बुधवार, 27 सितंबर 2017

क्योंकि जरूरी है छूटना भी...

जब कुछ छूटता है
तो दर्द होता है क्योंंकि
हम बना चुके होते हैं
उस छूटते से एक रिश्ता
रिश्ते की डोर को थामने की चाह
कई बार बलवती भी होती है
जैसे बाढ़ में सामने से बहकर
जा रहा हो अपने घर का
कुछ खास सामान हाथ ना आये
छूटने का दर्द इतना मानो
जिंदा शरीर से काटा जा रहा हो
मांस का लोथड़ा.
फिर रिसता है दर्द
बहता है खून आंखों से
लेकिन रूको, जरा सोचो
कितना जरूरी था ,
मांस का वह लोथड़ा?
क्योंकि कई बार छूटना भी
जरूरी होता है जीवन में...

रजनीश आनंद
27-09-18

शनिवार, 23 सितंबर 2017

इस नवरात्रि यही संकल्प...

मैं एक पत्रकार हूंं, इसलिए खबरें लिखती हूं, ताकि वह खबर आम जनता तक पहुंचे और वह अपने आसपास हो रही घटनाओं से अवगत हो सके. डिजिटल मीडिया में हूं, इसलिए खबरों को जल्दी से जल्दी पाठकों तक पहुंचाने की हड़बड़ी होती है. खबरें एक पत्रकार के लिए प्राणवायु हैं, उसकी नसों में दौड़ते लहू  के समान. लहू ( खबरों) का संचार बंद, तो पत्रकार 'डेड' हो जाता है. इसलिए पत्रकार खबरों से रोमांचित होता है,  लेकिन कई बार दुर्घनाएं भी होती हैं, लोग शोक में होते हैं. उस वक्त भी सूचनाएं पूरी जिम्मेदारी से आम जनता तक पहुंचाना पत्रकार का दायित्व है. ऐसे वक्त वह कमजोर नहीं पड़ता भावनाओं को नियंत्रित करता है, अन्यथा रोना तो पत्रकारों को भी आता है. आंसू उसकी आंखों में भी सूखे नहीं.
खबरों से पत्रकार थकता नहीं, लेकिन विगत कुछ दिनों से लगातार आ रहीं बलात्कार , यौन शोषण की खबरें मुझे थका रही हैं. हर दिन देश-राज्य से ऐसी इतनी खबरें आती हैं कि क्या लिखूं?कैसे लिखूं? कभी चार साल की बच्ची पीड़िता तो कभी नाबालिग. कभी 35-40 की महिला तो कभी 50 की. इतनी तकलीफ होती है खबर लिखते, क्या महिलाओं को कभी अपने शरीर पर भी अपना हक मिलेगा? या वह यूं ही रौंदी कुचली जाती रहेगी? महिलाओं के खिलाफ हिंसा थमने का नाम ही नहीं ले रही है, यह सिलसिला कब थमेगा यह बड़ा सवाल है, कभी-कभी तो इतनी खीज होती है कि अंतरात्मा चीख कर कहती है- अरे शोहदों मैं खबर लिख-लिखकर थक गयी और तुम कैसे इंसान हो कि  कुकर्म करते नहीं थकते? फिर सोचती हूं थकना नहीं है थक गयी , तो यह अपने डैने और फैलायेंगे मुझे तो पत्रकारिता के हथियारों से इनके डैने तोड़ने हैं ताकि कोई महिला किसी गिद्ध का शिकार ना बनें और कोई उसे नोंच खाने की हिमाकत ना करे. इस नवरात्रि यही संकल्प.

रजनीश आनंद
23-09-17

शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

धूसर आंखें

जब भी मैं देखती हूं
झुकी कमर,धूसर आंखें
लड़खड़ाते कदम, कांपते हाथ
बेचारगी नहीं पनपती ,
मन खो जाता है
अतीत के गड्ढे में
दुपट्टे से साफ करती हूं गढ्ढे को
तो धुंधली सी नजर आती है
एक खुशहाल दुनिया
आज जो आंखें धूसर हैं
उनमें संघर्ष की आग थी
झुकी कमर तन कर पड़ी थी
आग पर तवे की मानिंद
और परोस रहीं थीं
नर्म, मुलायम, गर्म रोटियां
उफ्फ!!  की आस में गड्ढे की
मिट्टी को थोड़ा और हटाया
लेकिन बेकार थी कोशिश
सहसा मैं भागी,चूम लिया
कांपते हाथों को
सहारा देने के लिए नहींं
जज्ब करने के लिए
उन कांपती हाथों की मजबूती
मैं सैल्यूट करन चाहती हूं
उस धूसर आंखों वाले व्यक्तित्व को....

