बुधवार, 28 अक्तूबर 2020

माँ

तोतली बोली से चेहरे पर 
उग आयी हल्की मूंछों तक
मैंने हर रोज संवारना चाहा
खुशी से तुममें अपना जीवन
स्तनपान हो या स्नान, औलाद देती है
सिर्फ और सिर्फ खुशी एक माँ को
हाँ, जो तड़प और भय माँ 
सहेजे है कलेजे में, वह भी कारक हैं
बस प्रेम और हर्ष का। 
बावजूद इसके माँ कई बार
नहीं बन पाती, संतान के लिए कवच
जिस गोद में वह सुकून से सोता है
वहाँ नहीं होती दवा हर मर्ज की
कई दफा योद्धा माताएं भी
बेबस होती हैं नियति के समझ
नजरें उतारते और मिर्च जलाते
कभी कभी उसकी खांसी बन जाती है दमा
भगवान के नाम का जाप करती माताएं
कुछ नहीं भूलतीं ना जीतिया ना  छठ
गुहार, लड़ाई, सिफारिश कुछ भी नहीं छोड़ती
फिर भी ना जाने हो जाती है क्या चूक... 

रजनीश आनंद

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2020

चांद रात

चांद रात को मैं अकेली
खिड़की से देख रही थी
बाहर का नजारा, सर्द थी रात
कई सवाल अतीत से सामने आकर
बढ़ा रहे थे कमरे की उष्णता
चांद का चुंबन, कभी उत्तेजना से सराबोर था
लेकिन आज, निरर्थक, निष्क्रिय
समय की गति अनोखी है
यह सोने को राख और 
राख को सोना बना सकती है
किंतु जबतक यह रहस्य उजागर होता है
सफेद हो जाते हैं केश
और नजर हो जाती है कमजोर
काश कि जिंदगी, पहली पाली में ही
समझा देती यह गूढ़ रहस्य
तो अनगिनत रिश्ते टूटने से बच जाते,,, काश

रजनीश आनंद


बुधवार, 7 अक्तूबर 2020

मर्तबान

इंसान अंदर से खाली होता है
चीनी मिट्टी के मर्तबान की तरह
हाँ, कांच के मर्तबान कम ही होते हैं
जिससे होकर हर नजर गुजर जाये
तभी तो जाहिर नहीं होती लोगों की शख्सीयत
इंसान का खालीपन उसकी पूंजी है
जिसके भरोसे वह खेलता है दांव
वह पूंजी के साथ लौटा लाना चाहता है
कारोबार का मुनाफा भी, किंतु
इंसान यह नहीं जानता कि
जिस चीज़ को वह अपनी पूंजी मानता है
दरअसल वह  जीवन का सबसे बड़ा दांव है
वो भ्रम है, जिसके होने की गलतफहमी में
इंसान पूरी जिंदगी मिटा देता है
लेकिन जब भी वो  होता है अकेला
चीनी मिट्टी का मर्तबान उसे दिखाता है
अपने अंदर की रिक्तता, वह सिसकता है
आंसू से भर जाता है मर्तबान, 
लेकिन कायम है सिसकती रिक्तता... 

रजनीश आनंद

बुधवार, 30 सितंबर 2020

रेप की वजहें और पीड़िता

एक और नाम जुड़ गया है फेहरिस्त में हाथरस गैंगरेप। ऐसे ही दिल्ली गैंगरेप, कठुआ गैंगरेप, उन्नाव गैंगरेप और बदायूं गैंगरेप। हमारे जेहन में ऐसे कई  केस हैं हम अरूणा शानबाग को नहीं भूले। मथुरा को नहीं भूले पर हम ऐसी घटनाओं को नहीं रोक सके। देश में बलात्कार के दोषियों के लिए मृत्यु दंड तक का प्रावधान है, बावजूद इसके तेलंगाना में रेप करके पीड़िता को जला दिया जाता है। उनका एनकाउंटर होता है, लेकिन बलात्कारी डरे? दिल्ली गैंगरेप के दोषी फांसी पर चढ़ाये गये क्या उस एक दिन भी देश में बलात्कार की घटना रूकी? नहीं रूकी। 
दर असल यह मसला आज का नहीं है। मानव जाति के साथ ही बलात्कार भी फूलता फलता रहा है। चूंकि हमारे समाज में इसे लड़कियों की इज्जत से जोड़ा जाता है, इसलिए कितने बलात्कारी सहजता से अपराध करके घूमते रहे और स्त्री जीवन भर सिसकती रही। यह बिडम्बना है, पर सच है। अगर घटना सामने आ गयी और सरकार की अकर्मण्यता पर सवाल उठे तो मुआवजा ठूंस दिया जाता है मुंह में 25 लाख का, उसपर सरकारी नौकरी भी। 
एक गरीब तो यूं ही चुप बैठ जायेगा, बेटी तो चली गयी बची खुची इज्जत बचाने लो और जीवन भर की रोटी का जुगाड़ बेटी ने मरकर कर ही दिया है। सवाल है कि क्या समाज से यह रोग कभी नहीं जायेगा? क्या स्त्री हमेशा अभिशप्त रहेगी?

