गुरुवार, 31 अगस्त 2017

मन इमरोज हुआ जाता है...

चाह तो बहुत थी, लेकिन
जिंदगी ने नहीं कराई
भेंट किसी इमरोज से
तो सहसा मन इमरोज
सा हुआ जाता है
जानती हूंं सहज नहीं
इमरोज  हो जाना
लेकिन अब मन बस में कहां
वो तो अमृता का हुआ
इसलिए मन इमरोज हुआ जाता है
तुम्हें मुझसे प्रेम ना सही
मुझे तो तुमसे है बेपनाह
तभी तो जब तुम करते हो
चर्चा मेरे सामने साहिर की
तो मन इमरोज हुआ जाता है
तुम रचते नहीं मेरे लिए प्रेमकविता
तो क्या फर्क मुझे इससे
तुम्हारी हर प्रेमकविता की
पहली पाठक मैं ही तो हूं
तभी तो मन इमरोज हुआ जाता है
जब सफलता गले लगाती तुम्हें
और चूम लेती है , पेशानी तुम्हारी
तो बेपरवाही से तुम हाथ खींचकर
मेरा कराते हो एहसास मुझे उस गरमाहट का
तब ना चाहते हुए भी मन इमरोज हुआ जाता है
आज हमारा साथ दो
इंसानों के देह का होगा
पर जब मैं जाऊंगी इस लोक से
मेरी कोख में पनप चुका होगा
हमारा रूहानी रिश्ता
इसलिए मन इमरोज हुआ जाता है...
रजनीश आनंद
31-08-17

मंगलवार, 29 अगस्त 2017

अंगुलियों की थिरकन

निपटा तो रही थी मैं
प्रतिदिन के काम, पर
ना जाने कैसे की- बोर्ड
पर मेरी अंगुलियां थिरक गयीं
तुम्हारे नाम के साथ और फिर
हुआ क्या? मैं जान नहीं पायी
एक अजीब सी सिहरन
आंखों से होकर रूह तक
पसर गयी, रात की तरह नहींं,
अहले सुबह की तरह,
नयी उम्मीद के साथ
मैं जानती थी तुम नहीं,
सिर्फ एहसास है तुम्हारा
लेकिन इतनी जीवंतता, कि
जैसे मेरे होंठों ने पी लिया हो
प्रेमरस तुम्हारी उपस्थिति का...
रजनीश आनंद
29-08-17

मानवद्रोही क्यों हुई प्रकृति

मैंने तो झेला नहीं
सिर्फ तसवीरों में देखा
क्यों कर पानी-पानी
धरती हुई जाती है
बेचैन मन ने पूछा
प्रकृति से एक सवाल
नदियाँ उफान पर
मानवद्रोही क्यों हुई जाती हैं?
सबकुछ समेट लेने को आतुर
जिंदगी, खेत,रिश्ते अपनापन
सबकुछ विसर्जित
इस जल आतंक में
कातिल नदियां
बच्चों को लील लेने के फिराक में
पर गंगा तो मैया है!
बच्चों से अपराध जरूर हुआ
तभी बिफरी है वो दंड देने को
नेता करते सिर्फ हवाई सर्वेक्षण
समस्या के मूल तक क्यों कर जा पायेंगे?
तो क्या हर वर्ष कोशी
लोगों को कोसों पलायन करवायेगी?
रजनीश आनंद
29-08-17

मंगलवार, 22 अगस्त 2017

जिंदगी की जद्दोहद

जिंंदगी की रसोई में
कुछ स्वादिष्ट बनाने की
जद्दोहद में जुटा इंसान
हर पल, हर क्षण
किंतु कई बार
जो कुछ कढ़ाही में
बहुत स्वादिष्ट, सुस्वादु
मालूम होता है
असल में होता है
कड़ुआ, कसैला
पसोपेश में इंसानियत
कसैलेपन के साथ
क्या भविष्य होगा
इस व्यंजन का?
कसैली चीज मीठी
नहीं होती, लाख शक्कर डाल दो
एकतरफा कोशिश
बेकार ही जाती है
एकतरफा प्रेम की तरह
कुशल रसोइया वाकिफ है
इस सच से, तभी तो
कसैले व्यंजन को वह
परोसता नहीं, फेंक देता है
और जुट जाता है
एक बार फिर कुछ
स्वादिष्ट बनाने की चाह में
निश्चय ही इस बार
कुछ ऐसा बनेगा,जिसका
स्वाद घुल जायेगा
मुख में हमेशा-हमेशा के लिए
क्योंकि जिंंदगी बिखेरती है,
तो समेटती भी है...

रजनीश आनंद
22-08-17

सोमवार, 21 अगस्त 2017

एक मां के सवाल?

