रविवार, 30 अक्तूबर 2016

रिसता दर्द

तुमने कभी सोचा प्रिये?
क्या बितती है मुझपर
तुम्हारी चाह में
हर पल रिसता है
एक दर्द सीने में
मैं वर्णन नहीं कर सकती
उस एहसास का
देखो मेरी आंखों में
तुम्हें स्पष्ट दिखेगी
असीमित इंतजार की तड़प
और
जब तुम कसते हो
मुझे बांहों में तब,
जब वायु का प्रवेश भी
हो जाता है निषेध
मुझे मिलती है प्राणवायु
असीम ऊर्जा से परिपूर्ण
और मैं अपने अधरों से
लिख देती हूं तुम्हारे वक्ष पर
हमारी प्रेमकथा
और जब तुम अपनी अंगुलियां
फेरते हो मेरे केशों में तो
मैं जकड़ती जाती हूं तुम्हें
ताकि एक हो जायें हम
थोड़ी क्रूर होती पकड़
लेकिन सुखद
जब बेसुध सी हो जाती हूं मैं
तब अहसास होता है
मेरा जिस्म मेरा नहीं
सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी चाह है
जिसका हर रिसता दर्द
मिटता है तुम्हारी बांहों में आकर

रजनीश आनंद
31-10-16

शनिवार, 29 अक्तूबर 2016

दीपावली की रात

जानते हो प्रिये तुम
दीपावली की रात
मैंने हर साल जलाये दीये
किंतु छटा नहीं वह तम
जिसने जकड़ रखा था
मुझे अपनी गिरफ्त में
मैंं दीये बढ़ाती गयी
लेकिन
कम ना हुई उसकी जकड़न
अंधेरे से डरती हूं मैं
मां यह बात जानती है
इसलिए मेरे साथ वो भी
लगातार चलाती रही दीये
लेकिन नहीं छटा अंधेरा
फिर एक दिन दो नन्हें हाथों ने
मेरे लिए जलाए दीये
उसकी दो चमकीली आंखें
किसी भी अंधेरे को चीर सकती थी
आसरा हो गया मुझे
उस अंधेरे से सामना करने का
पर अबकी दीवाली तो
मैंने अभी दीये भी नहीं जलाए
और रौशन है घर-आंगन
जानते हो क्यों?
क्योंकि
तुम्हारे प्रेम का दीया
मैंने जला रखा है मन में
अब नहीं लगता डर
मुझे किसी अंधेरे से
क्योंकि तुम हो साथ मेरे
रजनीश आनंद
29-10-16

दीपावली की रात

जानते हो प्रिये तुम
दीपावली की रात
मैंने हर साल जलाये दीये
किंतु छटा नहीं वह तम
जिसने जकड़ रखा था
मुझे अपनी गिरफ्त में
मैंं दीये बढ़ाती गयी
लेकिन
कम ना हुई उसकी जकड़न
अंधेरे से डरती हूं मैं
मां यह बात जानती है
इसलिए मेरे साथ वो भी
लगातार चलाती रही दीये
लेकिन नहीं छटा अंधेरा
फिर एक दिन दो नन्हें हाथों ने
मेरे लिए जलाए दीये
उसकी दो चमकीली आंखें
किसी भी अंधेरे को चीर सकती थी
आसरा हो गया मुझे
उस अंधेरे से सामना करने का
पर अबकी दीवाली तो
मैंने अभी दीये भी नहीं जलाए
और रौशन है घर-आंगन
जानते हो क्यों?
क्योंकि
तुम्हारे प्रेम का दीया
मैंने जला रखा है मन में
अब नहीं लगता डर
मुझे किसी अंधेरे से
क्योंकि तुम हो साथ मेरे
रजनीश आनंद
29-10-16

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

वो गांठ...