स्त्री की हमारे समाज में अपनी आइडेंटिटी नहीं है। उसे इंसान नहीं वस्तु बनाया गया है जिसका उपभोग पुरूष करता है। पुराने समय से हमारे समाज में ऐसे उदाहरण हैं।  द्रौपदी को जुए में हारना उसे वस्तु ही साबित करता है। जब एक महारानी की समाज में ऐसी स्थिति थी तो आम महिला की कैसी होगी। 
चूंकि हमारा समाज जाति आधारित है, इसलिए रेप जैसे अपराध को भी वैसे ही समझना होगाः

यह कहना कि सवर्ण महिला के साथ रेप नहीं होता, बिलकुल गलत है। उनके साथ भी खूब रेप होते हैं। बाहर तो छोड़ दें घरों में भी होते हैं जिसकी चीख इज्जत की महल से बाहर नहीं जाती। बावजूद इसके ये महिलाएं गरीब तबके की औरतों से सुरक्षित हैं क्योंकि उनका परिवार उन्हें सुरक्षित करता है। काम करना है तो कहाँ करना है? सुरक्षा है या नहीं जैसे कई मसलों पर परिवार विचार करता है। लेकिन यह सुविधा दलित या आदिवासी महिलाओं के पास नहीं है। 
जीवन बचाने के लिए उन्हें संघर्ष करना होता है, और ऐसे में वे यह नहीं समझ पाती कि कहाँ काम करना है कहाँ नहीं। कारण वह सभी के लिए सहज उपलब्ध होती हैं। गाँव में शौचालय की समस्या है देर रात या अहले सुबह गयी मैदान तो कोई ना कोई भेड़िया ताक में होगा। बलात्कार के सिर्फ यही कारण हैं ऐसा नहीं है। लेकिन यह महत्वपूर्ण वजह हैं ऐसा मैंने पाया है। जाति आधारित समाज में दबंग जातियों की दबंगई भी चलती है गरीब महिलाएँ पिसती हैं। दलित महिलाओं के साथ रेप इसलिए ज्यादा होते हैं। महिला जाति ही दलित है और उसके शरीर का दोहरा बदस्तूर जारी है। समाज के हर तबके को इसपर विचार करना चाहिए, कि आखिर यह अपराध समाज से कैसे मिटेगा। राजनीति का अपराधीकरण किया जा भी इस अपराध को बढ़ावा देने के मूल में है। और भी कई वजह हैं जिनपर विचार करके शायद हम समाज से बलात्कार मिटा पायें। किंतु इसके लिए पहले महिला को सम्मान देना होगा जैसे वह पुरुष को देती है। किसी को देखती ही टंच माल कहकर लार टपकाने और उसका विश्लेषण उसके शारीरिक उभारों से करने से अपराध वह भी रेप के अपराध नहीं रूकेंगे।

