सोमवार, 29 जुलाई 2019

पुरी यात्रा संस्मरण-1 : छोटा सा शहर, जहां पहुंचते ही गूंजता है जय जगन्नाथ का स्वर, होटलों की है भरमार

पत्रकारिता जगत में डेस्क पर काम करने वाले जब छुट्‌टी पर अपने शहर से कहीं बाहर जाते हैं, तो उनके लिए वह पल बहुत खास होता है. खबरों में जीने की आदत से निकलकर कुछ दिन उससे इतर जिंदगी बहुत रास आती है, तो हमने भी तय किया कि कहीं एक-दो दिन की छुट्टी मार लेते हैं और देखते हैं कि राजनीति, क्राइम और आंकड़ों से इतर जिंदगी कैसे दिखती है. बस इसी चाह में मैं अपने बच्चों और बहन के साथ पुरी की यात्रा पर निकली.

पुरी जाने का हमारा कोई धार्मिक कारण नहीं था, बस रांची से पास में है, ट्रेन की कनेक्टविटी सही है और सबसे बड़ी बात कि वहां समुद्र है. हालांकि दूरी बहुत कम भी नहीं है, झारखंड-बिहार के लोगों की तरह कहें, तो यह पटना की तरह बगल में नहीं है भाई-689 किलोमीटर की दूरी है. यह बात अलग है कि शाम को चार बजे की ट्रेन पकड़ो तो अगले दिन सुबह सुबह पुरी में. प्लान तो बन गया पुरी जाने का लेकिन असल समस्या यह थी कि जाने के लिए पैसे कम थे. एसी थ्री का टिकट बनाना और हम पांच जने थे. बच्चे बड़े हो गये हैं, तो उनका टिकट भी लेना होगा, सो इस चक्कर में हमने सोचा कि क्यों ना स्लीपर में चला जाये. वैसे भी मार्च का महीना है बहुत गरमी नहीं लगेगी सो टिकट बना लिया. चार टिकट लिया, क्योंकि मेरा छोटा भतीजा अकेले सोता नहीं बर्थ से गिरने की आशंका बनी रहती है.

खैर हम टाइम से स्टेशन पहुंच गये. ट्रेन लगी हुई थी. हिंदी, अंग्रेजी और उड़िया में तपस्विनी एक्सप्रेस लिखा था. उड़िया पढ़ना नहीं आता, पर इतनी तो समझ तो सबके पास है कि क्या लिखा हो सकता है. वैसे भी लिपी की रूपरेखा से स्पष्ट है कि यह उड़िया भाषा है. नीचे की सीट हमारी नहीं थी, लेकिन एक ही जगह चार सीट हमारी थी सो हम जम गये बर्थ पर. आखिर किसी जमाने में ट्रेन अपने बाबूजी की हुआ करती थी और वह फीलिंग जोर मार ही देती है, जब भी स्टेशन और ट्रेन को देखती हूं, वह भी हटिया स्टेशन पर तो कुछ कहना ही नहीं है.  कुछ देर में एक साहब आये, अपना बर्थ नंबर ढूंढा और मेरी बहन से कहा, मेरी सीट है. असल में हमारा बच्चा विंडो सीट पर बैठा था. मेरी बहन ने बच्चे को वहां से हटने के लिए कहा. साहब हमें ऐसे देख रहे थे, जैसे हम कुछ अलग प्रजाति के हों और वे इंसान हैं. खैर हम दोनों ने एक दूसरे को देखा और मुस्कुरा दिये.

अब भी कुछ मिनट ही हुए थे कि साहब ने समान रखने वाले टेबल पर अपनी किताबें रखना शुरू किया. एक नहीं कई, फिर पानी का बोतल भी मानो वहां पर की छह की छह सीटें उनकी ही हैं. मेरी बहन ने मेरी ओर शिकायत भरे लहजे में देखा मैंने भी उसे चुप रहने का इशारा किया, तब तक भैया-भाभी आ गये पानी की बोतल और कुछ खाने का सामान लेकर. मेरी बहन को मौका मिल गया, उसने भी ट्रेन वाले भाई-साहब के अंदाज में सारा सामान उस टेबल पर लबालब कर दिया, जो जगह बची थी. उसके इस अंदाज पर भाईसाहब ने खिसिया कर हमारी ओर देखा. कुछ देर में ट्रेन खुल गयी और नीचेे की दोनों बर्थ के पैसेंजर भी आ गये. मतलब सीट फुल. छह लोगों की सीट और हम सात थे. हिचकोले खाती हुई ट्रेन आगे बढ़ी तो मन प्रसन्न हो गया.

