शनिवार, 31 दिसंबर 2016

तब सिर्फ दैहिक नहीं आत्मिक भी हो जायेगा प्रेम...

मात्र अदेह कल्पना नहीं
तुम तो मेरा साकार प्रेम हो
नहीं-नहीं यह मेरा भ्रम नहीं
तुम सचमुच मेरे सीने से लगे हो
और मैंने तुम्हारे बालों को
अपनी अंगुलियां से सहलाया भी है
तुम्हारी आंखों की शरारत
उनकी प्यास, उनका प्यार
सब देखा है मैंने
उनकी ख्वाहिशों को
महसूस किया है, साकार स्वरूप में
लेकिन क्या इतनी सी है
हमारे प्रेम की ख्वाहिशें
नहीं बिलकुल नहीं
हम तो चाहते हैं
उम्र भर साथ चलना
ऐसा हो हमारा साथ
कि बिन बोले समझ जायें
एक दूजे की बात
और जब धुंधली हो जाये नजर मेरी
तब पढ़ देना तुम
मेरे लिए अखबार
और मैं तुम्हें मदद करूंगी
अपनी कांपती हाथों से
पहनने में स्वेटर,टोपी और मफलर
तब ना कहना तुम
टोपी ना पहनाओ प्रिये
अच्छा नहीं लगता
साथ बैठ चाय पीयें हम
और चाय की चुस्कियों के साथ
तुम बताना मुझे देश-विदेश की बातें
और मैं तुम्हें एकटक ताकती रहूंगी
तब, जब सिर्फ दैहिक नहीं
आत्मिक भी हो जायेगा हमारा प्रेम...
रजनीश आनंद
31-12-16 

गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

मेरे शहर में तुम...

क्या कभी मेरे शहर की धरती को
चूम सकते हैं तुम्हारे कदम?
यह सोच उत्पन्न होते ही
सिहरन बन दौड़ जाता है
मेरे नस-नस में
आह!! काश
यह सुख मेरे शहर को नसीब हो
तुम्हारा स्पर्श पाते ही
मेरी हरी-भरी धरती
झूम उठेगी मानो
नव ब्याहता हो कोई
चाहती हूं, थाम कर
हाथ तुम्हारा घूम लूं
थोड़ा अपने शहर की गलियों में
कुछ पहचान हो जाये
मेरे शहर से तुम्हारी
ताकि जब जाओ तुम
मुझे छोड़ तन्हा
मेरे शहर की गलियां बन जाये
तुम्हारी बाहें और मैं
सिमटकर इनमें
सिसक लूं,झगड़ लूं
ताकि तुम्हारे होने का अहसास
रहे हमेशा मेरे शहर की गलियों में...

रजनीश आनंद
29-12-16

सोमवार, 26 दिसंबर 2016

मादक रात

ओह कितनी मादक हो चली है ये रात
आकाश में मुदित चांद
और मैं अपने चांद की बांहों में
आकाश में तारे चमक रहे हैं,
धरती पर तुम्हारी आंखें
इन चमकीली आंखों में एक संकेत है
मेरे लिए, हां सिर्फ मेरे लिए
कि आलिंगनबद्ध हो जाऊं मैं तुमसे
चाहत तो मेरी भी यही है
पर मुझे मोह हो चला है तुम्हारी
आंखों की पुतलियों में देखने का
यह प्रेम का सागर है, जिसका जल
बुझा देता है मेरी हर प्यास
और चुपके से कहता है मुझसे
जिसे मैं साफ पढ़ रही हूं
कि
मैं दुनिया की सबसे सुंदर औरत हूं
और तुम मुझसे अथाह प्रेम करते हो

रजनीश आनंद
26-12-16

शनिवार, 24 दिसंबर 2016

ऊंचाई का डर और मैं

मुझे ऊंचाई से डर लगता था
जब मैं देखती थी ऊपर से नीचे
एक खौफ समा जाता था
नहीं-नहीं मैं ऐसी जगह
नहीं जाना चाहती
जहां हो अकेलापन
हरियाली भी कम हो जाए
घटने लगे हवा
और महसूस हो घुटन
मैं नहीं जाना चाहती
मैं तो जीना चाहती थी
एक आम जिंदगी
एक नीड़ सपनों का
एक चिड़ा एक चिड़िया
लेकिन नहीं मेरे खाते में
तो ये भी नहीं
बस आंसू थे
जिन्हें पोंछना मुझे खुद था
सहसा किसी ने ऊपर से दी आवाज
मैं चल पड़ी ऊंचाई की ओर
हां , अब नहीं लगता मुझे
ऊंचाई से डर क्योंकि
मैंने शिखर से कर ली दोस्ती है
वहां कुछ बर्फ हैं जो पिघलेंगे
हरी घास दिखेगी
वो आयेगा जिसकी
प्रेरणा से मैं ऊंचाई तक पहुंची हूं
थाम कर उसका हाथ
ज्यों देखा मैंने नीचे
ऊंचाई से बहुत हसीन थी दुनिया
इतनी मनोरम होती है ऊंचाई
ये मैंने अब था जाना

