बुधवार, 30 सितंबर 2020

रेप की वजहें और पीड़िता

एक और नाम जुड़ गया है फेहरिस्त में हाथरस गैंगरेप। ऐसे ही दिल्ली गैंगरेप, कठुआ गैंगरेप, उन्नाव गैंगरेप और बदायूं गैंगरेप। हमारे जेहन में ऐसे कई  केस हैं हम अरूणा शानबाग को नहीं भूले। मथुरा को नहीं भूले पर हम ऐसी घटनाओं को नहीं रोक सके। देश में बलात्कार के दोषियों के लिए मृत्यु दंड तक का प्रावधान है, बावजूद इसके तेलंगाना में रेप करके पीड़िता को जला दिया जाता है। उनका एनकाउंटर होता है, लेकिन बलात्कारी डरे? दिल्ली गैंगरेप के दोषी फांसी पर चढ़ाये गये क्या उस एक दिन भी देश में बलात्कार की घटना रूकी? नहीं रूकी। 
दर असल यह मसला आज का नहीं है। मानव जाति के साथ ही बलात्कार भी फूलता फलता रहा है। चूंकि हमारे समाज में इसे लड़कियों की इज्जत से जोड़ा जाता है, इसलिए कितने बलात्कारी सहजता से अपराध करके घूमते रहे और स्त्री जीवन भर सिसकती रही। यह बिडम्बना है, पर सच है। अगर घटना सामने आ गयी और सरकार की अकर्मण्यता पर सवाल उठे तो मुआवजा ठूंस दिया जाता है मुंह में 25 लाख का, उसपर सरकारी नौकरी भी। 
एक गरीब तो यूं ही चुप बैठ जायेगा, बेटी तो चली गयी बची खुची इज्जत बचाने लो और जीवन भर की रोटी का जुगाड़ बेटी ने मरकर कर ही दिया है। सवाल है कि क्या समाज से यह रोग कभी नहीं जायेगा? क्या स्त्री हमेशा अभिशप्त रहेगी?

स्त्री की हमारे समाज में अपनी आइडेंटिटी नहीं है। उसे इंसान नहीं वस्तु बनाया गया है जिसका उपभोग पुरूष करता है। पुराने समय से हमारे समाज में ऐसे उदाहरण हैं।  द्रौपदी को जुए में हारना उसे वस्तु ही साबित करता है। जब एक महारानी की समाज में ऐसी स्थिति थी तो आम महिला की कैसी होगी। 
चूंकि हमारा समाज जाति आधारित है, इसलिए रेप जैसे अपराध को भी वैसे ही समझना होगाः

यह कहना कि सवर्ण महिला के साथ रेप नहीं होता, बिलकुल गलत है। उनके साथ भी खूब रेप होते हैं। बाहर तो छोड़ दें घरों में भी होते हैं जिसकी चीख इज्जत की महल से बाहर नहीं जाती। बावजूद इसके ये महिलाएं गरीब तबके की औरतों से सुरक्षित हैं क्योंकि उनका परिवार उन्हें सुरक्षित करता है। काम करना है तो कहाँ करना है? सुरक्षा है या नहीं जैसे कई मसलों पर परिवार विचार करता है। लेकिन यह सुविधा दलित या आदिवासी महिलाओं के पास नहीं है। 
जीवन बचाने के लिए उन्हें संघर्ष करना होता है, और ऐसे में वे यह नहीं समझ पाती कि कहाँ काम करना है कहाँ नहीं। कारण वह सभी के लिए सहज उपलब्ध होती हैं। गाँव में शौचालय की समस्या है देर रात या अहले सुबह गयी मैदान तो कोई ना कोई भेड़िया ताक में होगा। बलात्कार के सिर्फ यही कारण हैं ऐसा नहीं है। लेकिन यह महत्वपूर्ण वजह हैं ऐसा मैंने पाया है। जाति आधारित समाज में दबंग जातियों की दबंगई भी चलती है गरीब महिलाएँ पिसती हैं। दलित महिलाओं के साथ रेप इसलिए ज्यादा होते हैं। महिला जाति ही दलित है और उसके शरीर का दोहरा बदस्तूर जारी है। समाज के हर तबके को इसपर विचार करना चाहिए, कि आखिर यह अपराध समाज से कैसे मिटेगा। राजनीति का अपराधीकरण किया जा भी इस अपराध को बढ़ावा देने के मूल में है। और भी कई वजह हैं जिनपर विचार करके शायद हम समाज से बलात्कार मिटा पायें। किंतु इसके लिए पहले महिला को सम्मान देना होगा जैसे वह पुरुष को देती है। किसी को देखती ही टंच माल कहकर लार टपकाने और उसका विश्लेषण उसके शारीरिक उभारों से करने से अपराध वह भी रेप के अपराध नहीं रूकेंगे।