रांची से राउरकेला का सफर तीन-साढ़े तीन घंटे का और इस दौरान जो खास चीज देखने को मिलती है, वह स्थानीय फलों का ट्रेन में बिकना. पपीता और बेर का मौसम था इसलिए कई महिलाएं ट्रेन में पपीता बेच रही थीं. महिलाएं जितना इस रूट में सामान बेचने का काम करती हैं, वैसे कहीं और देखने को शायद ना मिले. झारखंड की मेहनती महिलाएं. यहां जामुन, आम, केंद और बेर जैसे जंगली फल देखने को खूब मिलते हैं. दस-दस रूपये में लीजिए मन भर खाइए. साथ में कुछ 18-20 साल की लड़कियां मूंगफली भी बेच रही थीं, वैसे भी हम तय करके चले थे कि आनंद मनाना है और जो कुछ भी बेचने को आये उसे खाना है, हाइजिन गया तेल लेने. सो जो कुछ भी आता, बच्चे आंखों में संवाद करते और फिर आंटी ये कितने का दे दीजिए. अपन तो बस पैसे देने वाले थे. मैं और मेरी बहन ने खूब चेंज लिया था. वैसे भी इन दिनों सिक्के खूब हैं मार्केट में तो चेंज की कोई दिक्कत नहीं है. ट्रेन को गंदा करना हमने कभी नहीं सीखा इसलिए पूरा कूड़ा जमाकर करके डस्टबिन में डाला हालांकि आदतन लेोग गंदा करते हैं तो वे कर रहे थे और हमारे बच्चे सवाल कि वे ऐसे कचरा क्यों फेंक रहे हैं, वगैरह-वगैरह. मैंने आंख दिखाकर उन्हें चुप कराया.

किताब वाले भाईसाहब को काफी दिक्कत महसूस हो रही थी, क्योंकि बच्चे इधर-उधर करते और हल्ला भी. उनकी चेहरे-मोहरे से स्पष्ट था कि वे उड़िया आदमी हैं. जो भी बोलते बड़ा कठोर होता और हमारे बच्चों को ऐसे घूर रहे थे मानो मौका मिले तो चपत लगा दें. लेकिन हम भी कम नहीं है तैयार ही बैठे थे, बोलिए तो जनाब जरा कुछ अभी बताती हूं कि हम किस मिट्टी के हैं. खैर उन्होंने सरेंडर कर दिया और मुझसे कहा, अभी आपलोगों को सोना है क्या मैं ऊपर वाली सीट पर जाना चाहता हूं, मैंने कहा जाइए. वे ऊपर जाकर शांति से थे और हम विंडो सीट पाकर. अपना झारखंड उसकी धरती, जंगल, पहाड़ी जानवर देखते हम आगे बढ़ रहे थे. कभी खाने को कुछ आता और हम उसे ले लेते कभी ऊंघते कभी बच्चों को ताकीद करते हाथ बाहर नहीं नुिकालो. वगैरह-वगैरह. स्मार्टफोन का जमाना है, तो कभी काॅल आया तो कभी मैसेज. हम सुकून में थे, इस अहसास से की हम घूमने जा रहे हैं.

रात होते ही चांद हमारा पीछा करने लगा, ट्रेन की खिड़की से झांकता अपनी रौशनी बिखेरता, थोड़ा बतिया भी लिये हम उससे. फिर किसी की कही ये बात याद आयी कि जिस चांद को मामा कहते हम सब बड़े हुए वह पता नहीं युवावस्था में प्रिये या प्रेयसी कैसे हो जाता है? पता नहीं हंसी भी आयी, पर बात में दम है इससे इनकार नहीं किया जाता सकता. सुबह ट्रेन छह ही पुरी पहुंच गयी, कोई सात सवा सात बज रहा होगा.
स्टेशन पर कदम रखते ही ज्ञात हो गया कि आप जगन्नाथ नगरी में हैं, जहां अभिवादन का स्वर जय जगन्नाथ से शुरू होता है. ट्रेन से उतरते ही होटल के एजेंट, आटो वालेे टैक्सी वालेे और गाइड आपके साथ हो लेेगे. टूरिक्ट प्लेेस दिखाने की गारंटी महाप्रसाद की गारंटी और भगवानग जगन्नाथ के दर्शन की गारंटी वे देते हैं. हाथ में तसवीर लिये वे उड़िया-हिंदी में अपनी बात समझाते हैं. स्टेशन पर भी लेिखा है भगवान जगन्नाथ की नगरी में स्वागत है. कहने का आशय यह है कि पुरी की एक ही पहचान है भगवान जगन्नाथ की नगरी. लेेकिन इस नगरी में वैभव नजर नहीं आता है.  हम रांची से ही होटल की बुकिंग करके चले थे, इसलिए आटो वालों के आग्रह पर चल दिये उनके साथ.


