गुरुवार, 27 जुलाई 2017

मैं दोषी हूं, क्योंंकि औरत हूं...

स्तन, योनि, मांसल देह
इससे इतर कुछ भी नहीं
एक औरत, इस जग में
उसे नोंच खाने की तत्परता
हर गली, हर शख्स में
फर्क नहीं, उभार हैं
या सिर्फ होने का एहसास भर
सहमति, असहमति का प्रश्न
तो बेमानी , बेतुका है
यहां तो गिद्ध की नजरें हैं
और औरत खरहे की जान
सिसकती, छुपाती खुद को
क्या बच्ची, जवान और वृद्धा
फिर भी दोषी मैं ही हूं
क्योंकि मैं औरत हूं
और तुम पुरूष, तन विजेता ...
रजनीश आनंद
27-07-17

मंगलवार, 25 जुलाई 2017

ओ मेघ सुनो...

ओ मेघ तुम बरस तो रहे हो लगातार,
सारे ताल-तलैया भर गये
तुम में सराबोर पहाड़ी नदियां
इतरा कर उफन रहीं हैं
मैं भी तो भींगी, खूब भींगी
लेकिन मन प्यासा है
ओ मेघ सुनो, सावन में
तुम्हारे बरसने से नहीं
मेरी प्यास तो बुझती है
प्रिये के स्पर्श से
उसकी एक नजर से
क्या उससे जाकर
यह कह पाओगे तुम...
रजनीश आनंद
25-07-17

शनिवार, 22 जुलाई 2017

हर स्त्री में राधा है...

कल 'कनुप्रिया' को पढ़ते वक्त लगा जैसे मैं खुद राधा हूं और जो मैं पढ़ रही हूं वह सब मेरे कनु के लिए हैं. आदरणीय धर्मवीर भारती जी ने जिस तरह एक नारी के मन को शब्दों में उकेरा है, मानो राधे उनके हृदय में विराजमान थीं और उनसे अपनी बातें कागज पर उतरवा रही थीं. मुझे ऐसा लगता है कि हर स्त्री जीवन में एक ना एक बार राधा होती है और उसके जीवन में कोई कृष्ण जरूर होता है. यह बात दीगर है कि खुद को किसी की राधा बताना रूक्मिणी के लिए आसान नहीं होता, खैर विषयांतर का इरादा नहींं है.  लेकिन मेरी इस बात को हर औरत अपने दिल पर हाथ रखकर महसूस कर सकती है.
आदरणीय भारती जी की कनुप्रिया पढ़ते वक्त कुछ ख्याल मेरे मन में आये, जिसे अपने 'कनु ' के लिए मैंने कलमबद्ध किया है. भारती जी क्षमायाचना के साथ मैं अपने भाव लिख रही हूं. मैं तुच्छ रचनाकार किंतु मन के भाव पवित्र हैंः-
मैं तुम्हारी कौन हूं कनु?
हर क्षण मेरा मन पूछता है मुझसे
आखिर किस हक से तू
कनु को अपना बताती है?
क्या संबंध है तेरा उससे
उसके सवाल से मैं थोड़ा
घबरा जरूर जाती हूं, लेकिन
फिर उन पलों का स्मरण होता है
जिन पलों में तुम साथ होते हो मेरे
तब बड़े अधिकार से
तुम्हारे बालों में हाथ फिराकर
मैं चूम लेती हूं, तुम्हारा माथा,पलकें,होंठ और छाती
फिर कहती हूं तुमसे,
आज इतनी देर से क्यों आये कनु?
तब बड़े अधिकार से, हंसकर
तुम कस लेते हो मुझे बांहों में
और मैं इतराकर अपनी वेणी
झटक देती हूं तुम्हारे मुख पर
तभी तुम पकड़ लेती मेरी वेणी
और खींचते हो मुझे अपनी ओर
पीड़ा होती है मुझे
आह, निकल जाती है, लेकिन
उस वक्त जो सुख मिलता है
उसके लिए मैं बार-बार अपनी
वेणी झटकना चाहती हूं मुख पर तुम्हारे
क्योंकि उस पल लगता है
मानो साम्राज्ञी हूं मैं तुम्हारे मन की
लेकिन जब तुम पास नहीं होते
तब यह मन फिर कहता है मुझसे
तू कौन है कनु की ?
तब अधीरता में मैं पुकारती हूं तुम्हें
पर तुम सुनते नहीं मेरी पुकार
तब बेचैनी और आशंका में , मैं कहती हूं
एक बार तो बोल दो कनु
मैं इतनी नासमझ नहीं कि समझ
ना सकूं तुम्हारी व्यस्तता
तब हंस कर कहते हो तुम
नहीं-नहीं, नासमझ नहीं तुम तो समझदार हो
मेरी प्रिय सखी, मेरी प्रेरणा
जिसे महसूस कर मैं रत  रहता हूं कर्मपथ पर
तो अकस्मात ऐसा भान होता है
जैसे मेरे पूरे शरीर से
ऊर्जा निकल रही हो
और तुम ओतप्रोत हो उससे
तब मैं कहती हूं  अपने मन से
देखो मैं ऊर्जा हूं अपने कनु की
लेकिन पावस ऋतु में जब
मेरा मन करता है तुमसे प्रेम निवेदन
और तुम बड़ी दुष्टता से मुझे सताने के लिए
करते हो मेरे मन की अनदेखी,उपेक्षा
और करते हो छेड़छाड़ मेरी सखियों संग
तब छलक आते हैं मेरे आंसू
तब कहती हूं मैं अपने मन से
कनु कोई नहींं मेरा, वह तो दुष्ट है
कोई संबंध नहीं मेरा उससे
लेकिन अगले ही पल
जब पीछे से आकर थाम लेते हो मुझे
और अपनी अंगुलियों से मेरे
बदन का स्पर्श कर छेड़ते हो
मनुहार करते हो, कहते तो तुम सिर्फ मेरे हो
तब झगड़ना चाहती हूं तुमसे, देना चाहती हूं उलाहना
लेकिन तुम चतुर, मुझे चुप कराने के लिए
अपने मुख से बंद कर देते हो मेरा मुख
तब अधखुली आंखों और गहराती सांसों के बीच
मैं कहती हूं अपने मन से
'कनु' मेरा सर्वस्व है, जान,जिंदगी,खुशी...