मंगलवार, 29 सितंबर 2020

बौनी लड़की

जेहन में आज भी कायम है 
वो इलाहाबाद की सर्द सुबह
जब आराम से बालकनी में बैठ
खा रही थी, शुद्ध घी में चुपड़ी लिट्टी 
और धनिया पत्ती की चटनी
साथ में अदरक वाली चाय, 
जायके और सेहत का पूरा इंतजाम
प्रेम प्रस्फुटित था सामने
दो किशोरवय जोड़ा
उनकी नजरें टकरातीं
तो उनकी सांसों की गरमाहट
महसूस हो जाती थी मुझे
उस गरमाहट में एक बर्फीले स्पर्श ने जगाया
सामने एक मैले से कपड़े में
छोटी सी बच्ची, एक डेढ़ साल की
मेरे प्लेट को ध्यान से देख रही थी
मैंने सोचा बच्ची है पता नहीं कहाँ से आयी
तब- तक नीचे से मकान मालिकन
ढूंढ़ती आ गयी, कर्कश आवाज और क्रूर चेहरा लिये
अरी बहुत शैतान है, ऊपर कैसे आयी?
बच्ची डरी नहीं, ढीठ होकर बोली
लिट्टी की खुशबू खींच लायी
मैं दंग थी उसके जवाब पर
हैरत से पूछा- बोलना आता है बेटा? 
नाम क्या है तुम्हारा
वो बोली श्वेता, पर है काली कलूटी
दादाजी ने रख दिया है नाम
बिना सोचे समझे
वह खींचकर उसने ले जाने लगी
बच्ची की नजर मेरे प्लेट पर थी
मैं भागकर गयी और दो लिट्टी उसे थमाया
उसकी आंखों में चमक थी
फिर वो आने लगी मेरे पास
कभी चॉकलेट, कभी मिठाई या कुछ और
मैं उसे खिलाती वो आकर खाती
पता चला सात आठ साल की है
पर लंबाई बढ़ती नहीं
घर वाले ही ‘बौनी’ कहकर बुलाते
एक रात नीचे से रोने की आवाज आयी
लगा पिटाई हो रही बौनी की
मन हुआ जाकर देखूं
कलेजे पर पत्थर रखा
रात कैसे कटी मालूम नहीं
सुबह वह आयी नहीं, मैं बेचैन रही
दो दिन बीते, तीसरी सुबह आयी वो
मैंने उसे पास खींचकर पूछा कहां थी 
आयी क्यों नहीं थी?
उसके चेहरे पर चोट के निशान थे
कहा- मैंने मांग दिया था अंडा
पर, मेरे हिस्से तो है छूछी रोटी
अंडा दूध तो भाई के लिए है
श्वेता का मन कलुषित था
उस व्यवहार पर, जो मिला था उसे परिवार से
मैंने देखा, वह बौनी लड़की 
समाज पर बड़े सवाल खड़ी कर
चुपचाप उतर रही थी सीढ़ियां... 

-रजनीश आनंद

रविवार, 27 सितंबर 2020

लैप पोस्ट

मेरे कमरे की खिड़की के सीध में है ये लैप पोस्ट
हर रात इसे देखती हूं
कभी मच्छरदानी खोंसते तो 
कभी किताबों को पढ़ते
पता नहीं क्यों? 
निस्तब्ध रात्रि में वाचाल होते हैं ये लैप पोस्ट
मैं समझना चाहती हूं 
इसकी मूक वाणी को
लेकिन इससे नजरें नहीं मिला पाती
ये मेरे सवालों को धुंधला कर देती है। 
जब घिसती हूं बेटे के तलवे पर सरसों का तेल
उसकी झांस से बचने का उपाय 
मैं ढ़ंढ़ती हूं लैप पोस्ट में 
अगर नहीं होता लैप पोस्ट तो? 
चूंकि मै कुछ दूरी बनाकर पूछती हूं मच्छरदानी के अंदर से
जवाब बिखरे नजर आते हैं लैप पोस्ट के नीचे
सड़क डरावनी हो जाती
खो जाता सुरक्षा का एहसास
बेटियां शाम होते दुबकती घरों में
कोई गरीब बच्चा इसके नीचे बड़ा ना बनता
 लैप पोस्ट हमेशा विपरीत परिस्थितियों में रौशन होता है
आंधी तूफान का उसे डर नहीं
ना डर है अकेले पन का
तब ही तो लैप पोस्ट मुझे स्त्रीलिंग लगते है
क्योंकि विपरीत परिस्थितियों में सृजन औरत का शगल है... 

