रविवार, 17 मई 2020

प्रवासी मजदूरों के मुद्दे पर सरकार को जवाब तो देना होगा, यह लोकतंत्र है तानाशाही नहीं?

पिछले कुछ दिनों से देश में जिस बात की चर्चा सबसे ज्यादा है, वह हैं प्रवासी मजदूरों की. प्रवासी मजदूर इसलिए क्योंकि वे अपना प्रदेश या यूं कहें कि देस छोड़कर दूसरे प्रदेशों में मजदूरी कर रहे हैं. कोरोना वायरस के प्रकोप ने अबतक देश में 90 हजार से ज्यादा लोगों को संक्रमित किया है और अबतक 2872 लोगों की मौत हुई है. लेकिन कोरोना से बचाव के लिए सरकार ने देश भर में जो लॉकडाउन किया उससे आठ करोड़ मजदूर सड़क पर आ गये हैं और भूख उन्हें विवश कर रही है कि वे अपने देस लौट जायें. परिणाम क्या हुआ है यह बताने की जरूरत नहीं है. सोशल मीडिया में तो ऐसी-ऐसी तसवीरें वायरल हैं कि कोई पत्थर दिल भी रो दे. लेकिन यहां सवाल यह है कि आखिर ऐसी स्थिति क्यों बनीं. देश में 24 मार्च से लॉकडाउन है और आज 17 मई है. यानी एक महीना बाइस दिन से लॉकडाउन जारी है और आगे यह 31 मई या जून 15 तक भी जा सकता है ऐसी संभावना है. बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश ऐसे राज्य हैं जहां से सबसे ज्यादा मजदूर आजीविका के लिए दूसरे प्रदेशों में जाकर अपना काम करते हैं. बिहार और उत्तरप्रदेश से जैसे राज्यों का समर्थन पाये बिना इस देश में प्रधानमंत्री बनना तो मुश्किल है, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि यह दोनों ही प्रदेश आज भी अपने लोगों को अपने प्रदेश में आजीविका का उचित साधन उपलब्ध नहीं करा पायी है, तभी तो यहां के लोग मजदूर बनने पर विवश हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लॉकडाउन की घोषणा करते हुए यह कहा था कि‘जान है तो जहान है’.उनकी इस बात से तो मैं पूरी तरह इत्तेफाक रखती हूं, लेकिन क्या मैं अपने पीएम से एक यह सवाल नहीं पूछ सकती कि क्या उन्हें यह पता नहीं था कि जब देश में पूरी तरह लॉकडाउन हो जायेगा तो ऐसे लोग जो सड़कों पर दिन-रात पैदल चल रहे हैं, उन्हें क्या परेशानी होगी? ऐसे मजदूरों के सामने जब भोजन और आवास की समस्या उत्पन्न हो जायेगी तो वे क्या करेंगे और कहां जायेंगे? अगर सरकार ने यह सोच लिया होता तो शायद आज जो दर्दनाक दृश्य हमारे सामने है, वह नहीं होता. सरकार यह कह रही है कि संक्रमण का खतरा है, इसलिए वह लोगों को घर पर रहने की सलाह दे रही है. सरकार अगर इस सलाह के साथ गरीबों के लिए खाना और कुछ पैसे का इंतजाम कर देती तो शायद यह मजदूर अपना ठिकाना छोड़कर नहीं आते. हजारों किलोमीटर पैदल चलते यह मजदूर हमारी व्यवस्था और सरकार के ‘फेल्योर’ की निशानी हैं. यहां मैं सिर्फ केंद्र सरकार की ही नहीं राज्य सरकारों की भी बात कर रही हूं, क्या राज्य सरकारों का यह दायित्व नहीं है कि वह इन मजदूरों को रोकें. जो इंसान रोजी-रोटी के लिए इतनी दूर गया वह इतना खतरा मोल लेकर वापस क्यों आयेगा?