रजनीश आनंद
24-12-16

अब बहुत दिन हुए तुम्हें देखे...

सुनो ना प्रिये!!
अब बहुत दिन हुए तुम्हें देखे
इन नयनों की प्यास
सही नहीं जाती
मैं अधीर नहीं
लेकिन क्या करूं
इस मन का जिसमें
पनप उठी यह चाह है
यूं तो यह मन कभी
तुमसे अलग नहीं हो पाता
लेकिन कहता है मुझसे
वर्षों गये बीत
प्रिये की मधुर वाणी
नहीं पड़ी कानों में
नहीं समाई उन बांहों के घेरे में
जो देते हैं सुकून और
सुरक्षा का अहसास,
जानते हो इस बार
मैं नहीं करूंगी वो गलती
जिससे मैं वंचित रह जाऊं
तुम्हारे अनुपम प्रेम से
हां, देखो ना मैंने उतार दिया है
लाज का हर आवरण
अब नहीं आयेगा यह
हमारे प्रेम के बीच
वैसे भी इसकी जरूरत
नहीं अब हमारे बीच
क्योंकि तुम सांसें
और मैं शरीर हूं...

रजनीश आनंद
24-12-16

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2016

पूरे हुए एक साल

आज फेसबुक की मेहरबानी से मुझे यह याद आया कि ब्लॉग लिखते हुए मुझे पूरे एक वर्ष हो गये. इतने दिनों में मैं जितना और जो कुछ भी लिखना चाहती थी, उससे बहुत कम ही लिख पायी हूं. मैं अभी तक वो तेवर नहीं ला पायी, जो लाना चाहती हूं. समय का अभाव है, यह कहकर मैं बच तो नहीं सकती, हां यह जरूर कह सकती हूं कि अगर दिनभर में 24 घंटे से ज्यादा होते तो अच्छा रहता, कुछ ज्यादा समय लिखने-पढ़ने के लिए निकाल पाती. मैं उन तमाम लोगों को धन्यवाद कहना चाहती हूं, जिन्होंने मुझे पढ़ा. अब तक लगभग आठ हजार लोगों ने मेरी रचनाओं को पढ़ा है. मैं उन सब के प्रति आभार प्रकट करना चाहती हूं. मैं एक पत्रकार हूं और अपने आसपास होती चीजों को जिस तरह से देखती हूं, उसे उसी तरह अपनी रचनाओं में समाहित करती हूं. मैं कहानी लिखती तो हूं लेकिन कथाकार की तरह नहीं एक पत्रकार की तरह. साहित्य के ज्ञाता मेरी टांग खिंच सकते हैं, क्योंकि मैं साहित्य का विज्ञान नहीं जानती. कविताएं मैं लिखती हूं, जिसमें मेरे भाव हैं कविता का विज्ञान नहीं. फिर भी आप सब ने मुझे पढ़ा इसके लिए बहुत धन्यवाद.  मैंने पिछले साल अपने छोटे भाई पंकज पाठक के प्रेरित करने पर ब्लॉग लिखने की शुरुआत की थी और अब सोचती हूं कि आजीवन कलम या कंप्यूटर जो कह लें चलाऊंगी. मेरे अंदर यह सोच मेरे कुछ करीबियों ने डेवलप किया है. उनका तहेदिल से आभार. उनकी प्रेरणा से ही मैं लिख पाती हूं. मैंने सोचा है कि नये साल से मैं अपने ब्लॉग में कुछ नया करने की कोशिश करूंगी. कुछ मन की बात होगी, कुछ समाज की कुछ देश-दुनिया की. एक बार फिर आप सब का आभार.