सुनो ना प्रिये
एक बात बताऊं तुम्हें
कुछ दिनों से मेरे
आंचल में कुछ बंधा सा है
मैं रोज देखती हूं उसे
सोचती हूं क्या है इसके अंदर
फिर जीवन की उलझनों में उलझी
देख नहीं पाती उसे
लेकिन मेरा ध्यान है उसपर
अब तो आदत सी हो गयी है उस गांठ की
जैसे जीवन में शामिल कोई
जब अकेली होतीं हूं, तो थाम लेती हूं, उस गांठ को,
भान होता है अकेलापन मिट गया
जब उदास होता है मन और
भींग जाती हैं पलकें मेरी
तो उसी गांठ से पोंछ लेती हूं
अपने छलकते आंसुओं को
लगता है जैसे कहा, उस गांठ ने
मत रोओ, मैं साथ हूं ना
खुश होती हूं तो, दबा लेती हूं उसे दांतों से
कभी तो चूम भी लेती हूं खुशी से
लेकिन जानते हो आज क्या हुआ?
आज जब मैं अपने बागीचे में गयी
तो सहसा मेरा आंचल उलझ गया
गुलाब की झाड़ी से और
खुल गयी वो गांठ...
मेरा जी धक से कर गया,अब क्या!!!
लेकिन जानते हो क्या निकला उस गांठ से?
तुम्हारा प्यार, जिसे संजो कर रखा था
मैंने अपने आंचल में
अहा! मैंने एक बार फिर से समेट लिया है
उसे अपने आंचल में और बांध ली है गांठ
जिसे सीने से चिपकाकर जीना है मुझे ताउम्र.

रजनीश आनंद
28-10-16

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2016

संजीवनी बूटी

क्या मैं बेसब्र हूं प्रिये?
सच बताना, संकोच ना करना
वैसे तुमसे एक मन की बात कहूं?
मुझे ऐसा प्रतीत होता है
कि मैं बेसब्र हूं
जब तुम नहीं बोलते ना मुझसे
और मैं निराश हो जाती हूं
कभी-कभी छलक जाते हैं नयन
और कभी तो क्रोध आ जाता है
कभी सोचती हूं, रूठ जाऊं
ना करूं तुमसे कोई बात
यह संकल्प कर ज्योंही बैठती हूं
तुम सामने आते हो और
कहते हो क्या नहीं बोलोगी मुझसे
बस, टूट जाती सारी प्रतिज्ञा
और मैं फिर करने लगती हूं बकबक
क्या करूं मैं, जो मन मानता नहीं
तभी ध्यान आता है मुझे मीरा का
कितना धैर्य था उस स्त्री में
जिसने आजीवन बुतपरस्ती की
सोचो तो, क्या उसका श्याम
उससे नहीं बोलता होगा?
मुझे तो पूरा यकीन है
वो बोलता होगा, यह बात दीगर है
कि सुना सिर्फ मीरा ने
वैसे जरूरत भी क्या थी
किसी और को सुनने की
मैं भी तो तुम्हारी मीरा हूं
मेरा भी मन करता है
कि मैं करूं तुम्हारा श्रृंगार
तुम्हारे लिए  बनाऊं पकवान
और जब तुम खाओ
तो तुम्हें निहारती रहूं, बड़ा सुख मिलेगा
ए सुनो ना एक बार
चाहे तो ना देना जवाब
पर मैं कहना चाहती हूं
बस एक बार कह दो ना
तुम्हें मुझसे है प्रेम
क्योंकि यही एक शब्द है
जो संजीवनी बूटी है, मेरे जीवन की
रजनीश आनंद
26-10-16

कैसे बचा पाऊंगी मैं ...