लॉकडाउन में एक महीने से ज्यादा का समय बीत जाने के बाद सरकार ने श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलायी है, लेकिन अबतक कुछ लाख मजदूर ही अपने देस लौट पाये हैं, जबकि आंकड़ा आठ करोड़ है. बेबसी किस तरह की है कि वे पैदल तो चल ही रहे हैं, किसी भी ट्रक, ट्रेलर और साइकिल पर सवाल होकर भी अपने घर लौट रहे हैं. पिछले दिनों दो खबर आयी थी एक मध्यप्रदेश की थी और एक बिहार की. जिसमें गर्भवती स्त्री ने बच्चे को सड़क पर ही जन्म दिया और फिर एक घंटे रूक कर फिर चल पड़ी अपने पति के साथ उस नवजात को गोद में लिये हुए. दूसरी घटना गोपालगंज की थी जहां सड़क पर बच्चे को जन्म देने के बाद बच्चे की हालत बिगड़ गयी, किसी तरह प्रशासन को जानकारी मिली तो बच्चे को अस्पताल पहुंचाया गया और वह बच्चा वेंटिलेटर पर है. कई श्रमिक ओवरलोडेड गाड़ी पर सवार होकर आ रहे थे तो कोई थककर पटरी पर सो गया. अबतक ऐसी घटना के बाद हुई दुर्घटना में 50 से अधिक लोगों की मौत हुई है.

लेकिन सरकार और विपक्ष एक दूसरे पर दोषारोपण कर रहे थे. बेशक जो सत्ता में है उसकी ही जवाबदेही है कि वह व्यवस्था को दुरुस्त करे. लेकिन क्या यह विपक्ष की जिम्मेदारी नहीं है कि वह पांच-दस प्रतिशत भी सहयोग करे. युद्ध जैसी स्थिति बताकर एक दूसरे पर दोषारोपण करते नेताओं को देखकर चिढ़ होती है. यह वही लोग हैं, जो अपने-अपने बड़े नेताओं की रैली में भीड़ जुटाने के लिए ट्रक-बस भरकर लोगों को लाते हैं, उनके खाने-पीने की व्यवस्था करते हैं और पैसे भी देते हैं. ठीक है यह चुनाव का वक्त नहीं, लेकिन क्या यह राजनेताओं का कर्तव्य नहीं है कि वह इन मजदूरों के लिए कुछ करते?

सरकार ने 20 लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा की है, लेकिन इसमें सीधे लाभ पहुंचाने वाले स्कीम बहुत कम हैं. मनरेगा के तहत 40,000 करोड़ रुपये के रोजगार सृजन की बात तो है, लेकिन इसे उपलब्ध कराने में भी समय लगेगा.  इससे बेहतर तो यह था कि सरकार इन मजदूरों को उनकी फैक्ट्री और मालिकों द्वारा ही पगार दिलवाती और उनके भोजन की व्यवस्था करती जिससे वे जहां थे वहीं रहते और यूं सड़कों पर दर्दभरी कहानी ना बनते. अभी भी समय है सरकार युद्धस्तर पर प्रयास करे और इन मजदूरों को उनके घर तक सुरक्षित पहुंचाये, अन्यथा इसके परिणाम उन सभी सरकारों को भुगतने पड़ेंगे जहां यह मजदूर काम करते थे और जहां ये मजदूर लौटे हैं. जहां काम करते थे उन सरकारों के सामने लॉकडाउन खत्म होने के बाद लेबर की कमी हो जायेगी और उनका काम बंद हो सकता है, वहीं जहां ये मजदूर लौटे हैं, वहां कि सरकार के सामने भी इन्हें रोजगार उपलब्ध कराने की चुनौती है.