रजनीश आनंंद
23-12-16

बुधवार, 21 दिसंबर 2016

तुम्हारा आगोश

जिसमें गरमाहट है
तुम्हारे स्पर्श की
विश्वास है
हमारे प्रेम का
उम्मीद है
सुंदर भविष्य की
सपने हैं
हमारी खुशहाली के
उन्माद है
तुम्हारे चुंबन का
मादकता है
तुम्हारी नजरों की
शरारत है
तुम्हारी अंगुलियों की
भरोसा है
एक स्थायित्व का
जुड़ाव है
जीवन भर का
तब ही तो
जग में सबसे सुरक्षित है
तुम्हारा आगोश...

रजनीश आनंद
22-12-16

तू जिसे आराध्य बना दें हमारा...

ना जाने ये क्या हुआ मुझे?
मेरा दिल धड़कता तो
मेरे सीने में है, लेकिन
हर बार धड़कने से पहले
तुम्हारा नाम लेता है
मैंने कहा इससे
कितना नाशुक्र है तू
इतने साल सहेजा मैंने
और तू मेरा ना हुआ
दिल ने ये कहा,
मुझसे क्या कहती है
जरा अपनी सांसों से पूछ
कि
हर बार आने से पहले
वे किसका नाम लेती हैं
अपनी नजरों से पूछ
किसकी छवि उभरती है उनमें
अपने तनबदन से पूछ
किसकी खुशबू बसी है
अरे हम पर इल्जाम लगाने वाली
जरा खुद से तो पूछ
क्या तू खुद की रही है
अरे हम तो तेरे भरोसे हैं
तू जिसे आराध्य बना दें हमारा
उसके नाम पर धड़कते हैं...

रजनीश आनंद
21-12-16

मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

कैसा है प्रेम रंग?

कैसा है प्रेम रंग?
बताओ ना प्रिये
हरा, नीला लाल या फिर केसरिया
जानना चाहती हूं मैं
खुद को उस रंग में
रंगना चाहती हूं
सूरज और उसकी लालिमा को
जब देखती हूं
तो लगता है शायद
लाल है प्रेम रंग
तब ही तो सूर्योदय से
सूर्यास्त तक सूर्य
अलग नहीं होता उससे
लेकिन जब इस गगन को
देखती हूं धरती को अपनी बांहों में
समेटने के लिए झुका हुआ तो लगता है
नीला है प्रेम रंग
फिर जब गगन का आलिंगन पा
मादकता में डूबी हरी-भरी धरती को
देखती हूं तो प्रतीत होता है
हरा है प्रेम रंग
लेकिन जब तुम्हारी बांहों के घेरे में
खुद को बेसुध पाती हूं, तो भान होता है
तुम्हारे रंग में रंगा है प्रेम रंग
तो रंग दो ना प्रिये मुझे
अपने रंग में...

रजनीश आनंद
20-12-16


रविवार, 18 दिसंबर 2016

आओ कुछ हम बदलें


आओ कुछ हम बदलें
कपड़ों से ही नहीं, सोच से भी
कुछ प्रगतिशील हो जायें हम
इस पितृसत्तामक समाज के
कुछ सोच से टक्कर लें हम
आओ कुछ हम बदलें.
बलात्कार नहीं, जीवन का अंत
यह तो है बस एक घिनौना सच
जिसके लिए जिम्मेदार
सिर्फ और सिर्फ पुरुष दंभ है
आओ कुछ हम बदलें.
प्रगतिशीलता का ढोंग करते
इस समाज की दोयम सोच है
महिलाओं को लेकर, इसलिए जरूरत है
देह से इतर खुद को
 स्थापित करें हम
आओ कुछ हम बदलें.
स्त्री की इज्जत कोई
कांच का मर्तबान नहीं
जो बलात्कर की
एक ठोकर से टूट जाये
शीलभंग होने से अपवित्र
अगर औरत होती है, तो
वह पुरुष क्योंकर पवित्र होगा
जिसने जबरन किया यह कृत्य है
इस सोच को आत्मसात करें हम
आओ कुछ हम बदलें
तन पर जबरन कब्जा करने वालों को
रोकर नहीं, अट्टाहास करके दिखायें हम
बलात्कार के बाद भी शान से
जीकर दिखायें हम
आओ कुछ हम बदलें...

रजनीश आनंद
19-12-16

शनिवार, 17 दिसंबर 2016

फिर दुविधा कैसी प्रिये?