सिर्फ 50 रुपये, हां,इतनी ही तो कीमत
लगायी थी इन्होंने,मेरे जान के प्राण की
लेकिन हम गरीब ना जुटा पाये रुपये पचास
बस, बेदर्दी से उजाड़ दी गयी मेरी गोद
अरे! पूरे नौ माह कोख में संजोया जिसे
छाती चूसा जिसे थी पाल रही
प्रसव की अथाह पीड़ा का परिणाम जो
उसके जान की कीमत सिर्फ पचास रुपये?
बड़े प्यार से नाम धरा था मैंने कान्हा का
एक वर्ष से जप रही थी यह नाम, श्याम
गरीब माता-पिता के होंठों की मुस्कान था वो
पर काल को सही नहींं गयी खुशी हमारी
धकेल दिया उसे छत से और फिर,
गिरा जो श्याम मेरा, उठ ना सका
अस्पताल के चक्कर काटे हमने
हर किसी से मिन्नतें की, लेकिन मदद को
नहीं आया कोई, निर्दयी दुनिया!!
गरीब के जान की कीमत महज पचास रूपये?
बिना इलाज मर गया लाल मेरा
छोड़ आंचल मेरा, वह चला गया
उस लोक जहां लोग तारे बन जाते हैं
सुबह से कर रही इंतजार कि
एक तारा टूट गिरेगा मेरे आंचल में
और हो जायेगी पूरी मनोकामना
वह खिलखिलायेगा मेरे आंचल में
लेकिन उसका नाजुक देह तो शिथिल हो गया है?
आह! उजड़ गयी मेरी गोद
लेकिन क्यों? इस अपराध के दोषियों जवाब दो
नाभि नाल का रिश्ता ,यूं ही नहींं मिट जाता
जवाब दो संवेदना शून्य लोगों
क्या मात्र पचास रुपये ही थी मेरे लाल की कीमत?
फिर क्यों भला उसे बांहों में भरते ही
भान होता था मुझे, जैसे मेरे बांहों मे सिमटी हो दुनिया

रजनीश आनंद
21-07-2017


रविवार, 20 अगस्त 2017

तरल हुआ तन-मन

जानते हो प्रिये
जब तुम्हारी आंखों में
झांकते हैं मेरे नयन
तो बेकल हृदय
आंखों में टंगें
प्रेम को देख
त्याज देना चाहता है
तन के सारे वस्त्र
और पहन लेना चाहता है
प्रेमवस्त्र तुम्हारा
जो बिलकुल मेरे नाप का
मालूम होता है,
मेरे कानों में रह-रह गूंजती है
तुम्हारी पुकार और
तन-बदन तरल हो
सिमट जाना चाहता है
तुममें बिलकुल तुम्हारी
जान की तरह...
रजनीश आनंद
20-08-17

शनिवार, 19 अगस्त 2017

रिश्ते

जीवन की पगडंडी पर
चलते मिले कई रिश्ते
कुछ खून के थे और
कुछ बोये थे मैंने
रोज निहारा धरती में धंसे बीज को
खाद पानी दिया, पुचकारा स्नेहपूर्वक
कोंपल फूटे तो मन किसान सा हुआ
लगा अब लहलहायेगा जीवन
लेकिन
यह तो सुंदर स्वप्न था
मैं निराश हुई, क्या बंजर है मेरी धरती ?
तभी स्पर्श किसी का चौंका गया
देखा तो खुशी से बरसे नैना
कुछ नन्हें पौधे मुस्कुरा रहे थे...
रजनीश आनंद
20-08-17

गुरुवार, 10 अगस्त 2017

प्रेम की सीढ़ियां

रात का अकेलापन
कलम हाथ में लिये
मैं गढ़ना चाहती हूं
एक कविता तुम्हारे नाम
कुछ सीढ़ियां उभरती हैं
जो जाती हैं तुम तक
हर सीढ़ी पर मैं उकेरती हूं
इंतजार के  पलों को
और आगे बढ़ती हूं
इस उम्मीद में कि
शिखर पर तुम
बांह पसारे होगे
अधरों से जज्ब करने को
मेरे अकेलेपन को
रोमांचित मैं, इतराती मैं
चाल में मेरे  लचक,
और रूमानियत
उत्साह में मैं
एक की जगह दो सीढ़ियां
चढ़ती जाती हूं, लेकिन, आह!
सीढ़िया तो खत्म ही नहीं होती?
बीत रहे पल, दिवस, महीने, साल
मैं युवा से प्रौढ़ा, वृद्धा हुई
किंतु प्रेम अभी युवा है
देखो,अब भी सीढ़ियां चढ़ रहा
पूरे उत्साह से वह
सीढ़ियां इतनी लंबी
जैसे चांद पर जा बैठे हो तुम
लेकिन, तुम्हारा प्रेम अॅाक्सीजन है
थामे उसका सिलेंडर
मैं चली आऊंगी, तुम तक
क्योंकि मुझे अपने प्रेम पर यकीं है....
रजनीश आनंद
10-08-17


बुधवार, 2 अगस्त 2017

मृदुल स्पर्श

सुंदर, मृदुल स्पर्श
प्रियतम तुम्हारा
बेचैन तन मन
कांपते अधर
मूंदती पलकें
सांसों का थमना
लालिमा गालों पर
मादक आह, होठों पर
सब एकसाथ कहते हैं
मुझे तुमसे प्रेम है
प्रेम का यह अपनत्व
हर पल देता है तुम्हें
डाक, बस बहुत हुआ
अब तो आ जाओ...
रजनीश आनंद
02-08-17