मृत्यु पर शोक
जन्म पर खुशी
यही विधान है
लेकिन उस दिन
उल्टी गंगा क्यों बही?
एक अबोध के आगमन पर
जब  देने गयी बधाई
तो पसरा था सन्नाटा
खुशी की कोई पहचान
नहीं थी उपस्थित वहां
हां हल्की सी सिसकी थी मौजूद
आशंका से घिर गया मन
कोई अनिष्ट तो....
नहीं-नहीं मैंने
खुद को हिम्मत बंधायी
और पहुंची उस माता के सम्मुख
जिसकी गोद में थी
जीवन की नयी आस
मुस्कुराती, इस दुनिया को
उम्मीद से निहारती
मासूम का प्यारा चेहरा देख
पूछ बैठी मैं उसकी मां से
इतना सुंदर वरदान मिला
फिर भी क्यों है
तेरी पलकें भींगी
खुश हो कि तुमने
अद्‌भुत सृजन किया
गर्व करो खुद पर
अब तू सिर्फ औरत नहीं मां है
फफक पड़ी वो मां
कलेजे से बच्ची को लगा
कहा, हां मां हूं
इसलिए पलकें हैं भींगी
क्यों जना मैंने एक लड़की
मिले घर वालों के ताने
कहीं कोई खुशी नहीं
सोचती हूं ज्यों-ज्यों
इसकी उम्र बढ़ेगी, बढ़ेंगी इसकी मुश्किलें
क्योंकर मैं बचा पाऊंगी
अपनी लाडो को
इस दूषित समाज से
क्या इसे भी मिलेंगे
बेटी जनने पर ताने?
रजनीश आनंद
25-10-16

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2016

मौन...

कुछ रिश्तों की किस्मत
मौन में सिमट जाती है
हावी हो जाता है
हर भावना पर मौन
शेष कुछ नहीं रहता
तब उठते हैं कुछ सवाल
मन में शिद्दत से
जो खिलखिलाहट थी कभी
क्या वो बनावटी थी?
शायद हां, वरना तो
रिसते जख्मों से भी
आह निकलती है
फिर क्यों हम बुनते हैं
ऐसे रिश्ते जिसमें
 ना तो ‘आह’ है ना ‘अहा’!
है तो सिर्फ और सिर्फ
मौन, मौन और मौन
रजनीश आनंद
20-10-16

जो एक बार कह दो तुम...

तुम और मैं, बनें हम

ना तो सात वचन

ना अग्नि के फेरे

 ना साक्षी समाज 

ना कोई मंत्रोच्चार

लेकिन है विश्वास

साथ हैं हम.

जब आती है सांस

तन में लेकर तुम्हारा नाम

खिल उठता है मन

अंतस से आती है आवाज

तुम्हारी हूं मैं

सात जन्मों तक 

साथ रहे ना रहे

पर इतने का है वादा

जब भरूंगी अंतिम सांस

लेकर तुम्हारा नाम

पास हो या दूर तुम

भींग जायेंगी पलकें तुम्हारी

इतना है प्रेम मेरे मन में

लाख रोकती हूं 

रूकता नहीं सैलाब

बहते हैं आंसू मेरे दृग से

बस इतना है प्रेम निवेदन

इंतजार की रात,

चाहे कितनी भी हो लंबी

मेरी आंखें बंद होने से पहले 

मस्तक को चूम मेरे 

कह देना तुम एक बार

तुम्हारा हूं मैं....

रजनीश आनंद

20-10-16


सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

छोड़ी हुई औरत...