 कोई सौ-दो सौ मीटर गये होंगे कि एक बाइक वाले से आटो की टक्कर हो गयी. बाइक पर दो लोग सवार थे उड़िया में पिल पड़े आटो वाले के ऊपर. आटो वालों कुछ सफाई दे रहा था मानो उसकी गलती नहीं थी. वह बहुत बोल रहा था इसलिए ठीक से बता समझ नहीं आ रही थी पर इतना समझ गयी कि वह कह रहा कि मैं तो सही ही मोड़ रहा था आप बीच में आ गये, पर बाइक सवार मान नहीं रहे थे. कोफ्त हो रही थी क्योंकि हमें होटल जाने की जल्दी थी पर वे दोनों आपस में भिड़े हुए थे मैं आटो वाले से जल्दी चलने के कहने ही जा रही थी कि मेरा छोट भतीजा बोल पड़ा -हे भगवान कैसी जगह पर आये हैं, जहां लड़ाई भी अलग भाषा में हो रही है. उसकी बात सुनकर हंसी पर कंट्रोल ही नहीं रहा और हम सब हंस पड़े हमारी हंसी से शायद आटो वाले को कुछ राहत हुई और वह बहस छोड़ चल पड़ा. पुरी की मुख्य सड़क से होकर जा रहे थे. जिलाधिकारी का कार्यालय दिखा. सुबह का समय था सड़कें पूरी खाली कुछ आटो और दुपहिया दिख रहे थे, जो यह बता रहे थे कि आबादी कम है इसलिए ट्रैफिक जाम की समस्या नहीं मिलेगी. कारें बहुत कम दिख रही थीं, जो इस बात को मजबूती दे रही थीं कि ओडशा देश के गरीब राज्यों में से एक है. मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के होर्डिंग दिखे जिसपर उड़िया में कुछ लिखा था, पढ़ने की आदत तो है पर इस लिपी से अनजान थी तो यह समझ लिया कि किसी सरकारी कार्यक्रम का प्रचार होगा. हां एक बात देखने को मिली जो रांची जैसे शहर में नहीं दिखती वह थी होटलों की बहुतायत. हर रास्ते पर होटल और टूरिस्ट को लुभाने के लिए मैसेज. साथ ही हर चौक-चौराहे पर भगवान जगन्नाथ का मंदिर. छोटे से छोटे मंदिर में भी कलेिंग शैली की स्थापत्य कला नजर आती है. हमने  ‘शीबिच’ के करीब होटल बुक किया था, स्टेशन से महज 15-20 मिनट में हम होटल में थे. बाहर से तो आम होटल की तरह ही था, लेेकिन कमरा सुंदर आकर्षक. एसी रूम था इसलिए राहत महसूस हुई, क्योंकि उतनी सुबह भी पुरी में अजीब सी चिपचिपी गरमी, जिसकी आदत रांची के लोगों को नहीं है. बच्चे बेचैन थे समुद्र को देखने के लेिए तो बस अब बारी थी फ्रेश होकर रूम से निकलने की.  धार्मिक दृष्टिकोण से देखें तो हम हिंदुओं के चार धामों में से पुरी धाम में थे, इसके अतिरिक्त अन्य धाम हैं बद्रीनाथ, द्वारिका और रामेश्वरम.

सोमवार, 8 जुलाई 2019

प्राथमिकता बदलो

मैं बेचैन रहती हूं तबतक
जबतक,  नहीं लिख लेती
कोई आलेख, कविता
डरती हूं, कलम निकालते
अकसर मैंने पाया जब नहीं होता
सृजन कोई मेरी कलम से
वह आंखें तरेरती है
उलाहना भी देती है
मैं चाहे जितनी से
बंद कर लूं अपने कान
स्पष्ट आवाज आती है
मेरी डायरी के साथ चिपकी
मेरी कलम नजर रखती है
मेरे उन पलों पर,  जब मैं
करती हूं कोताही, बनाती हूं बहाने
चौबीस घंटे तो सबके लिए है,
गालिब शेक्सपियर,  महादेवी
इन्हीं घंटों में पनपे, उन्होंने तो नहीं गिने घंटे
रचना के लिए समय, नहीं समर्पण चाहिए
कलम कहती है होकर वाचाल
प्राथमिकता बदलो, यह दुनिया बहुत हसीन है...

रजनीश आनंद