रजनीश आनंद
22-09-10



शनिवार, 16 सितंबर 2017

यादों की लकीरें

यादों की लकीरों में
हर वक्त कुछ अच्छा
खिंचा हो जरूरी नहीं
कई बार लकीरें
गलत भी खींच जाती हैं
इंसान चाहकर भी उन
लकीरों को डस्टर से
मिटा नहीं पाता
लेकिन जरूरी नहीं
उन लकीरों को
लक्ष्मण रेखा बनाने की
अपने जीवन में यादों की
गलत खींची लकीरों को
शिलालेख पर खिंची लकीर
बना उसे मिटाने के लिए
शिलालेख पर हथौड़ा
चलाना बेवकूफी है
गलत लकीरों को ऐसे मिटाएं
जैसे ब्लैक बोर्ड पर
लिखे को डस्टर मिटाता है
बिना कोई निशान छोड़े
नयी मीठी और सच्ची लकीरों के लिए...

रजनीश आनंद
16.09-17

शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

पीछा करते अनगिनत सवाल

मैंने देखा था
उस बच्ची का दर्द
जो शिकार बनी थी
हैवानों की भूख का
पिल पड़े थे
एकसाथ छह-सात
नोचने-बकोटने को
शरीर घायल
मसली-कुचली
नन्हीं जान, सिसकती
कोमल अंगों से रक्तस्राव
बेसुध,बदहवास
किंतु आंखों में कई सवाल
सवालों से बचती मैं
ढांढस मात्र दे आयी
लेकिन, अनगिनत सवाल
पीछा कर रहे थे मेरा
सहमति, असहमति का पेंच
तो कसा जा सकता है महिलाओं पर
लेकिन अबोध बच्चियां
जिनके अंग भी खिल ना सके थे
उन्हें रौंदने का तर्क
क्या देगा यह समाज?
बलात्कार के बाद मार दी गयी
बच्चियों के शव पर आंसू
बहाने तो सब आते हैं
बलात्कारियों को रोकने कोई नहींं
क्यों?
आखिर वे भी तो इसी समाज का हिस्सा हैं
आकाश से तो नहींं टपकते बलात्कारी?

रजनीश आनंद
15-09-17

शनिवार, 9 सितंबर 2017

हंसी तुम्हारी सुंदर रंग...

चांदनी रात में
दूर पहाड़ी पर
अकेले बैठ तुम
बुनते हो सपना
भविष्य का मीठा
देखा मैंने आकाश
चादर को सजे
गुलाब, गेंदा,पलाश से
चमकीले मानों ऐसे
जैसे ध्रवतारा.
लेकिन मैं खिंचना
चाहती हूं खाका
हमारे भविष्य का
अहा! बताऊं प्रिये कैसे?
तुम्हारी पीठ होगी कैनवास
हंसी तुम्हारी सुंदर रंग
बातें तुम्हारी बनेंगी ' स्पार्कल'
मेरे होंठ बनेगे इंतज़ार
देखो ना प्रिये ,पीठ पर
तुम्हारे उतर आया है
चांदनी रात का आकाश...
रजनीश आनंद
09-14-17

मंगलवार, 5 सितंबर 2017

आंसुओं का कटोरा

जब उस रात
नाराज हो तुम
चले गये थे झटक
दामन मेरा
मैं तकिये में मुंह
छिपा रोई नहीं
आंसुओं को कटोरे में
समेट उछाल दिया
आसमान की ओर
देखा मैंने
आंसुओं की हर बूंद
चिपक गयी सितारों से
और हर सितारे की चमक से
झड़ रहीं थीं तुम्हारी मीठी बातें
मैं भागकर गयी बाहर
और जमा किया
उन बातों को एक बाल्टी में
पूनम की रात थी
तुम नहीं पर चांद
मुस्कुराया मुझे देख
मैंने उसके सामने ही
बातों की बाल्टी से
एक-एक मग प्यार के
निकाल खुद को नहला
दिया उस मीठे जल से
चमक उठा मेरा बदन
क्योंकि लिपटा था
वह तुम्हारी मीठी बातों
के आलिंगन में सिर से पैर तक...

रजनीश आनंद
05-09-17



सोमवार, 4 सितंबर 2017

बस प्रेम जीवित हो...

जाने -अनजाने
मैं जो बेवजह
पूछ बैठती हूं
बेतुके सवाल
कभी सोचा तुमने
मैं ऐसा क्योंं करती हूं
कोई गुमान नहीं ं
बस सहज प्रेम
चिंता तड़प है
तुम्हारे मुख से
गायब हंसी को
लौटा लाने की
स्त्रीमन की बेचैनी
पर तुम्हें यह
भाता नहीं
तुम्हें तो दुराव पसंद है
प्रेम आलिंगन नहीं
यही सही, मेरे लिये
तुम्हारे होने का एहसास
काफी है, चाहे पास हो या दूर
बस प्रेम जीवित हो...

रजनीश आनंद
04-09-17