बुधवार, 28 अगस्त 2019

लड़ाकू प्रवृत्ति की हैं ममता बनर्जी, ऐसे लिया था माकपा को बंगाल से हटाने का संकल्प-1

-रजनीश आनंद-

देश की राजनीति में अगर नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ कोई नेता मजबूती से खड़ा है, तो वे हैं ममता बनर्जी. कई ऐसे मामले सामने आये जब बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने खुलेआम प्रधानमंत्री का विरोध किया और वे अपने निर्णय से डिगी नहीं. एक तरह से ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खुली चुनौती दे रखी है कि वे उनका विरोध करेंगी. यहां तक कि फेनी तूफान के वक्त भी ममता दीदी ने केंद्र से मदद की पेशकश को ठुकरा दिया था. वर्तमान में वे केंद्र द्वारा बुलायी जाने वाले किसी बैठक में उपस्थित नहीं होतीं और एक तरह से केंद्र सरकार का बहिष्कार कर रखा. लोकसभा चुनाव के दौरान भी बंगाल में यह स्पष्ट रूप से दिखा कि किस तरह टीएमसी और भाजपा का विरोध है और यह विरोध कई बार हिंसक भी हो जाता है. हालांकि लोकसभा चुनाव में भाजपा ने बंगाल में अच्छी उपस्थिति दर्ज करायी,लेकिन सवाल यह है कि आखिर ममता दीदी विरोध की इतनी हिम्मत कहां से लाती हैं? दरअसल यह लड़ाकूपन उनके व्यक्तित्व का हिस्सा है. जिस तरह से उन्होंने बंगाल में माकपा के खिलाफ लड़ाई लड़ी और उन्हें सत्ता से हटाने का संकल्प लिया लाठियां खाईं, इनसब ने उनके व्यक्तित्व में जूझने की शक्ति को संपोषित किया है. तो आइए जानते हैं कि किस तरह ममता बनर्जी ने राजनीति में शुरुआत की और कितना संघर्ष किया और अंतत: अपनी मातृपार्टी कांग्रेस से अलग होकर टीएमसी का गठन किया.

टीएमसी के नेता सौगात राॅय के जेहन में आज भी वह दिन अच्छी तरह से अंकित है-जब ममता बनर्जी पीजी हाॅस्पिटल के इमरजेंसी वार्ड में पड़ी थीं. उनके सिर से लगातार खून बह रहा था, लेकिन उनके चेहरे पर डर या दर्द नहीं था. सौगात राॅय जब उनसे मिलने आये थे तो उन्हें यह नहीं लगा था कि वे किसी जख्मी महिला को देखने आये हैं, बल्कि उनका सामना एक ऐसी औरत से हुआ जो दृढ़संकल्पित थी और जिसने उस वक्त यह कहा था-मैं इन्हें (माकपा को) देख लूंगी. ममता ने अपने इन शब्दों को अक्षरश: सत्य साबित किया जब वे बंगाल की सत्ता पर काबिज हुईं.  आज बंगाल की राजनीतिक स्थिति में माकपा की हैसियत बस इतनी है कि वह टीएमसी और भाजपा के बाद गिनी जाने वाली पार्टी है.

घटना 16 अगस्त 1990 की है जब कांग्रेस पार्टी ने बंगाल में अपने कुछ साथियों रघुनंदन तिवारी, मानस बनर्जी, विमल डे की पुलिस फायरिंग में हुई मौत के बाद बंद का आयोजन किया था. उस दिन ममता बनर्जी को कांग्रेस के विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करना था, लेकिन ममता बनर्जी को उनकी मां गायत्री देवी घर से निकलने नहीं देना चाह रही थीं. उन्हें  शक था कि उनकी बेटी की जान को खतरा है. लेकिन जब कांग्रेस पार्टी को अपनी ‘फायरब्रांड’ की जरूरत थी उस वक्त वे अपनी मां के आंचल में नहीं छिप सकती थीं, इसलिए ममता ने अपनी मां से झूठ बोला.  उन्होंने कहा कि वे बस पार्टी आफिस में जाकर बैठेंगी और कुछ नहीं करेंगी. उन्होंने मां के पारंपरिक विदाई की प्रतीक्षा नहीं की और घर से निकल गयीं.