तुम कहते हो
मैं पतवार,
तुम नाव हो
मैं प्रेरणा,
तुम कविता हो
मैं ख्वाब,
तुम नजरें हो
मैं सांसें
तुम शरीर हो
फिर दुविधा कैसी?
नि:संकोच कहो
जो हो मन में
औपचारिकता
बेमानी है
हमारे रिश्ते में
मुझे प्रेम है तुमसे
जो मोहताज नहीं
किसी औपचारिकता का
तुम्हारा दिया
अच्छा-बुरा सब
स्वीकार्य मुझे
जो तुम्हारा
सब मेरा है
तुम बिन अब
बेमानी यह जीवन है
तो आओ, संकोच ना करो
इस जीवन को जी लें हम

रजनीश आनंद
17-12-16

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2016

नदी की तिश्नगी

जब भी देखती हूं
नदी की तड़प
सागर से मिलने को
वह पहाड़ का सीना चीर
उदात्त प्रेमभाव में उफनती
आड़े-तिरछे मार्गों से गुजरती
बेकल बहती है
तिश्नगी है उसे
सागर की बांहों में समा जाने की
कई जगह पर बांधी भी जाती है वो
वेग प्रभावित होता है
किंतु रूकती नहीं
सागर से मिले बिना रूकना
यानी समाप्त हो जाना नदी का
लेकिन जब वो समा जाती है
अपने प्रियतम के आगोश में
जब विलीन हो जाती है वो
तब उसका अस्तित्व खोता नहीं
समाहित होता है सागर संग
तब मन में उठता है एक सवाल
क्या प्रेम परिभाषित हो सकता है?
रजनीश आनंद
16-12-2016

सोमवार, 12 दिसंबर 2016

...और मेरा प्रेम परास्त होगा

इंतजार करती हूं तुम्हारा
हर पल तुममें खोकर
मन बाहर नहीं निकलना चाहता
इस प्रेमव्यूह को भेदकर
रचियता तुम इस प्रेमव्यूह के
जिसमें उलझी हूं मैं
क्या करूं जो हर सांस
आने से पहले लेती 
तुम्हारा नाम है
निहत्थे किया प्रवेश मैंने
इस व्यूह रचना के अंदर
बस तुम्हारे नाम की तलवार ही
मेरा एकमात्र सहारा है
भरोसा है, मुझे अपनी तलवार पर
यह मुझे विजयश्री दिलवाएगी
देखना तुम उस दिन
प्रेम मेरा अमर होगा
हार मेरी तब है जब तुम,
ठुकराओ प्रेम निवेदन
लेकिन अडिग है विश्वास 
मेरा अपने पावन प्रेम पर
तुम बांहों में भरने मुझे 
खुद चलकर आओगे
जो ये ना कर पायी मैं
शस्त्र डाल दूंगी उस दिन
मेरा प्रेम परास्त होगा
और नश्वर मेरा तनमन...

रजनीश आनंद
11-12 16

शनिवार, 10 दिसंबर 2016

अमावस है, तो पूनम की रात भी है...

क्या है कविता का विज्ञान?
मैं नहीं जानती
मैं तो बस अपने भाव
संप्रेषित करती हूं तुमतक
जब भी सोचती हूं तुम्हें
एक टीस सी उठती है मन में
और पनपनता है प्रेमभाव
दिमाग में घुमड़ते हैं,कुछ शब्द
जिन्हें कलम के सहारे
कागज पर उतार देते हैं मेरे हाथ
अगर ये कविता है, तो फिर
कविता ही सही, लेकिन
मेरी कविता के हर शब्द में
लिखा है तुम्हारा नाम
बचपन में सहेलियों संग
खेला करती थी एक खेल
दोनों हथेलियों को जोड़
हाथ की लकीरों से
बनाती थी अर्द्धचंद्र
इस सोच के साथ
कि जिसके हाथ बनेगा
अर्द्धचंद्र, उसका प्रिय होगा
चांद सा सुंदर
तब से आज तक
तुम्हारे इंतजार में मैंने
रोज जोड़ा अपने
हथेलियों की लकीरों को
आकर देखो ना कितना
सुंदर चांद बनता है
मेरी हथेलियों में
बिलकुल तुम्हारी तरह
ओ ‘रजनीश’ के चांद
सुनो मेरी बात
जैसे तुम एक नाप में
नहीं दिखते कभी
वैसे ही, मेरे नसीब में है
तुम्हारा प्रेम, लेकिन अमावस है
अगर, तो पूर्णिमा की भी होती है एक रात
उस रात अपने मस्तक को रखकर
मेरे सीने पर तुम सुन लेना
क्या कहता है मेरा मन

रजनीश आनंद
10-12-16

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2016

वो लड़की


मेरे साथ हास्टल में रूम पाटर्नर थी वो लड़की. छरहरी काया, साधारण नयननक्श, लेकिन गोरा तन. भारतीय जनमानस के लिए सुंदरता के सबसे बड़े फारमेट ‘गोरा तन’ में फिट थी वो. जब से आयी थी ब्वायफ्रेंड के बहुत किस्से थे उसके पास. मुझसे कहती- दी आप बोरिंग आइटम हो किताबों की दुनिया से बाहर आओ बाहर सब कुछ बहुत सुंदर और सेक्सी है.