मंगलवार, 29 सितंबर 2020

बौनी लड़की

जेहन में आज भी कायम है 
वो इलाहाबाद की सर्द सुबह
जब आराम से बालकनी में बैठ
खा रही थी, शुद्ध घी में चुपड़ी लिट्टी 
और धनिया पत्ती की चटनी
साथ में अदरक वाली चाय, 
जायके और सेहत का पूरा इंतजाम
प्रेम प्रस्फुटित था सामने
दो किशोरवय जोड़ा
उनकी नजरें टकरातीं
तो उनकी सांसों की गरमाहट
महसूस हो जाती थी मुझे
उस गरमाहट में एक बर्फीले स्पर्श ने जगाया
सामने एक मैले से कपड़े में
छोटी सी बच्ची, एक डेढ़ साल की
मेरे प्लेट को ध्यान से देख रही थी
मैंने सोचा बच्ची है पता नहीं कहाँ से आयी
तब- तक नीचे से मकान मालिकन
ढूंढ़ती आ गयी, कर्कश आवाज और क्रूर चेहरा लिये
अरी बहुत शैतान है, ऊपर कैसे आयी?
बच्ची डरी नहीं, ढीठ होकर बोली
लिट्टी की खुशबू खींच लायी
मैं दंग थी उसके जवाब पर
हैरत से पूछा- बोलना आता है बेटा? 
नाम क्या है तुम्हारा
वो बोली श्वेता, पर है काली कलूटी
दादाजी ने रख दिया है नाम
बिना सोचे समझे
वह खींचकर उसने ले जाने लगी
बच्ची की नजर मेरे प्लेट पर थी
मैं भागकर गयी और दो लिट्टी उसे थमाया
उसकी आंखों में चमक थी
फिर वो आने लगी मेरे पास
कभी चॉकलेट, कभी मिठाई या कुछ और
मैं उसे खिलाती वो आकर खाती
पता चला सात आठ साल की है
पर लंबाई बढ़ती नहीं
घर वाले ही ‘बौनी’ कहकर बुलाते
एक रात नीचे से रोने की आवाज आयी
लगा पिटाई हो रही बौनी की
मन हुआ जाकर देखूं
कलेजे पर पत्थर रखा
रात कैसे कटी मालूम नहीं
सुबह वह आयी नहीं, मैं बेचैन रही
दो दिन बीते, तीसरी सुबह आयी वो
मैंने उसे पास खींचकर पूछा कहां थी 
आयी क्यों नहीं थी?
उसके चेहरे पर चोट के निशान थे
कहा- मैंने मांग दिया था अंडा
पर, मेरे हिस्से तो है छूछी रोटी
अंडा दूध तो भाई के लिए है
श्वेता का मन कलुषित था
उस व्यवहार पर, जो मिला था उसे परिवार से
मैंने देखा, वह बौनी लड़की 
समाज पर बड़े सवाल खड़ी कर
चुपचाप उतर रही थी सीढ़ियां... 

-रजनीश आनंद

रविवार, 27 सितंबर 2020

लैप पोस्ट

मेरे कमरे की खिड़की के सीध में है ये लैप पोस्ट
हर रात इसे देखती हूं
कभी मच्छरदानी खोंसते तो 
कभी किताबों को पढ़ते
पता नहीं क्यों? 
निस्तब्ध रात्रि में वाचाल होते हैं ये लैप पोस्ट
मैं समझना चाहती हूं 
इसकी मूक वाणी को
लेकिन इससे नजरें नहीं मिला पाती
ये मेरे सवालों को धुंधला कर देती है। 
जब घिसती हूं बेटे के तलवे पर सरसों का तेल
उसकी झांस से बचने का उपाय 
मैं ढ़ंढ़ती हूं लैप पोस्ट में 
अगर नहीं होता लैप पोस्ट तो? 
चूंकि मै कुछ दूरी बनाकर पूछती हूं मच्छरदानी के अंदर से
जवाब बिखरे नजर आते हैं लैप पोस्ट के नीचे
सड़क डरावनी हो जाती
खो जाता सुरक्षा का एहसास
बेटियां शाम होते दुबकती घरों में
कोई गरीब बच्चा इसके नीचे बड़ा ना बनता
 लैप पोस्ट हमेशा विपरीत परिस्थितियों में रौशन होता है
आंधी तूफान का उसे डर नहीं
ना डर है अकेले पन का
तब ही तो लैप पोस्ट मुझे स्त्रीलिंग लगते है
क्योंकि विपरीत परिस्थितियों में सृजन औरत का शगल है... 