ममता बनर्जी को प्रदर्शन का नेतृत्व करना था, लेकिन उन्हें यह नहीं पता था कि यहां कुछ गलत होने वाला है. कांग्रेस के नेता भी प्रदर्शन स्थल तक पहुंच रहे थे. उसी वक्त पीली टैक्सी में माकपा के सदस्य वहां पहुंच गये और पुलिस नदारद थी. ममता ने देखा लालू आलम उनकी ओर लोहे का राॅड लेकर आक्रमण करने के लिए बढ़ रहा था. उसने पुलिस का हेलमेट पहन रखा था. कांग्रेसियों ने ममता को घेरकर बचाने की कोशिश की,लेकिन बचा नहीं सके. ममता डरी नहीं ना वहां से भागने की कोशिश की. परिणाम यह हुआ कि उनपर हमला कर दिया गया. उस वक्त ना तो मीडिया इतनी एक्टिव थी और ना ही सोशल मीडिया का दौर था कि उन क्षणों को कैद किया जाता , जब ममता बनर्जी शेरनी की तरह अपने मोर्चे पर डटी रहीं. लालू आलम ने उनके सिर पर वार किया और ममता के सिर से खून बहने लगा. ममता ने अपने सिर को हाथों से ढंक लिया और फिर वह बेहोश हो गयीं. यह ममता बनर्जी के जीवन की एक कथा है, जो उनकी जीवटता को प्रदर्शित करती है, साथ ही यह भी बताती है कि किस तरह और कितना संघर्ष करके ममता ने बंगाल की राजनीति से माकपा का खात्मा किया.  ममता एक ऐसी नेता थीं, जिनका यह मानना था कि उन्हें अपने साथियों के साथ ही लाठी खानी होगी, ऐेसा ठीक नहीं होगा कि प्रदर्शन के दौरान जब लाठी खाने की बारी आये तो वे अलग हो जायें. सूती साड़ी और हवाई चप्पल में रहने वाली इस कांग्रेसी फायरब्रांड नेता की यह खूबी थी. उन्होंने काॅन्वेंट से पढ़ाई नहीं की और अकसरहां वे बांग्ला भाषा में ही भाषण देती हैं, लेकिन उनकी पकड़ आम लोगों में बहुत खास थी.

1993 में केंद्रीय मंत्री रहते हुए ममता बनर्जी ने मुख्यमंत्री ज्योति बसु के आफिस (राइटर्स बिल्डिंग) के सामने धरना दिया था. वे एक गूंगी-बहरी रेप विक्टिम के लिए न्याय की मांग कर रही थीं, लेकिन सीएम ने उनसे भेंट नहीं नहीं की और वहां से चले गये.  पुलिस से ममता को लालबाजार पुलिस हेडक्वाटर्स में रात भर रोककर रखा. उसी दिन ममता ने यह प्रण लिया था कि वह तक मुख्यमंत्री कार्यालय नहीं आयेंगी जबतक वह लेफ्ट को सरकार से हटा ना दें. तकरीबन 18 साल बाद यानी 2011 में ममता बनर्जी ने राइटर्स बिल्डिंग में कदम रखा. वह दिन था 20 मई 2011 . समय दोपहर एक बजे नीली पाड़ की सफेद सूती में ममता बनर्जी यहां पहुंची थीं अपनी मां का आशीर्वाद लेकर. वह काले सैंट्रो में आयीं थीं.  लेकिन इस मुकाम तक पहुंचने के लिए ममता ने काफी संघर्ष किया. बंगाल के 2011 के विधानसभा चुनाव में ममता की पार्टी तृणमूल कांग्रेस पूर्ण बहुमत से जीती थी और लेफ्ट का सफाया हो गया था.

ममता बनर्जी ने अपने कैरियर की शुरुआत कांग्रेस पार्टी से की थी और वे पार्टी के प्रति पूर्णत: समर्पित थीं. 70 के दशक में उन्होंने महिला कांग्रेस की जेनरल सेक्रेटरी का पद संभाला था. 1984 के चुनाव में वे जाधवपुर संसदीय क्षेत्र से माकपा के वेटरन नेता सोमनाथ चटर्जी को हराकर संसद पहुंची थीं और समय की सबसे युवा सांसद थीं. वे मात्र 29 साल की उम्र में संसद पहुंच गयी थीं. वे राजीव गांधी की प्रिय नेता तो थीं, साथ ही वे राजीव गांधी का बहुत सम्मान भी करती थीं.  1989 के चुनाव में कांग्रेस के विरोध में हवा बह रही थी और इसका नुकसान ममता को भी हुआ, वे चुनाव हार गयीं, जिसके बाद उन्होंने अपनी सीट बदली और दक्षित कोलकाता सीट से पांच बार सांसद चुनीं गयी. वे नरसिम्हा राव की सरकार में केंद्रीय मंत्री भी रहीं. ममता बनर्जी ने रेलमंत्री का पद भी संभाला. लेकिन धीरे-धीरे उनका कांग्रेस से मोह भंग होने लगा क्योंकि केंद्रीय मंत्री रहते हुए भी ममता बनर्जी का झुकाव बंगाल की राजनीति के प्रति ज्यादा रहा. उन्होंने यह आरोप लगाया कि कांग्रेस पार्टी बंगाल में अप्रत्यक्ष रूप से माकपा की मदद करती है, जिसके कारण माकपा इतने सालों से सत्ता में जमी है. ममता प्रदेश से माकपा के शासन का अंत करना चाहती थी, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस उसे बनाये रखना चाहती थी.