रजनीश आनंद
23-07-17

शुक्रवार, 21 जुलाई 2017

उड़ान

मैं आकाश में ऊंचे उड़ना चाहती हूं
बाज की तरह, लक्ष्य पर नजरें गड़ाये
मैं गोरैया नहीं होना चाहती, जो थोड़ी
ऊंचाई से ही संतुष्ट हो जाती है,
मुझे बेरोक-टोक उड़ान भरनी है
संभव है साथी कम मिलेंगे, या ना भी मिलें
इसका गम नहींं मुझे, क्योंंकि जानती हूं
जो मिलेंगे वो पुख्ता होंगे, ठोस होंगे
चिड़िया की हड्डी खोखली होती है
उड़ान नहीं, इसलिए शक ना करो
मेरी उड़ान पर, आज नहीं तो कल
मैं भेद ही लूंंगी अपना लक्ष्य
भरोसा है मुझे, हां यकीन है मुझे...
रजनीश आनंद
21-07-17

मंगलवार, 18 जुलाई 2017

हे कृष्ण न्याय करो...

हे कृष्ण कहां हो तुम?
देखो तो यहां रोज लुट रहीं
तुम्हारी सखियां, एक नहीं
कई द्रौपदी हैं, जिनकी चीख
गूंजती है धरती से अंतरिक्ष तक
क्यों नहीं सुनते तुम
क्या इन सखियों की पुकार
नहीं दहलाती तुम्हारा दिल
देखो तो यहां कई शिशुपाल हैं
जिन्होंने सौ क्या हजारों गलतियां की
फिर क्यों नहीं चल रहा तुम्हारा सुदर्शन
क्या अब तुमने गलतियों की सीमारेखा
लोगोंं के अश्रु से धो दी है
हे कर्मयोगी!!!
सुनो अधीर ना करो मुझे
देखो राजनीति के मैदान पर
कई-कई शकुनि और दुर्योधन
बांधने को बेचैन हैं
राजनीति की शुचिता को
आकर देते नहीं क्यों इन्हें चेतावनी
क्या द्वारकापति सच में
निर्मोही है, अगर हां तो
तो हे न्याय के रक्षक न्याय करो
बच्चों को भोजन दो
सखियों को सम्मान
गोमाता के नाम पर
क्यों छीन रहे लोग
मानव प्राण हैं
देखो ,कान्हा तो अब भी बसता है
इस देश के हर घर में
हर बच्चे की चंचलता में
यशोदा मैया की लोरी में
लेकिन रास रचाने वाला कान्हा
खो गया, एसिड अटैक की धुंध में
नहीं दिखता कर्मयोगी कृष्ण का
चमत्कारिक रूप, लेकिन
भरोसा है मुझे
नहीं टूटने दोगे तुम
मेरा यह विश्वास कि
कर्मयोगी कृष्ण हमेशा न्याय करते हैं...
रजनीश आनंद
18-07-17

शनिवार, 15 जुलाई 2017

तुम्हारी आंंखें जैसे...