छोड़ी हुई हमेशा
औरत ही क्यों होती?
मर्द क्यों नहीं होता?
क्यों हमेशा यह त्रासदी
औरत के हिस्से रही
दुष्कर्म तो इंद्र ने किया
लेकिन सजा अहिल्या को मिली
परित्यक्ता! सीता क्यों
यह सवाल बेचैन करते हैं मुझे
हां  छोड़ी हुई औरत हूं मैं
लेकिन इसमें मेरा दोष क्या?
मैंने तो हर कोशिश की
तुम्हें खुश रखने की
एक आदर्श पत्नी बनने की
इच्छा-अनिच्छा जताये बिना
बिछी तुम्हारे बिस्तर पर
जो चाहा तुमने वो दिया
फिर भी मुझपर लगा
एक छोड़ी हुई औरत का ठप्पा
खुद पर यह मुहर
ना लगने देने के लिए
कितना तड़पी मैं
कितनी मिन्नतें की
लेकिन तुमने क्या किया
मुझे बना दिया
एक छोड़ी हुई औरत
जो सहज उपलब्ध मानी जाती है सबके लिए
क्या रिश्ते प्रेमवश बनते हैं
मैंने तो इसे स्वार्थवश बनते देखा
फिर भी थामे रखा
रिश्ते की उस डोर को
जो बेमानी थे तुम्हारे लिए
इसलिए नहीं कि रिश्तों में
गरमाहट शेष थी, बल्कि
इसलिए कि कही ना जाऊं
एक छोड़ी हुई औरत
लेकिन कम ना हुआ
तुम्हारा पुरूष दंभ
दंभी पुरूष से यह जवाब चाहती है
एक छोड़ी हुई औरत
कि
जब छोड़ दिया मुझे
तो अधिकार क्यों जताते हो
मैं जागीर नहीं तुम्हारी
एक इंसान हूं
और जानती हूं कि
छोड़ी हुई मैं हूं
लेकिन अभागी मैं नहीं
तुम हो, जिसने समझा नहीं मेरे प्रेम को...
रजनीश आनंद
17-10-16

सच कर दो मेरा ये सपना...

आधी रात को अचानक
कोई  चूमकर मस्तक
जगा देता है मुझे
अंधेरे में चेहरा तो नहीं देख पाती मै
लेकिन प्रतीत होता है
मानो तुम आसपास हो
जानती हूं मैं यह भ्रम है
किंतु करूं क्या मैं
ये तो बता दो?
क्या कर दिया तुमने मुझे?
ज्ञात नहीं, बस इतना मालूम है
कि
अब खुद पर बस नहीं रहा
सीने में एक हूक सी उठती है
चाह होती है थाम कर तुम्हें
जी भर कर रो लूं
खुश हूं मैं, तुम्हारे होने का अहसास है
देखो ना तुम तो नहीं यह अंधेरा ही मुझे
जकड़ लेना चाहता है
अपने बाहुपाश में
और कसती जाती है पकड़
अंकित कर देता है ये
मुझपर तुम्हारे निशान
इस प्रेम आबद्ध के साथ
मैं जीना चाहती हूं
वो सब पाना चाहती हूं
जिसका किया है तुमने वादा
सही है कि तुम्हारे बांहों का घेरा आभासी है
लेकिन इतना सुकून देता है
कि तुम्हारी हो गयी हूं मैं
और इस हक से अनुरोध है तुमसे
कि
सच कर दो ना मेरा ये सपना....

रजनीश आनंद
17-10-16




शनिवार, 15 अक्तूबर 2016

...क्योंकि मुझे जिद है तुम्हारी हो जाने की

हृदय में उठती है
यह कैसी टीस प्रिय
कि सुनकर नाम तुम्हारा
छलक उठते हैं नयन
मैं खुद भी नहीं समझ पाती
कि चलते-चलते साथ तुम्हारे
ये कहां आ गयी मैं
कहना तो बहुत कुछ चाहता है मन
पर इससे ज्यादा नहीं कह पाता
कि
तुम्हारी हूं मैं
जब तुम कहते हो
बताओ अपना हाल प्रिये
तो चाह होती है
कह दूं वह सबकुछ
जो छिपाकर रखा है तुमसे
कैसे बताऊं कि इंतजार में तुम्हारे
मैंने अपने आंचल में छिपा रखा है
तुम्हारे प्रेम मोती को
इस धवल प्रेम की ज्योति को
मानकर साक्षी मैंने
कर दिया खुद को तुम्हारे हवाले
तुम जो दो, जितना दो
सब स्वीकार्य
लेकिन कभी थामकर
देखना मेरे आंचल को
सिर्फ तुम्हारे प्रेम की खुशबू ही मिलेगी
चाह होती है महसूस कर लूं
तुम्हारे बांहों की गरमाहट को
ताकि घेरे में उसके पिघल जाये
मेरा पृथक अस्तित्व, सिर्फ तुम ही तुम रहो
क्योंकि मुझे जिद है तुम्हारी हो जाने की
रजनीश आनंद
15-10-16

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2016

बिना प्रेम समर्पण कैसा?