ममता बनर्जी प्रदेश की राजनीति की माहिर खिलाड़ी थीं और उन्होंने यह महसूस किया था कि प्रदेश की जनता लेफ्ट की सरकार से निराश हो चुकी है और वह ऐसी सरकार से छुटकारा पाना चाहती है, लेकिन बंगाल में कांग्रेस की राजनीति कुछ इस दिशा में थी कि वह  लेफ्ट को सत्ताच्युत करने की बजाय उसे बनाये रखने में मदद करती थी. उस वक्त पार्टी दो फाड़ हो चुकी थी जिसे ममता हार्ड लाइनर और साॅफ्ट लाइनर बताती थीं. 1992 में ममता ने एक रैली की जिसका निहातार्थ यह था कि बंगाल की जनता का उन्हें समर्थन प्राप्त है. ममता अब अपने विचारों और आइडिया के साथ प्रदेश में आगे बढ़ना चाहती थीं, उनका उद्देश्य प्रदेश से माकपा को उखाड़ फेंकना था, लेकिन यह संभव नहीं हो पा रहा था क्योंकि उन्हें पार्टी के बाॅस रोक रहे थे. इधर राजीव गांधी की मौत के बाद कांग्रेस खस्ता हाल हो चुकी थी. 1996 का विधानसभा चुनाव प्रदेश में कांग्रेस हार चुकी थी. ममता के तमाम विरोध के बावजूद कांग्रेस ने वैसे लोगों को टिकट दिया था, जो माकपा के मददगार थे. कांग्रेस में केंद्रीय नेतृत्व का अभाव भा, पार्टी कई गुटों में ऐसे में ममता बनर्जी ने अपने लिए अलग रास्ता चुना, क्योंकि उन्हें प्रदेश से माकपा को हटाना था, 1997 में ममता ने अॅाफ इंडिया तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की. इस राह में उनके साथ थे मुकुल राॅय.

रविवार, 25 अगस्त 2019

पुरी में बेबस लगे भगवान जगन्नाथ, आस्था का दिखा अद्‌भुत नजारा...


-रजनीश आनंद-

पुरी में समुद्र देखने का रोमांच इतना ज्यादा था कि हम होटल में रूकना नहीं चाह  रहे थे, हम सब बालकनी में आ गये. रिस्पेशन पर चाय के लिए बोल दिया था, जबतक चाय आती हम ताक-झांक के मूड में थे. बालकनी में आते ही समुद्र किनारे बहने वाली हवा ने तन-मन को आनंदित कर दिया. होटल के सामने ढेले पर चाय मिल रही थी और लोग होटलों से निकलकर वहां जमा थे. दूध-चायपत्ती के साथ उबलती चाय. बेहतरीन स्वाद और सुगंध. मेरा ध्यान रह-रह कर उस ओर जा रहा था और कोफ्त हो रही थी  कि होटल वाला चाय लेकर क्यों नहीं आया, जबकि पांच मिनट से ज्यादा का समय नहीं हुआ था. बालकनी के ठीक नीचे से दाहिनी ओर एक गली जा रही थी जहां पर अंग्रेजी में लिखा था- Seabeach this way. सामने दूसरी होटलों की लाइन. उन्हीं होटलों के बीच से एक नारियल के पेड़ के पीछे साफ दिख रहा था समुद्र. जिसकी विशालता का अनुभव 500-600 मीटर से भी सहजता से किया जा सकता था.

बंगाल की खाड़ी का यह  हिस्सा देखने के लिए हम बेचैन थे. तबतक चाय आ गयी थी. जिसे पीने में आनंद तो नहीं आ रहा था. लेकिन गरम थी और सुबह-सुबह फ्रेश होने के लिए जरूरी. बिना उसके प्रेशर फील नहीं होता. चाय का स्वाद तो मैंने पीया आंखों ही आंखों में बालकनी से ले लिया था. बच्चे एक साथ ही ब्रश कर रहे थे. टाॅयलेट वेस्टर्न था तो छुटकू यानी लकी बाबू को बहुत समस्या थी खैर उसे पकड़ कर वेस्टर्न टाॅयलेट में इंडियन स्टाइल में बैठाना पड़ा क्योंकि उसने देखकर कहा कि यह तो दादा का टाॅयलेट है हम इसमें पाॅटी नहीं करेंगे. काफी मान-मनौव्वल के बाद वह माना, क्योंकि घूमने की जल्दी थी उसे.