रजनीश आनंद

बुधवार, 23 सितंबर 2020

मनमाफिक कमरा

वो रहती है एक कमरे में
छोटा किंतु मनमाफिक कमरा
उसकी खिड़की बहुत प्यारी है
उसी से निहारती है, वह
दूर पहाड़ी पर बैठे प्रेमी जोड़ों को
कई बार प्रेमियों के शरीर की खुशबू 
उसे बेचैन करती है, मन होता है
तितली बन फिर आऊं किसी 
फूल का रस चख लूं
या फिर नीले आकाश के आगोश में
चील की तरह उड़ चलूं
कभी पहाड़ी के तालाब में
छपाक से कूदने का मन करता है
मासूम बच्चों की तरह
जिनके इस खेल में होता है सिर्फ विनोद
कभी बगुला बन उसी तलाब से निकाल लूं
चमकीली आंखों वाली मछली
जब अट्टहास करता है बादल
तो मन करता है बाहर जा सोख लूं जल उसका
लेकिन फिर चुपचाप बैठ जाती है खिड़की पर
उस पत्थर को हाथ में कसकर दबाये
जिसे शिवलिंग बताकर माँ ने थमाया था हाथों में
शिव यानी समस्त कामनाओं पर विजय
क्योंकि वह एक शालीन स्त्री है, कामना रहित... 

रजनीश आनंद

सोमवार, 14 सितंबर 2020

बछड़ा

उस दिन दूधवाले ने कम दूध दिया
मेरी जरूरत ज्यादा की थी, पर दूध कम
खीज में पूछा मैंने, क्यों करते हैं भैया ऐसे
वर्षों से आपके भरोसे हम 
फिर ऐन वक्त यह धोखा क्यों? 
मेरे सवालों से भरे नेत्रों को देखा नहीं
उस दिन दूधवाले ने, बस नजरें झुका
कह गये, आज बछड़ा दूध चुरा लिया
दूध की बोतल मेरी हाथों में थमा
वे चले गये पवन वेग से
मैं कुढ़ती रही दिन भर
55 के हो गये होंगे पर इतना बड़ा झूठ
उसपर हर जरूरत में मदद की हमने
बिटिया की शादी पर पैसे दिये
बीमारी या कोई और जरूरत रही हो
पर हमारी जरूरत नहीं दिखी उन्हें
अगले दिन जब सुबह आठ बजे 
दूध वाले भैया जी आये तो गर्व था चेहरे पर
मुझे एक किलो अधिक दूध देकर बोले
आज सवेरे ही बांध दिया था बछड़े को
गाय से दूर, रंभाती रही गैया
 जो कटौती हुई थी वो पूरी कर दी
बोतल हाथ में लिये मैं रसोई में आयी
सफेद दूध रक्त की तरह लाल जान पड़ा
बिलकुल वैसा ही जैसे उस दिन देखा था मैंने
अपने बेटे के खून में सने चेहरे को, 
भागकर बालकनी में उसके पीछे गयी थी
खून क्यों छिपा रहा, बताया क्यों नहीं मुझे? 
मासूम चेहरा, मेरी ओर करके कहा था उसने
तुम तो आफिस गयी थी मेरे पास कहाँ रहती हो
दूधवाले का बछड़ा और मेरा लाडला
एक से दुख में थे, और मैं पीड़ा से रंभाती... 

रजनीश आनंद

शनिवार, 12 सितंबर 2020

स्मृति

स्मृति कभी नहीं मिटती
कायम रहती है हमारे अंदर
किसी ना किसी रूप में
तभी तो जब पुनर्जन्म होता है स्मृति का
वह रूलाती भी है, हंसाती भी
आप स्मृतियों को कागज की तरह
फाड़कर टुकड़े -टुकड़े नहीं कर सकते
क्योंकि वे अंकित होती हैं मानस पटल पर
भूल चुके पल भी सहसा सामने आ खड़े होते हैं
उस क्षण जब आप करते हों संवाद खुद से
वह समय होता है प्रेम का, 
नफरत को बिसार कर प्रेम के शुक्राणु को आश्रय दीजिए
वह पल प्रसवपीड़ा सा कष्टकर हो सकता है
किंतु यह तय है शिशु नफरत का स्वरूप नहीं होगा
क्योंकि स्मृति में प्रेम हर पल जीवित है... 
रजनीश आनंद


रविवार, 6 सितंबर 2020

आंसू

औरतों की जिंदगी मेंं
ढांढस की तरह हैं आंसू
जिनसे सराबोर हो
वह संभल जाती है
झेल लेती है हर
वो घाव, चाहे नये हों
या रिसते रहें हों जख्म बन
आंसू की झील में तैरकर
औरत बन जाती है पारंगत मांझी
नमकीन आंसू बनाये रखते हैं
नमक जिंदगी में
इसे कमजोरी की निशानी ना समझें
स्वार्थपरक इस दुनिया में
जब टूटते हैं भ्रम और विश्वास
तो आंसू होते हैं सच्चे साथी
तो मर्दों कभी रोकर देखो
त्रिया चरित्र के हथकंडे नहीं हैं सिर्फ ये
निर्मल भाव में भी बहते हैं आंसू... 

रजनीश आनंद