मैं एक औरत हूं,कठपुतली नहीं
भावनाओं-संवेदनाओं से परिपूर्ण
जिंदगी की जीने की चाह भी है भरपूर
गलत को गलत और सही को सही
कहने का माद्दा भी रखती हूं
फिर क्यों लोग, मुझे बेबस मानते हैं
इज्जत का जामा मुझे पहना
त्याग बलिदान की उम्मीद करते हैं
हमेशा मैं ही क्यों त्याग करूं
मुझे नहीं कहलाना है, सीता-सावित्री
ना अहिल्या ना तुलसी
हर बार छली जाती हूं मैं
नहीं चाहती कोई आदर्श स्थापित करना
अगर अपनी खुशियों को तलाश जीना
चारित्रिक दोष है, तो ठीक है
मैं चरित्रहीन ही सही
पर जीने तो दो मुझे
मैं किसी का अहित नहीं चाहती
ना मांग रही कोई राज्य सिंहासन
बस जीना चाहती हूं,अपनी मरजी से
मैं क्यों करूं अपना शरीर उसे समर्पित
जिससे मुझे नहीं है प्रेम
मेरे शरीर पर तो मेरा अधिकार रहने दो
अगर मैं इतनी बदनसीब हूं
कि
नहीं मिलेगा मुझे कोई प्रेम करने वाला
तो यही सही, लेकिन बिना प्रेम समर्पण कैसा?

रजनीश आनंद
13-10-16

बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

...क्योंकि निरर्थक है किसी से तुम्हारी तुलना

आज मन में उठा यह सवाल तुम मुझे
कितना और किसकी तरह प्रिय हो?
देखा जो चांद को, फीका लगा वो
तुम्हारे सामने, मैंने कहा उससे
नहीं, तुममें नहीं वो बात
जो है मेरे प्रिये में
चांद गुर्राया, कहा
ऐसी क्या बात है उसमें
जो मुझमें नहीं
उसकी नजरों का जादू
नहीं है तुम्हारे पास
तभी मेरी नजर गयी
 नीले विस्तृत आकाश की ओर
सुंदर, अति सुंदर, किंतु
इस विस्तृत आकाश में वो बात नहीं
वो विस्तार नहीं, जो मेरे प्रिये के प्रेम में है
तभी आकाश में छाये काले बादल ने
मुस्कुरा कर कहा, मेरे बारे में
 क्या है तुम्हारी राय?
मैंने कहा, मोहक, मादक
किंतु, मेरे प्रिये की मोहकता और मादकता
तो अद्‌भुत है, तुम में वो बात नहीं
जब देखती हूं उसे तो नेत्र थकते नहीं
भान होता है, अभी तो कुछ देखा नहीं
नशा तो उसके प्रेम में इतना है
कि
बिना स्पर्श के भी मुझे कर देता है मदहोश
महसूस होती है उसकी उपस्थिति
तभी एहसास हुआ निरर्थक है किसी से तुम्हारी तुलना
क्योंकि कोई मुझे तुम सा लगता नहीं
कितना है प्रेम तुमसे प्रिये
ये तो नहीं ज्ञात मुझे
लेकिन मेरी हर सांस पर अंकित है तुम्हारी छाप
अनमोल हो तुम मेरे लिए,
 जिसकी जगह कोई नहीं ले सकता मेरे जीवन में
क्योंकि मुझे है तुमसे असीम और अथाह प्रेम
रजनीश आनंद
12-10-16