तो फ्रेश होकर हम समुद्र की तरह भागे, जैसे वह पुकार रहा हो हमें.  जिस ओर सब जा रहे थे हम भी उसी ओर हो लिए. महज 400 मीटर चले होंगे कि समुद्र की गर्जना सुनाई पड़ने लगी, बच्चों के साथ-साथ हम भी उत्साहित. जिस सड़क से हम जा रहे थे, सड़क की दोनों ओर खाने का सामान बिक रहा था. कहीं उरद के बड़े तो कहीं पूरी-सब्जी, ब्रेड आदि. कुछ छोटे-छोट होटल भी थे. इसके अतिरिक्त होटलों में भी रेस्तरां था. मगर हम खाने के मूड में नहीं थे. गली से निकलकर पक्की सड़क पर आये और फिर रेत ही रेत. सुबह-सुबह समुद्र का नजारा बहुत खूबसूरत था. टूरिस्ट भी बहुत थे. बैलून वाले भी दिख रहे थे. हम भागकर किनारे तक पहुंचे. भीड़ थी सब समु्द्र की आती-जाती लहरों का मजा ले रहे थे. सभी के चेहरे पर सुकून दिख रहा था. बच्चों के चेहरे पर मुस्कान थी और हमदोनों बहनें उन्हें देखकर आनंदित. आसपास जो लोग थे वे भी अपने में खोये. दूर से ही महसूस हो जाता था कि अब जो लहर आने वाली है वह कितनी तेज धक्का देगी. लहरें आतीं और भीगाकर चली जातीं. मुंह में उसका नमकीन पानी जाता, तो जिंदगी भी, नमकीन हो जाती, जैसे प्रेमी ने चूम लिया हो और हम सब बैठे उसके दूसरे चुंबन के आवेग का इंतजार करते.  लहर पूरे फोर्स में आती थी, संभलकर ना रहो तो पटक दे आपको. कई बच्चे तो धड़ाम-धड़ाम गिरते थे. कुछ कपल लहर के साथ प्रेम के हिचकोले भी खाते नजर आ रहे थे. उनकी कहानी उनकी नजरें बयां कर देती थीं.

बड़ी शांति महसूस हो रही थी, ना तो बच्चों को स्कूल जाना था और ना हमें आफिस. बस हम सुमुद्र का आलिंगन और उसके बीच मस्ती करते बच्चे. मिकी का खिला चेहरा देखकर बहुत सुकून मिल रहा था. छुट्‌कू शुरुआत में दैत्याकार समुद्र को देखकर डरा था, लेकिन कुछ ही देर में उसका डर जाता रहा और वह मस्ती करने लगा था. दीपांशु भी मजे ले रहा था. बच्चे कभी लेटकर कभी बैठकर लहर का आनंद ले रहे थे. हम भी रेत पर बैठे थे, तभी एक व्यक्ति ने मुझसे कहा-दीदी रोसगुल्ला खाबेन? खूब मिष्टी. एकदोम फ्रेश. समुद्र के नमकीन पानी से भीगा मन मीठा खाने को ना जाने क्यों ललचा गया. मैंने बच्चों की ओर देखा, उन्हें उस व्यक्ति की बात समझ तो नहीं आयी थी लेकिन जब उसने अपने मटके में से थोड़ा मटमैला सफेद सा रसगुल्ला निकाला तो लकी दौड़कर आया बुआ, हम भी खायेंगे. फिर हमने दो-तीन दोना रोसोगुल्ला उस भाईना से ले लिया. ओडिशा में भाई को भाईना बोलते हैं. वैसे दादा खूब चलता है और अगर बांग्ला जानते-समझते हैं, तो बातचीत में कोई परेशानी नहीं है. हमारे रांची के रसगुल्ले से कुछ अलग किंतु स्वादिष्ट. मजा आया खाकर. शायद रांची में बंगा का रसगुा मिता है और यहां ओडिशा का रसगुा था. खैर रसगुे की जंग बंगा-ओडिशा वाड़ते रहें हम तो झारखंडी आदमी, जिसके पूर्वज बिहारी थे और हम खाने के शौकीन हैं, बस भोजन स्वादिष्ट होना चाहिए. रसगुे के िए जीआई टैग की जंग से अपन को कुछ ेना-देना नहीं था. थोड़ी ही देर में बच्चों को भूख लग गयी और हम यह भी प्लान करने लगे कि क्या किया जाये हमारे पास पूरा समय था, घूमने की योजना भी थी.