अकसर बड़ी गाड़ियां उसे छोड़ने आती. महंगे गिफ्ट उसके शौक में शामिल थे. एक दिन वो बहुत खुश होकर आयी.  मैंने खिड़की से देखा लंबी सी कार से आयी थी वो. कमरे में आकर लिपट गयी मुझसे, उसके हाथ में दो गिफ्ट थे, जो उसे अलग-अलग लड़को ने दिये थे.

मैंने पूछा उससे तू मैनेज कैसे करती है इन्हें? अगर इनमें से किसी ने तुझे दूसरे के साथ देख लिया तो? सड़क पर तेरी बेइज्जती कर दी तो? वह मुस्कुराई और कहा-दी आप जानती नहीं इन साले लड़कों को, इन्हें जो चाहिए मैं देती हूं. किसी को मेरे होंठों की प्यास है तो किसी को...ज्यादा से ज्यादा क्या करेंगे? सेक्स ही तो करेंगे ना! मै बोरिंग आइटम उसकी बात सुनकर भक्क रह गयी थी और वह मुस्कुरा कर वाशरूम चली गयी...

रजनीश आनंद
10-12-16

औरत हूं लेकिन अब त्याग नहीं करूंगी मैं...

भागते-भागते सांस उखड़ रहे थे मेरे
पांव भी साथ नहीं दे रहे थे, देखा तो
पैर के छाले फट गये थे, उनसे अब
 खून भी रिसने लगा था
मैंने निश्चय किया, बस अब और नहीं
कब तक अनवरत मैं भागती रहूं
तुम्हारे पीछे, इस आस में कि
तुम कभी तो दोगे मेरे प्रेम को सम्मान
कभी तो तुम्हें लगेगा, मैं गैरजरूरी नहीं
हाशिये पर जीवन जीते-जीते ऊब गयी हूं
ऐसी नहीं थी मेरी प्रकृति
मेरे अंदर की आग को यूं बुझने नहीं दूंगी
मैं मिटने नहीं दूंगी अपना अस्तित्व
सही है लिखा है तुम्हारा नाम मेरे भाल पर
लेकिन तुम्हारी उपेक्षा ने धूल जमा दी है इसपर
जो रगड़ने से भी नहीं होगी साफ
अब तो कुछ पढ़ा भी नहीं जाता
सिर्फ कुछ लिखा होने का एहसास मात्र है
लेकिन मैं  कब तक यूं ही जीती रहूं
क्योंकि मैं एक औरत हूं, इसलिए इंतजार पर मजबूर रहूं
जबकि मुझे पता है कोई नहीं आने वाला
तुम तो कब का मीलों आगे चले गये
तुम मर्द हो, तुम्हें आजादी है
जब चाहो मेरा इस्तेमाल करो
इंसान से वस्तु बनाकर छोड़ दिया
पहचान खोते अपने चेहरे को मैंने देखा जो आईने में
उम्र से पहले चेहरे पर आयीं लकीरें साफ दिखीं
नहीं-नहीं और नहीं, अब नहीं घुटूंगी मैं
मुझे अपना दमकता चेहरा वापस चाहिए
आंखों में नये सपने चाहिए, जिन्हें जीना है मुझे
जिंदगी बहुत खूबसूरत है, जो दोबारा नहीं मिलेगी
मेरे पास जीने और खुश रहने की कई वजहें हैं
जो हाथ थाम कर मुझे सीने से लगाने के लिए बेचैन हैं
तो हाशिये पर नहीं अब मुखपृष्ठ पर जीना है मुझे
औरत हूं लेकिन अब और त्याग नहीं करूंगी मैं
कुछ पल अपने लिये भी जीऊंगी मैं...

रजनीश आनंद
09-12-16

बुधवार, 7 दिसंबर 2016

राधा भी रश्क करे इतना प्रेम...