शुक्रवार, 8 मई 2020

TrainAccident : पटरी पर 16 मजदूर नहीं बेबसी सो रही थी, जिसे व्यवस्था ने बेमौत मार दिया

आज सुबह-सुबह एक ऐसी खबर आयी जो मनहूसियत से भरपूर थी. महाराष्ट्र के औरंगाबाद के पास 16 मजदूर एक मालगाड़ी की चपेट में आकर कट गये. कल के विशाखापट्टनम कांड से देशवासी उबर भी नहीं पाये थे कि यह एक और दर्दनाक हादसा.कोरोना वायरस के प्रभाव में दिहाड़ी मजदूर करने वालों पर आफत है, उनकी रोजी छीन गयी है और साथ ही रहने का ठिकाना भी. काम नहीं होने के कारण उनके पास पैसे नहीं हैं, ऐसे में घर का किराया देना उनके बस में नहीं है, चूंकि यह उनका देस भी नहीं है, इसलिए ऐसे समय में उन्हें सिर्फ और सिर्फ अपनी धरती की याद आ रही है. यह वाजिब बात है और किसी के साथ भी इन परिस्थितियों में ऐसा ही कुछ होता. परेशानी यह है कि पूरे देश में लॉकडाउन जारी है और रेल,सड़क और वायुमार्ग से आवागमन बंद है. ऐसे में बदहाली के कगार पर  पहुंचे यह मजदूर अपनी धरती तक पहुंचने के लिए हजारों किलोमीटर का सफर पैदल ही तय करने पर आमादा है. कोई साइकिल को जरिया बना रहा है तो कोई किसी तरह जुगाड़ करके अपने घर पहुंचने के लिए मीलों चल रहा है. बस एक ही चाह है अगर कोरोना मारने ही आया है, तो अपनी धरती पर मरें अपने लोगों के साथ.

बस इसी चाह में मध्यप्रदेश के 20 मजदूर महाराष्ट्र के जालना से पैदल मध्यप्रदेश अपने गांव जा रहा थे. यह सभी जालना की एक स्टील फैक्टरी में काम करते थे और कोविड-19 लॉकडाउन के कारण बेरोजगार हो गये थे और अपने घर पैदल लौट रहे थे. चूंकि सड़क मार्ग से जाने पर पुलिस रोकती-टोकती है, इसलिए वे पटरियों पर चल रहे थे. उन्हें यह तो मालूम है कि रेल इन दिनों नहीं चलती, लेकिन उन्हें यह नहीं मालूम था कि मालगाड़ियां अभी भी चल रही हैं. कुछ रोटी को पोटली में बांध यह मजदूर पैदल चल रहे थे. चलते-चलते थककर वे पटरी पर ही सो गये. कुल 16 मजदूर सुबह पांच बजे के आसपास मालगाड़ी की चपेट में आ गये और बेमौत मारे गये. वे अपने घर से 30-40 किलोमीटर दूर थे. दुर्घटना औरंगाबाद जिले के आसपास हुई है. मजदूर मध्यप्रदेश के भुसावल के थे.

दुर्घटना की जो तसवीर सामने आयी है, उसमें मजदूरों के शव पटरी पर पड़े हैं. रेलगाड़ी से कटे शव. पटरियों पर बिखरीं रोटियां. किसी को भी भावुक कर सकती हैं. हम इसलिए भावुक ज्यादा हैं क्योंकि हम वैसे इलाके से आते हैं, जहां के लोग मजदूरी करने के लिए पूरे देश में जाते हैं. बिहार-झारखंड और उत्तर प्रदेश. पूरे देश में इन्हीं राज्यों से मजदूर जाते हैं.

सरकार का कहना है कि वह मजदूरों को उनके घर पहुंचाने के लिए 222 श्रमिक स्पेशल ट्रेन चला रही है, जिसका फायदा अबतक 2.5 लाख लोग ले चुके हैं. लेकिन सवाल यह है कि अगर मजदूरों को उनके घर तक पहुंचा ही रही हैं, तो क्यों नहीं सरकार ने यह फैसला पहले किया? अगर सरकार लॉकडाउन के तुरंत बाद या मजदूरों को पहले वापस भेजकर लॉकडाउन लगाती तो इन मजदूरों को इस तरह विवश नहीं होना पड़ता. ऐसी कई घटनाएं हमारे सामने हैं जो लॉकडाउन के दौरान देखने को मिल रही हैं. हम वह घटना भी नहीं भूले जब दिल्ली और मुंबई से वापस आने के लिए मजदूर लाखों की संख्या में सड़क पर आ गये थे. इनके पास खाने को नहीं है. कई लोग 5-6 तक भूखे हाईवे पर चल रहे हैं, क्योंकि दुकानें बंद हैं. ऐसे में हमारे राजनेताओं को इस बात का जवाब तो देना होगा कि आखिर इन मजदूरों की बदहाली का जिम्मेदार कौन है? क्या आज जो लोग ट्रेन से कटकर मरे हैं, उनकी मौत की जिम्मेदारी कोई लेगा? क्या यह केंद्र और राज्य सरकार की जिम्मेदारी नहीं थी कि वह इन मजदूरों को या तो रोक कर रखे और भूखों मरने से बचाये?