हम बेमन से समुद्र की आगोश से निके जैसे प्रेमिका निकती है प्रेमी की बांहों से पर एक उम्मीद थी कि कुछ देर में फिर आना है, इसिए बहुत निराशा नहीं हुई. हम बात कर ही रहे थे कि कहां और क्या खायेंगे कि की को चश्मावाा दिख गया, बस वह रेत पर दौड़ने गा, चश्मा चाहिए, चश्मा चाहिए. फिर उसने रंजू से एक चश्मा और एक हैट खरीदवा िया और फिर हम घोष होट में थे. ज्दी में पूरी-सब्जी मि रही थी, तो उसी का आनंद िया और होट के सामने से ही कैब बुक कर िया. कैब वाे पैसा समझते हैं और कहां जाना है यह समझते हैं बाकी बातें ना उन्हें समझ आती है और ना वे समझने की कोशिश करते हैं. खैर हमें भी उनसे इससे ज्यादा बातचीत करनी नहीं थी. हमने पूरी के आसपास के मंदिर और कुछ टूरिस्ट प्ेस देखने की योजना बनायी. 

पूरे एक हजार में कैब वाा तैयार था.  हम जगन्नाथ मंदिर आज जाने वाे नहीं थे क्योंकि अपनी संस्कृति और परंपरा अनुसार हम जगन्नाथ जी के दर्शन खा-पीकर नहीं कर सकते थे. आप जैसे कितने भी प्रगतिशी हो जायें, कुछ चीजें आपके डीएनए में है, जिसे आप चाहकर भी बद नहीं सकते. तो खैर पुरी देखने के इरादे से हम निके. टैक्सी मुख्य सड़क से निककर तुरंत ही हाइवे पर आ गयी. खाी सड़कें. ट्रैफिक का कोई नामोनिशान नहीं. पुरी दरअस जगन्नाथ मंदिर और शीबिच के कारण ही प्रसिद्ध है अन्यथा यह एक छोटा सा कस्बाई शहर है. हमारी रांची झारखंड की राजधानी बनने के बाद से पिछे 19 साों में काफी बद गयी है. माॅ रेस्तरां, होट, स्कू, काॅेज खु गये हैं. ेकिन पुरी तो वैसा शहर भी नहीं जैसी रांची, बिहार में थी. हां एक बात है कि रांची एक ऐसे जगह का प्रतिनिधित्व करती है जो खनिज संपदा से परिपूर्ण है, पुरी के पास यह कमी है. ओडिशा भारत के पिछड़े राज्यों में से एक है, यह बताने की जरूरत नहीं पड़ती है, यह वहां दिखता है. ोगों के आजीविका का मुख्य स्रोत टूरिस्ट हैं. अगर टूरिस्ट ना आयें, तो पुरी की अर्थव्यवस्था भरभरा कर धराशायी हो जायेगी. संबपुरी प्रिंट की साड़ियां ही महिाएं पहनी हुईं दिख रही थीं. चूड़ी की जगह पर बंगाी महिाओं की तरह शंखा-पोा और सिंदूर. हाांकि बंगाी महिाएं खुद को ज्यादा ग्ैमरस तरीके से सजाती-संवारती हैं, उसका अभाव दिखा उड़िया महिाओं में. बंगाी और मिथिांच (बिहार) की महिाओं की यह खासियत है कि वे खुद को अच्छे से सजा-संवार कर रखती हैं.  छोटे से छोटे मौके पर भी वे फिटफाट दिखती हैं.

खैर हम जिस टैक्सी में बैठे थे उसका ड्राइवर बिकु पाग माूम हो रहा था. ऐसा भी संभव है कि किसी पुरुष सदस्य को हमारे साथ ना देखकर वह ज्यादा ही दिखावा कर रहा है. गाड़ी वह 100-110 की स्पीड में चाता और बीच-बीच में कार का दरवाजा खोकर थूकता. उस स्पीड में जब वह कार का दरवाजा खो थूकता तो मन करता था कि एक चपत गा दूं , रंजू मैडम तो डर के मारे जय बजरंग बि का राग अाप रहीं थी और कुछ पूछो तो कोई जवाब नहीं दे रही थीं. मैं समझ गयी उसकी हात खराब है. हम टैक्सी वाे को पेमेंट कर चुके थे, अब उस चूसे हुए आम जैसे चेहरे वाे ड्राइवर को हमें झेना था. एक मन हुआ था कि भुवनेश्वर होकर आते, ेकिन आधे रास्ते से ही मन बद दिया. हमने साक्षी गोपा मंदिर,सोनार गौरंग मंदिर और सुदर्शन म्यूजियम देखा. मंदिरों में किंग शैी का स्थापत्य हर जगह दिखता है. हमें भूख भी गी गयी थी तो एक जगह पर रूककर खाने का आर्डर दिया. हम रांची से ही मन बनाकर गये थे कि पुरी में मछी खायेंगे, सो हम बहनें माछ-भात का आॅर्डर कर बैठी और बच्चे हमेशा की तरह चिकेन-चाव. खैर जैसे ही खाना आया मैं शौक से खाने के िए तैयार हुई. मछी की ग्रेवी में कोई स्वाद ही नहीं आया. साथ ही वह मीठा भी था. मछी भी बहुत कम फ्राई होने के कारण अजीब सा ग रहा था. खैर किसी तरह खा िया और यह सोचा कि हमारे यहां जो सरसों डाकर मछी बनती है, उसका कोई सानी नहीं. बच्चों से पूछा चिकन कैसा है, तो उन्हें तो घूमने की मस्ती में स्वाद का कोई ख्या ही नहीं था. खैर खाकर हम होट वापस आ गये और कुछ देर सोने की योजना बनायी. 