रजनीश आनंद

बुधवार, 23 सितंबर 2020

मनमाफिक कमरा

वो रहती है एक कमरे में
छोटा किंतु मनमाफिक कमरा
उसकी खिड़की बहुत प्यारी है
उसी से निहारती है, वह
दूर पहाड़ी पर बैठे प्रेमी जोड़ों को
कई बार प्रेमियों के शरीर की खुशबू 
उसे बेचैन करती है, मन होता है
तितली बन फिर आऊं किसी 
फूल का रस चख लूं
या फिर नीले आकाश के आगोश में
चील की तरह उड़ चलूं
कभी पहाड़ी के तालाब में
छपाक से कूदने का मन करता है
मासूम बच्चों की तरह
जिनके इस खेल में होता है सिर्फ विनोद
कभी बगुला बन उसी तलाब से निकाल लूं
चमकीली आंखों वाली मछली
जब अट्टहास करता है बादल
तो मन करता है बाहर जा सोख लूं जल उसका
लेकिन फिर चुपचाप बैठ जाती है खिड़की पर
उस पत्थर को हाथ में कसकर दबाये
जिसे शिवलिंग बताकर माँ ने थमाया था हाथों में
शिव यानी समस्त कामनाओं पर विजय
क्योंकि वह एक शालीन स्त्री है, कामना रहित... 

रजनीश आनंद

सोमवार, 14 सितंबर 2020

बछड़ा

उस दिन दूधवाले ने कम दूध दिया
मेरी जरूरत ज्यादा की थी, पर दूध कम
खीज में पूछा मैंने, क्यों करते हैं भैया ऐसे
वर्षों से आपके भरोसे हम 
फिर ऐन वक्त यह धोखा क्यों? 
मेरे सवालों से भरे नेत्रों को देखा नहीं
उस दिन दूधवाले ने, बस नजरें झुका
कह गये, आज बछड़ा दूध चुरा लिया
दूध की बोतल मेरी हाथों में थमा
वे चले गये पवन वेग से
मैं कुढ़ती रही दिन भर
55 के हो गये होंगे पर इतना बड़ा झूठ
उसपर हर जरूरत में मदद की हमने
बिटिया की शादी पर पैसे दिये
बीमारी या कोई और जरूरत रही हो
पर हमारी जरूरत नहीं दिखी उन्हें
अगले दिन जब सुबह आठ बजे 
दूध वाले भैया जी आये तो गर्व था चेहरे पर
मुझे एक किलो अधिक दूध देकर बोले
आज सवेरे ही बांध दिया था बछड़े को
गाय से दूर, रंभाती रही गैया
 जो कटौती हुई थी वो पूरी कर दी
बोतल हाथ में लिये मैं रसोई में आयी
सफेद दूध रक्त की तरह लाल जान पड़ा
बिलकुल वैसा ही जैसे उस दिन देखा था मैंने
अपने बेटे के खून में सने चेहरे को, 
भागकर बालकनी में उसके पीछे गयी थी
खून क्यों छिपा रहा, बताया क्यों नहीं मुझे? 
मासूम चेहरा, मेरी ओर करके कहा था उसने
तुम तो आफिस गयी थी मेरे पास कहाँ रहती हो
दूधवाले का बछड़ा और मेरा लाडला
एक से दुख में थे, और मैं पीड़ा से रंभाती... 

रजनीश आनंद

शनिवार, 12 सितंबर 2020

स्मृति

स्मृति कभी नहीं मिटती
कायम रहती है हमारे अंदर
किसी ना किसी रूप में
तभी तो जब पुनर्जन्म होता है स्मृति का
वह रूलाती भी है, हंसाती भी
आप स्मृतियों को कागज की तरह
फाड़कर टुकड़े -टुकड़े नहीं कर सकते
क्योंकि वे अंकित होती हैं मानस पटल पर
भूल चुके पल भी सहसा सामने आ खड़े होते हैं
उस क्षण जब आप करते हों संवाद खुद से
वह समय होता है प्रेम का, 
नफरत को बिसार कर प्रेम के शुक्राणु को आश्रय दीजिए
वह पल प्रसवपीड़ा सा कष्टकर हो सकता है
किंतु यह तय है शिशु नफरत का स्वरूप नहीं होगा
क्योंकि स्मृति में प्रेम हर पल जीवित है... 
रजनीश आनंद