गुरुवार, 7 मई 2020

बड़ी की सब्जी

उस दिन बड़े प्यार से
मैंने बनायी थी बड़ी की सब्जी
जैसे बनाती थी दादी मेरी
इंतज़ार किया था, घंटों उसका
हाँ, श्रृंगार भी किया था, 
लेकिन सिर्फ मन का
उसे रिझाना मेरे बस में नहीं था
इसलिए तो बस उम्मीद की डोर बांधे थी
काश की वो इस डोर के खिंचाव को महसूस करता
इसी उम्मीद में मैंने डोर कुछ ज्यादा ही खिंची
भौतिकी में पढ़ा था प्रत्यास्थता सीमा
संभवतः मेरी उम्मीद उसी सीमा को लांघ गयी
तब मिला मुझे जिंदगी का मूलमंत्र
रिफाइन में नहीं, सरसों के तेल में बनती है
सबसे अच्छी बड़ी की सब्जी... 

रजनीश आनंद

मंगलवार, 5 मई 2020

bioslockerroom, girlslockerroom और sexuality का सच!


bios locker room और #girlslockerroom की चर्चा इन दिनों सोशल मीडिया के जरिये पूरे देश में हो रही है, जिसके कारण यह दोनों ग्रुप ट्विटर पर टॉप ट्रेंड में रहा. यह दोनों ही सोशल मीडिया ग्रुप के नाम हैं और जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है यह दोनों लड़कों और लड़कियों के ग्रुप हैं. अब इस ग्रुप में बात करने का तरीका देखिए- अगर एक लड़का तुम्हारी हॉट पिक पर रिस्पांड ना करें, तो समझना वो गे है. बूब्स की जगह पिंपल है, वगैरह-वगैरह. अब लड़कों की सुने-उसने बहुत दारू पी थी. पागलों की तरह नाच रही थी आउट अॅाफ कंट्रोल थी इसलिए हम शुरू हो गये....


यह सिर्फ उदाहरण हैं जो आम लोगों के साथ शेयर की जा सकती है, इससे इतर भी ग्रुप में कई बाते हैं, जिसे सभ्य लोगों के ग्रुप में शेयर करना असभ्यता समझा जायेगा. हालांकि हमारा समाज उस तरह की भाषाओं का आदि है और समाज में ऐसी भाषा बोली और समझी जाती है. किसी को नीचा दिखाना हो तो खासकर ऐसी भाषा का प्रयोग किया जाता है. खैर विषयांतर ना करते हुए मैं मुद्दे पर आती हूं.

दरअसल #boyslockeroom इंस्टाग्राम पर लड़कों का एक ग्रुप है जिसमें स्कूल के 16-19 साल तक के बच्चे मेंबर हैं. जैसा कि आम तौर पर देखा जाता है लड़के, लड़कियों की शारीरिक संरचना के बारे में अश्लील तरीके से बात करते हैं, वो इस ग्रुप में भी हो रहा है. टीनएजर लड़के जिनमें जिज्ञासा है और वे सबकुछ जानने को उत्सुक है. खासकर शारीरिक बनावट और शारीरिक संबंध के बारे में. चूंकि इस उम्र में अपोजिट सेक्स के प्रति खिंचाव स्वाभाविक है, इसलिए उनकी बातचीत भी स्वाभाविक है. लेकिन चौंकने वाली बात या जिसे हम खतरे की घंटी मानें, वह यह है कि इंटरनेट के इस युग में वे गलत तरीके से गलत ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं. इस वजह से वे अपराट की ओर अग्रसर हो रहे हैं. यह बच्चे जो किशोर हो चुके हैं वे रेप की योजना बना रहे हैं.