शाम को हम फिर शीबिच पर जाने के िए तैयार थे. शाम को शीबिच का सौंदर्य कुछ ज्यादा ही हो जाता है और एक-दूसरे में खोये ोग किनारे पर बैठे होते हैं. खैर हमारे साथ तो बच्चे थे इसिए हमने श्रृंगाररस को किनारे कर छामुढ़ी पर कंस्ट्रेट किया. बहुत आनंद आ रहा था छामुढ़ी खाने में हम पांचों ने बीस-बीस रुपये का एक-एक िया. दीपांशु रांची से कह रहा था बुआ हमोग वहां पर फिश फ्राई खायेंगे, प्राउन खायेंगे और केकड़ा भी खायेंगे. मैंने कहा चो देखते हैं. कुछ दूरी पर ही ढेे में समुद्री मछी, प्राउन और केकड़े को फ्राई किया जा रहा था, ेकिन ते की गंध ज्योंही नथुने से टकराई दीपांशु बो उठा हम नहीं खायेंगे, कैसा अजीब से महक रहा है. हम नहीं खायेंगे. बड़ा ना बोा तो बाकी दो ने भी सरेंडर कर दिया. फिर हम रसगुे पर टूटे और देर से दोपहर का खाना खाने के कारण हमने डिनर मिस करना ही बेहतर समझा. हां अमूकू पी िया था.

हम शीबिच से होट के िए नौ बजे निक गये, रास्ते पर चह-पह थी. किसी तरह की कोई परेशानी नहीं. काफी टूरिस्ट रहते हैं और टूरिस्ट यहां के ोगों की ाइफाइन इसिए उनके साथ कोई अनहोनी नहीं होती. ेकिन एक चीज जो मुझे थोड़ा खटकती रही थी, वह यहां के ोगों का बोने का तरीका. बड़े ही रफ तरीके से बातचीत करते हैं. फिर मुझे गा कि शायद भाषा बदने से भाषा की नम्रता भी मिस हो जाती है उनकी शायद.  हमारे यहां इतने कठोर स्वर में ग्राहकों से बातचीत नहीं की जाती है.