सुनो प्रिये
मन में जो बात है
कहना चाहती हूं तुमसे
जो तुम ना सुनोगे तो
मूक हो जाऊंगी मैं
जानते हो पानी की तरह है मेरा प्रेम
एकदम पारदर्शी, झांककर देखो
छवि दिखेगी तुम्हें अपनी
जैसे चाहो इसे ढाल लो
भर लो किसी पात्र में,
या दे दो कोई और स्वरूप
एक बार होंठों से लगाकर
तो देखो, मिट जायेगी हर प्यास
हां, पानी की तरह है मेरा प्रेम
रंगहीन, गंधहीन
जो चाहे जैसा चाहे रंग दे दो इसे
लाल, हरा, पीला या नीला
एक बार सीने से लगाकर
सराबोर कर दो इसे अपनी मादक खुशबू से
ताकि आजीवन ना मिट पाये वो महक
बस इतनी सी है ख्वाहिश
राधा भी रश्क करे
इतना प्रेम दे दो मुझे...

रजनीश आनंद
08-12-16


अब विश्वास हो चला है...

जीवन में सबकुछ बुरा नहीं
जरूरत है अच्छाइयों से
पहचान बनाने की
बुराई के अंधकार को परे रख
अच्छाई के प्रकाश को
मैंने हथेलियों में समेट लिया है
और देखो ना, साथी के रूप में
नजर आये हो तुम
हृदय को मिला है सुकून
तुम्हारे होने के आभास मात्र से
जागी हैं नयी उम्मीदें,
नयी ऊर्जा से लबरेज हूं
हां, अब अकेली नहीं मैं
जीवनपथ पर संघर्ष तो करना है मुझे
किंतु अगर लड़खड़ाई मैं
तो तुम थाम लोगे मुझे
यह विश्वास अब हो चला है
क्योंकि तुम्हारे साथ होने का अहसास
अब मजबूत हो चला है...
रजनीश आनंद
07-12-16

सोमवार, 5 दिसंबर 2016

धर्मपत्नी...


हां मैं तुम्हारी धर्मपत्नी हूं
अर्धांगिनी के तमगे के साथ
अग्नि के सात फेरे ले मैं बनी थी
तुम्हारी जीवनसंगिनी
आंखों में थे अनगिनत ख्वाब
जो हकीकत ना बन पाये कभी
हां, आंसुओं का आशियाना जरूर बने
जीवनसाथी तो थे तुम मेरे
लेकिन कभी अहसास,ना हुआ साथ
हर राह पर अकेली ही चली मैं
अपने अश्रु खुद ही सहेजे
बेमानी थे विवाह के सात वचन
अर्धांगिनी तो गूढ़ अर्थ सहेजे है
साथी भी ना बनाया तुमने
हां कुछ पल का भ्रम जरूर पुष्पित हुआ
लेकिन कभी भी चांदनी रात में
तुम संग आंखें ना हुईं वाचाल
सिर्फ मशीनी देहप्रेम नहीं होती
किसी औरत की चाह!
ये बताना चाहती हूं मैं तुम्हें
चूड़ी,बिंदी और सिंदूर नहीं
और भी बहुत कुछ है धर्मपत्नी!!

रजनीश आनंद
05-12-16

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

मेरी कलम और तुम

आज नीले रंग की
एक कलम खरीदी मैंने
बेसब्र थी उससे
दिल की कुछ बात
लिख डालने के लिए
उसे गिरफ्त में लिया
तो दिल को मिला कुछ सुकून
चूम कर उसे मैंने
अपने सीने से लगाया
कलम से अपना प्रेम
मैंने कभी नहीं छुपाया
प्रेमातुर हो उसकी चमकीली
नीब को ज्योंही मैंने सफेद
कागज से सटाया
बिजली सी कौंधी और
जो बरसा वह था
सिर्फ तुम्हारा नाम, तुम्हारा नाम...
रजनीश आनंद
02-12-16

क्यों चांद इशारे करता है...

ये क्या हुआ मुझे प्रिये?
क्यों चांद इशारे करता है
क्यों बादल लिपटना चाहता है
क्यों पवन चूमकर जाता है
क्यों पुष्प सजाना चाहता है
ये क्या हुआ मुझे प्रिये
क्यों चांदनी छेड़ कर है
क्यों बिजली सिहरन बन जाती है
क्यों हवा मदहोश हुई जाती है
क्यों कली देख शरमाती है
ये क्या हुआ मुझे प्रिये
क्यों आईना देख लजाती हूं
क्यों चेहरा मेरा दमकता है
क्यों बिन बोले कुछ सुन लेती हूं
क्यों किसी की चाह में तड़पती हूं
ये क्या हुआ मुझे?