 वे आपस में यह चर्चा कर रहे हैं कि किस तरह एक लड़की का जो शायद उनकी सहपाठी है, उसका उन्होंने रेप किया या करना चाहते हैं. यही स्थिति डराने वाली है, क्योंकि बच्चे अपराध करने का सोच रहे हैं. वह भी तब जब इसी साल 20 मार्च को देश में निर्भया के दोषियों को फांसी दी गयी. निर्भया की चर्चा इसलिए क्योंकि चार-चार लोगों को फांसी पर चढ़ते देखकर भी अगर रेप की प्रवृत्ति लड़कों में पनप रही है तो यह समाज के लिए खतरे की घंटी है.

इंटरनेट और सोशल मीडिया के दौर में खुलापन समाज में हावी है. हर कोई आपस में खुलकर बातें कर रहा है. सेक्स एक ऐसा विषय है जिसे लेकर जिज्ञासा तो है जो स्वाभाविक है, लेकिन गलत जानकारी किशोरों को भ्रमित कर रही है और वे पथभ्रष्ट होकर गलत राह पर जा रहे हैं. यह बात सिर्फ लड़कों पर लागू नहीं है, यह बात लड़कियों पर भी लागू है, क्योंकि जो जिज्ञासा इनके अंदर है वो लड़कियों में भी है. यही कारण है कि लड़कियों ने भी इसी तरह का ग्रुप बनाया हुआ है, जिसमें वे अपनी जिज्ञासा शांत कर रहे हैं. लड़कों पर कमेंट कर रही हैं उनकी शारीरिक बनावट पर बात कर रही हैं और मजे ले रही हैं. इसका कारण है उनकी जिजीविषा.

लड़कियों का शरीर लड़कों के लिए एक रहस्य है जिसे वह भोगना चाहता है और यह बात हर युग में सही रही है. बात sexuality की नहीं है, यह तो प्राकृतिक और स्वाभाविक प्रक्रिया है. sexuality को हमारे समाज में गलत तरीके से परिभाषित किया जाता है. यह तो सामान्य प्रक्रिया है और परिवार नामक संस्था की आधारशिला भी है. जिसमें प्रेम और विश्वास रहता है और लोग दूसरे की भावनाओं की कद्र करते हुए एक दूसरे को आकर्षित करते हैं और संतुष्ट करते हैं. आपत्ति है सेक्स के नाम पर विकृति की. sexuality दोनों ही जेंडर में है, तभी यह प्रकृति सुचारूरूप से चलती है. लेकिन आज सेक्स के नाम पर विकृति दोनों ही जेंडर में दिख रही है.

sexuality जबतक स्वीकार्य हो सहमति से हो, वह प्रेम होता है, लेकिन जैसे ही यह असहमति और अस्वीकार्यता का बोध कराता है यह अपराध हो जाता है. ऐसे में समाज और परिवार की जिम्मेदारी बढ़ जाती है. परिवार और समाज यह तय करता है कि कैसी और कितनी जानकारी किस आयुवर्ग के लोगों को होनी चाहिए. अगर यह तय नहीं किया गया तो अनाचार बढ़ेगा, जो बढ़ रहा है. sexuality के नाम पर अपराध कोई नयी बात नहीं है. लेकिन यह कुंठा निकालने का जरिया ना बने, यह देखना समाज और परिवार की जिम्मेदारी है.

इंटरनेट की वजह से लोगों के हाथों में हर तरह की सूचना उपलब्ध है सेक्स के नाम पर लोगों के सामने विकृत सामग्री परोसी जा रही है. इस बात को मैच्योर लोग तो समझ लेते हैं, लेकिन कच्ची उम्र के लोग इस बात को समझ नहीं पाते और आपराधिक घटनाओं को अंजाम देते हैं. इसलिए सूचना के विस्फोट में क्या लेने लायक है और क्या छोड़ने लायक यह हमें ही तय करना होगा.