खैर हम होट आ गये और चैन से सो गये. एसी आॅन था तो राहत थी, क्योंकि मार्च के महीने में भी यहां चिपचिपा मौसम था गरमी थी. अगे दिन सुबह हम मंदिर जाने के िए तैयार थे. मंदिर होट से 10 मिनट की दूरी पर था पर आॅटो वाे ने हमसे 260 रुपये िये. मैंने उससे कहा भी ूट क्यों मचा रखी है भाई? उसपर मंदिर से 100 कदम पहे ही हमें छोड़ दिया. उसने कहा कि आगे जाने पर उससे 50 रुपये िया जायेगा, सो आप ोग पैद ही चे जायें. खैर पैसे देते हुए मैंने उससे पूछा, (क्योंकि वह ठीक-ठाक हिंदी बो और समझ रहा था) यहां के ोगों के आय का स्रोत क्या है? तो उसने कहा सब टूरिस्ट पर निर्भर हैं. खैर हम पती गियों से होकर मंदिर की ओर बढ़े. पुराना बसा इाका. टूटे-फूटे घर और ओडिशा की अर्थव्यवस्था सब दिख रही थी वहां पर. मंदिर परिसर पहुंचते ही एक पंडित जिसे हम देवघर में पंडा कहते हैं, ने हमें अपनी गिरफ्त में ले लिया. कोई पंडा तो चाहिए तो मैंने और मेरी बहन ने आंखों में ही इशारा कर लिया उसने कहा चलो यही सही. वह हमें सामने के बैरिकेटिंग पार कराता हुआ मंदिर के अंदर ले गया और हां इससे पहले उसने एक सवाल दाग दिया था कि आपलोग हिंदू हैं ना?
ुनने में अजीब सा गा, पर यह हमारे समाज की सच्चाई की है कि भगवान के घर में भी जाति-धर्म पूछकर उसके तथाकथित नुमांइदे आपको प्रवेश की इजाजत देते हैं. हाांकि यह व्यवस्था अब कुछ सीमित जगहों पर ही है , ेकिन दुर्भाग्य कि यह है और आप इससे रूबरू भी हो सकते हैं. यह खामी सिर्फ हिंदुओं में है, ऐसा भी नहीं है. इस्ाम, ईसाइयत सब में आपको इस तरह की व्यवस्था मिेगी जहां आप दूसरे धर्म के होने के कारण भगवान से भी दूर किये जा सकते हैं.  यहां मोबाइ फोन और चप्प आदि बाहर रखने की व्यवस्था थी. मेरा फोन नया था मात्र दस दिन पुराना, पूरे 14 हजार देकर िया था किस्तों में तो मन नहीं कर रहा था कि फोन जमा करूं, ेकिन उपाय नहीं था क्योंकि मोबाइ के साथ पकड़े जाने पर भयंकर जुर्माना था शायद पांच हजार. सो बेमन से मैंने फोन जमा किया. मंदिर परिसर में दाखि होते ही पहे वाे पंडे ने हमें दूसरे पंडे के हवाे कर दिया. वह हमारा सामान्य ज्ञान मंदिर को ेकर बढ़ाते हुए अंदर े गया, जहां उसने हमें प्रसाद खरीदवाया. हमने 101 रुपये का प्रसाद िया. वही खाजा मुरी वगैरह. अब उसने शुरू की अपनी बात, आप पांच ोग हैं जगन्नाथ जी को केव इतना ही प्रसाद चढ़ायेगा. ठाकुर क्या सोचेगा बोो? सबको अपने हिस्से का प्रार्थना करना पड़ता है इसिए सब प्रसाद ो. मैंने कहा नहीं ेना है. प्रार्थना सब अपने हिस्से का कर ेंगे. उसने जीवन तर जाये इसके िए काफी हुज्जत ही, ेकिन हम तो भगवान को बाबूजी मानने वाों में से हैं, सोचा अपने बाप से मिने के िए मुझे पंडों से वकात करनी पड़ रही है, ेकिन प्रसाद तो हम और नहीं ेंगे नाराज हो जायें जगन्नाथ तो हो जायें, उन्हें तो पता है कि हमारे पाॅकेट में पैसे कितने हैं. मन में कहा जय जगन्नाथ और 101 रुपये का प्रसाद ेकर ही च पड़े. पिछी दफा जब आयी थी तो पंडों की मनमान थी खास भोग के िए हमसे 1500 रुपये िया था, पर इस बार ओडिशा सरकार इस काम को कर रही थी, तो 51 रुपये से 5000 रुपये तक कूपन दिया जा रहा था जितना सामर्थ्य हो ें. यह व्यवस्था अच्छी गी अंतत: पंडा हार गया और नाराज होकर कहा चो अपना कर्म जानो. हम उसके साथ च दिये. अब उसने हमें मंदिर के अंदर तीसरे पंडे के हवाे किये और 51 रुपये हमसे ेकर च दिया. शायद वह जान गया था कि हमारी औकात इतने की है. तभी ऊू ध्वनि सुनायी दी. बंगाियों को शुभ अवसर पर ऐसी ध्वनि निकाते सुना है. जगन्नाथ का मंदिर परंपरानुसार नतमस्तक हो गये हम. पुजारी 20-21 सा का रहा होगा. उसने हमसे प्रसाद िया और भगवान को चढ़ाने चा गया. हम बाहर निवेदन प्रार्थना में थे. पांच मिनट में वापस आ गया, कहा-अभी जगन्नाथ जी को भोग ग रहा है कुछ देर में द्वार खुेगा तो दर्शन कर ेना. हम सामने से देख रहे थे, द्वार बंद था. भक्ति में डूबे कई भक्त प्रार्थना करते कभी-कभी भावुक होकर रोते. कई जय जगन्नाथ का नाद करते तो कभी ऊू ध्वनि करते. अद्‌भुत वातावरण. ईश्वर का अस्तित्व है चाहे नहीं है, पर यह वातावरण और आस्था अद्‌भुत. बिकु शांत सुकून देने वाा वातावरण. पत्थरों से बना यह मंदिर किंग शैी का अनोखा उदाहरण. पर अभी भी मंदिर काफी मजबूत दिखता है. हम जगन्नाथ जी के दर्शन के िए इंतजार में खड़े थे, तभी आठ-दस ड़कों का ग्रुप आया, सभी तिकधारी, नयी ऊर्जा से परिपूर्ण भगवाधारी. एक पंडे को चाटना शुरू किया. यह मंदिर कब बना है? किसने बनवाया है? उनके सवा से ही समझ आ रहा था कि बिहार से हैं. पुजारी चुप. अब उनका जवाब सुनिए. कब से पूजा कराते हैं यहां. बचपन से. यह कहकर पुजारी कट िया. अब ये चर्चा कर रहे हैं-साा बचपन से पूजा कराता है और पता नहीं कि मंदिर किस राजा ने बनवाया.साे ढोंगी. वैसे इतिहास के अनुसार इस मंदिर का निर्माण कार्य किंग के राजा अनंतवर्मन चोडगंगदेव ने 1148 में शुरू करवाया था, जिसे 1197 में राजा अनंग भीम ने पूरा करवाया. काफी विशा मंदिर 20-25 फीट ऊंची छत. बीच-बीच में जय जगन्नाथ का घोष ध्यान भंग कर रहा था. आधे घंटे खड़े रहने के बाद दर्शन शुरू हुआ. पंक्तिबद्ध होकर आराम से दर्शन संभव था. ेकिन एक क्रियेटेड हंगामा. अफरा-तफरी. मेरी बहन भीड़ से घबराती है. तो हम च दिये उसी भीड़ में महि़ा पुिस भी मौजूद थी जो भीड़ को नियंत्रित कर रही थी. भगवान तक पहुंचने में मशक्कत काफी बच्चों को संभाना. खैर दर्शन हुए भगवान के. मोहक कान्हा का बारूप नहीं है यहां. अर्द्धनिर्मित मूर्ति जिसे आप ठीक से देख भी नहीं पायेंगे और भीड़ आपको धके देगी. मन में बस एक ही बात था जगन्नाथ क्याण करना. इसके अतिरिक्त कुछ नहीं, क्योंकि वहां से सुरक्षित निकना सर्वापरि था. बाहर निक आये तो जान में जान आयी. सबसे पहे बच्चों को देखा, सब ठीक-ठाक ना. सब ठीक था. शांति मिी, जगन्नाथ ने बचा िया वरना उनके अंधभक्त जान ें. बाहर आये तो मोबाइ की याद आ गयी. ज्दी से वहां पहुंचे. पूजा कराने के बाद पंडे कहां गायब हो जाते हैं ना माूम. इसिए मोबाइ ढूंढना था. ढूंढ़कर उस जगह पहुंचे और मोबाइ वापस िया, तो जान में जान आयी. फिर चप्प और फिर बच्चों को ग गयी भूख. मंदिर प्रांगण से निकते वक्त एक जगह पर भोग का अंबार गा था जिसे पैसे ेकर दिया जा रहा था. भगवान माफ करें पर वे जिस तरह से बेचे जा रहे थे, उन्हें ेने का मन नहीं हुआ. चाव, खीर यही सब था. हमने एक साफ-सुथरी जगह देकर खीर के िए पूछा-कुड़ी टका में एक दोना पायस. मतब 20 रुपये में खीर. खैर मैंने एक िया. भगवान का डर गता है भाई. चखा तो नमकीन सा था. खैर उसे खाकर हम सब तर गये और भगवान से कहा, जय जगन्नाथ क्याण करो. बाहर निके . बच्चे भूख से बिबिा रहे थे. खैर हमने कुछ जगह पर भोजन ताशा पर मिा नहीं. 

