये सारे पुराने पन्ने.
इस समाज ने हमेशा छिनी औरतों से उसकी पहचान
लेकिन मैं अपनी मां की तरह
नहीं करूंगी त्याग, नहीं फटने दूंगी
अपने जीवन से प्रारंभिक पन्नों को
तुम मेरे जीवन का महत्वपूर्ण अध्याय हो
किंतु मेरी बुनियाद प्रारंभिक पन्ने हैं
उन पन्नों के बिना गिर जायेगी
मेरी जीवनरूपी इमारत
इसलिए मैं सफल नहीं होने दूंगी
इस साजिश को,
मैं तुम्हारे साथ हूं खड़ी
लेकिन तब ही, जब तुम
स्वीकारो मेरी पहचान को
क्योंकि मैंने तो तुमसे
कभी नहीं छिनी तुम्हारी पहचान...
रजनीश आनंद
04-02-17

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2017

जीवन पारदर्शी क्यों नहीं?

जब भी कांच के गिलास में
निर्मल-स्वच्छ पानी को देखती हूं
सोचती हूं जीवन ऐसा क्यों नहीं?
सब कुछ स्पष्ट, पारदर्शी, लुभावना
कि तड़प उठूं उस पानी के लिए
क्यों जीवन के गिलास में काई जमी है?
पानी में पनप चुके हैं कई जीवाणु
मेरा-तुम्हारा,अभिमान-स्वाभिमान की जंग में
जब फूट गया जीवन का गिलास
मैं चुपचाप समेटती रही, कांच के टुकड़ों को
इस उम्मीद के साथ कि अबकी जब
कांच पिघलेगा और बनेगा कोई नया गिलास
तो उसमें काई नहीं जमेगी
वह होगा साफ, स्वच्छ और पारदर्शी
क्योंकि जिंदगी की कलाई
मैंने अबतक बड़ी उम्मीद से थाम रखी है...

रजनीश आनंद
02-02-17

बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

मेरी कमजोरी नहीं तुम...

मेरी कमजोरी नहीं तुम
कि
ना हो मिलन, तो टूट जाऊं मैं
तुम तो प्रेरणा हो
मेरे जीवन के
जो देता है मेरे जीवन को
नीले आकाश सा विस्तार
मिलन की आस तो
प्रेरित करती है मुझे
और मैं हर रोज
चुन लाती हूं मिलन की उम्मीद को
मानों चुन लाई मैं
हरसिंगार के फूल
खुद को सजा लेने को
इतनी गहराई है
प्रेम में तुम्हारे
कि
मैं जितना डूबती हूं
गहरा होता जाता है प्रेमरंग
क्षणिक आवेश या आकर्षण नहीं
तुम्हारे लिए प्रेम मेरा
इसमें तो ठहराव है
जीवन भर का...

रजनीश आनंद
01-02-17