शनिवार, 8 अक्तूबर 2016

...लेकिन निष्ठुर तुम आये नहीं

सोचा था मैंने
जब आयेगा ऋतुराज
खामोश लब और
बोलती आंखों के साथ
हम होंगे साथ
खोये रहेंगे एक दूजे में
बनकर अद्‌भुत प्यास
लेकिन निष्ठुर तुम आये नहीं
जब आया ग्रीष्म
तो जागी उम्मीद
एक तुम ही तो हो
जो दे सकते हो
मेरे तनमन को शीतलता
जिसकी सुरक्षित बांहों में
मैं जी लूंगी आंखों को मींचे
और पूरी हो जायेगी हर चाह
लेकिन निष्ठुर तुम आये नहीं
जब दस्तक दिया पावस ने
और पहली बारिश की बूंद ने
चूमा मुझे, महसूस हुई तुम्हारी छुअन
जागी मिलन की आस
लेकिन निष्ठुर तुम आये नहीं
देखो ना बाट जोहते तुम्हारी
आ गया है शरद भी, इसे तो मैंने
पहले ही कर दी  ताकीद
तुम बाधा ना बनना
कोई ऐसा प्रपंच ना करना
कि
मुझे नसीब ना हो
मेरे प्रिय का साथ
मैंने बांह फैलाकर
प्रेम निवेदन भी किया
लेकिन निष्ठुर तुम आये नहीं
अब तो मात्र हेमंत का ही है सहारा
मैंने नतमस्तक हो की है उससे विनती
देखो तुम तो समझो मेरी पीड़ा
हर ऋतु ने छला मुझे
मैं अपने प्रियतम की दीवानी
तरस रही हूं उसके साथ के लिए
उपहास ना करो मेरा
जो तुम्हें हो किसी से प्रेम
तो कसम है उसकी
ला दो ना मेरे प्रिये को सम्मुख मेरे
जो देख लूं एक बार उसका मुख
कुछ और देखने की चाह ना रहेगी शेष
क्योंकि भरोसा है मुझे वो निष्ठुर नहीं
चांद है मेरा और मैं उसकी चकोर
जिसे चाह है उसके प्रेम की....
रजनीश आनंद
08-10-16

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2016

प्रेमपाश

वो डोर कौन सी है
जो दिखती तो नहीं
पर महूसस होती है
जिसने बांध रखा है
मुझे तुम्हारे प्रेमपाश में
अद्‌भुत है इसकी जकड़न
दम घुटता नहीं, बल्कि
मन खिल उठता है
सांस रूकती तो है
पर, जब आती है
तो दमक उठता है चेहरा
हां, जानती हूं मैं यह है
तुम्हारे प्रेम की डोर
थामे इस डोर को
जीना चाहती हूं मैं
कांधे पर तुम्हारे
सिर रखकर बुनना
चाहती हूं सपने
जानते हो प्रिये
कहते हैं लोग
अच्छी नहीं होती
‘अति’ किसी भी चीज की
लेकिन मैं कहती हूं
गलत है ये, क्योंकि
तुम्हारे प्रेम की ‘अति’
तो मनमोहक है
जिसने बांध रखा है
मुझे तुमसे हमेशा के लिए
रजनीश आनंद
10-07-16

मंगलवार, 4 अक्तूबर 2016

क्योंकि मुझे भाती है यह मूढ़ता..

हां मैं मूढ़- अज्ञानी
नहीं समझ सकती
तुम्हारी ज्ञान की बातें
पर क्या करूं जो मुझे
भाती है यह मूढ़ता
जिस प्रकार एक भौंरा
गंवा अपनी आजादी
कैद हो जाना चाहता है
कमल के आगोश में
उसी तरह मैं भी
कैद होना चाहती हूं
तुम्हारी बांहों में ताकि
जब नजदीक से मैं झांकूं
तुम्हारी आंखों में तो
मैं ही मैं नजर आऊं
मैंने पढ़ लिया है उस चेहरे को
जिसे पढ़ना था मुझे
बस, अब कोई और भाता नहीं
सुनो प्रिये मेरे मन की बात
जो तुम ना समझोगे
तो कौन समझेगा
मैंने प्रेम किया है तुमसे
जो ना दे सको प्रेम
तो कोई बात नहीं
पर ये ना कहना दुबारा
कि
पढ़ लो कोई और चेहरा...

रजनीश आनंद
04-10-16