अंतत: वहीं आ गये जहां भोजन कर रहे थे. हमने थाी पूछा और जानना चाहा उसमें क्या होगा, तो वेटर ने बहुत अच्छे से समझाया. यहां बंगाी स्टाइ का थाी मिेगा. सब्जी में मीठापन होगा, चाहे फिश करी भी खायें. हम मछी को चीनी के साथ नहीं खाते, तो हमने एगकरी और चाव खाना बेहतर समझा. खा िया आनंद आया. मीठी सब्जी से बेहतर था. फिर समुद्र पर गये. हरों का आनंद िया. बच्चों ने ऊंट की सवारी की. मैं रेत पर बैठी यह सोच रही थी कि मंदिर में सिर्फ हिंदुओं को प्रवेश क्यों? मन आहत था. सोचा पहे तो दितों को भी मंदिर में प्रवेश नहीं मिता था आज उनकी तकीफ का अंदाजा हुआ. माूम हुआ कि भुवनेश्वर के िंगराज मंदिर में भी धर्म पूछकर इंट्री मिती है, तो बहुत अफसोस हुआ. कुछ देर समुद्र किनारे आनंद ेकर हम वापस होट आ गये. शाम को सात बजे होट से चेकआउट कर गये, क्योंकि रात की ट्रेन थी. ट्रेन में बैठकर हमने खाना आर्डर कर दिया, जो हमें भुवनेश्वर में मिा और फिर हम ौट चे अपनी रांची की ओर. जगन्नाथ से यह प्रार्थना करते कि हे ईश्वर तुम तो सबसे प्रेम करते थे और गीता में कहा भी है तुमने कि चाहे जड़ हो या चेतन उसमें मेरा अंश है, फिर तुम्हारे द्वार पर यह भेदभाव क्यों? प्रभु मिटाओ यह सब, ेकिन जवाब नहीं मिा, शायद इंसानों ने भगवान को अपनी गिरफ्त में िया है और भगवान भी बेबस है....


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