तुम्हारी आंखें जैसे
मां के हाथों का निवाला
तुम्हारी हंसी जैसे
खुशी का पैमाना
तुम्हारी बातें जैसे
झरने का मीठा जल
तुम्हारी फटकार जैसे
नारियल का खोल
तुम्हारा साथ जैसे
मजबूत चट्टान
तुम्हारे सपने जैसे
मोर का पंख
तुम्हारी मुस्कान जैसे
सतरंगी तितली
छूना चाहती हूं
तभी तो तुम्हारे
रसीले होंठों को
ताकि महसूस हो
तुम्हारा वजूद और
अनमोल प्रेम...
रजनीश आनंद
15-07-17

शुक्रवार, 14 जुलाई 2017

चांद का स्पर्श

जानते हो तुम
हर चांदनी रात में
मैंने धरती को
सिमटते देखा
ज्यों ज्यों पसरा चांद
उसके बदन पर
चांद का स्पर्श
तो नहींं था
नसीब में उसके
फिर भी वो
तन-मन से
उसकी हो ली थी...
रजनीश आनंद
14-07-17

सोमवार, 10 जुलाई 2017

थपकी

एक सपना संजोया
ना जानें क्यों कर
चांद रात में बन चांदनी
बिखरी थी मैं और तुम
सूरज बन चिपके थे
मेरे कलेजे से इस कदर
कि पिघल रही थी चांदनी
इस चांद-सूरज के मिलन में
लेकिन प्रेम के पालने में
सुलाया था तुमको
और दे रही थी थपकी....
................
सपने में आये तुम
प्रेम का पौधा लिये
रोपा मैंने उसे कोख में
पलकों से सींचा
पल में  लहलहाया वृक्ष
हम-तुम थे एक ही डोर में गुथे
रजनीश आनंद
10-07-17

शनिवार, 8 जुलाई 2017

दृगों में यह अभिमान पनपने दो...

जिंदगी के कैनवास पर
उम्मीद की कूची लिये
मैं हर रोज बनाती हूं
एक लड़की की तसवीर
ना जाने क्यों वह बिलकुल
मेरी तरह दिखने लगती है
जिसकी आंंखों में सजे हैं सपने कई
जब महसूस करना चाहती उन्हें
तो उसके नयन पूछते हैं
क्या सपने कभी होंगे सच?
उसके सवालों में जब डूबती हूं
तो अंतरमन कहता है
नहीं चाहती विलासिता कोई
तुम्हारी मीठी मुस्कान बना देगी
मुझे मलिका इस जहान की
मैंने कब चाहा कि तुम कहो
मैं जिंदगी हूं तुम्हारी
पर मेरे दृगों में यह
अभिमान तो पनपने दो
कि तुम्हारी हूं मैं...

रजनीश आनंद
08-07-17

रविवार, 2 जुलाई 2017

आंखों को बटन बना टांक दूं...

हर रोज जब सुबह
सूरज आकर दे जाता है
जिंदगी के बुझते चूल्हे को आग
तो हवाओं से आक्सीजन सोख
मैं सुलगा लेती हूं उसे
तुम्हारे प्रेम की हांडी में पकाती हूं
कई सजीव सपने
स्वादिष्ट भोजन की तरह
हर स्वाद है उसमें
खट्टा, मीठा, तीखा और नमकीन
खाने की मेज भी सजायी है
फूलदान में लाल गुलाब के साथ
बस तुम्हारे आने भर की देरी है
जिस पल तुम आओगे हम
साथ मिल खायेंगे उन सपनों की रोटी
कुछ तीखी तरकारियों के साथ
ज्यों छलक पड़े आंसू तो मीठे में
खा लूंगी तुम्हार प्यारी बातें
उस दिन तो चांद की दूधिया रौशनी नहीं
मुझे शीतला देगा तुम्हारा चेहरा
सोचती हूं उस रात मैं नींद को
आंंखों तक पहुंचने ना दूंगी
तुम्हें देखने की जो तड़प
मेरी आंखों में है उसे शांत करूंगी
लेकिन एक रात में क्या
आंखों की तड़प शांत होगी?
जी तो चाहता है
आंखों को बटन बना मैं
टांक दूं तुम्हारी कमीज पर
ताकि जब तुम पहनो उसे
आंखों को मिले एहसास तुम्हारा
या जब टंगी हो तुम्हारे
कमरे की खूंटी पर तो
देखती रहें तुम्हें जी भर...
रजनीश आनंद
02-07-17