रविवार, 6 सितंबर 2020

आंसू

औरतों की जिंदगी मेंं
ढांढस की तरह हैं आंसू
जिनसे सराबोर हो
वह संभल जाती है
झेल लेती है हर
वो घाव, चाहे नये हों
या रिसते रहें हों जख्म बन
आंसू की झील में तैरकर
औरत बन जाती है पारंगत मांझी
नमकीन आंसू बनाये रखते हैं
नमक जिंदगी में
इसे कमजोरी की निशानी ना समझें
स्वार्थपरक इस दुनिया में
जब टूटते हैं भ्रम और विश्वास
तो आंसू होते हैं सच्चे साथी
तो मर्दों कभी रोकर देखो
त्रिया चरित्र के हथकंडे नहीं हैं सिर्फ ये
निर्मल भाव में भी बहते हैं आंसू... 

रजनीश आनंद


सोमवार, 31 अगस्त 2020

बीज

माली सहेजता है, धरती की कोख में
पल रहे उस बीज को जिसे बनना है वृक्ष
अंकुरण से प्रस्फुटन तक वह झेलता है
प्रसव वेदना, मौन चीख के साथ
वह कभी बाड़ लगता है तो 
कभी जंगली घास को उखाड़ता है
शिशु पौध की चिंता में वह कभी कभी
मुखर भी हो जाता है, क्योंकि पौधे की सुरक्षा जरूरी है
वह कभी पानी से सींचता है, 
तो कभी कीटनाशक का छिड़काव करता है
तंदुरुस्त होता पौधा उसकी हिम्मत बढ़ाता है
उसकी सलामती के लिए करता है पूजा पाठ
व्रत, उपवास की श्रद्धा और तलवार का जोश भी है उसके पास
आज जबकि लोग उस वृक्ष के समक्ष आम्रबौर मांगने आये हैं
चर्चा सिर्फ उच्च कोटि के बीज की है, माली के समर्पण और त्याग की नहीं... 

रजनीश आनंद

शनिवार, 29 अगस्त 2020

टिकुली-सिंदूर पर नहीं, इन मुद्दों पर लड़े जंग

पिछले कुछ दिनों से स्त्री कैसी हो इसपर चर्चा आम है। सोशल मीडिया पर बहुत एक्टिव नहीं रही पर देखा जरूर। तीज के समय से शुरू हुआ यह द्वंद्व अब भयावह होता दिख रहा है। रिया चक्रवर्ती के मामले ने इस बहस को और बढ़ाया और कड़वाहट ला दिया है। सबसे पहले तो हम औरतों को यह ध्यान रखना चाहिए कि जब आप अपने हक और अधिकारों की जंग लड़ रही हैं तो एकजुट रहें अकेले कोई सेनापति युद्ध नहीं जीत सका है, सेना की जरूरत होती ही है। तो बात मुद्दों की करते हैं रिया चक्रवर्ती तमाम स्त्री जाति का प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं कि उनके लिए हम आपस में लड़ मर जाये ं। सुशांत सिंह के मामले में अगर रिया दोषी है तो उसे सजा मिलेगी, और जरूर मिलेगी। लेकिन उस एक लड़की को लेकर तमाम माडर्न लड़कियों पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। ऐसी कई घटनाएं हमारे सामने होती हैं लेकिन हम उसकी चर्चा भी नहीं करते, यह हाईप्रोफाइल केस है इसलिए मीडिया लहालोट हो रहा है। बेशक जिस परिवार ने बेटा खोया है हमें उसके साथ खड़े होना चाहिए। सुशांत हमारे इलाके के थे इसलिए यह हमारा फर्ज बनता है कि हम उस परिवार के दुख में शामिल हों। अबतक जो जानकारी सामने आयी है वह चौंकाने वाली है। 
लेकिन कुछ बात मुझे पच नहीं रही मसलन रिया सुशांत के पैसों पर ऐश करती थी। अरे भाई वे लिव इन में रहते थे, और जब दो लोग प्रेम में होते हैं साथ होते हैं तो एक दूसरे पर खर्च करते हैं।लेकिन रिया ने अगर प्रेम का फायदा उठाया है तो यही कहूंगी कि सबको अपने कर्म का फल इसी दुनिया में भुगतना पड़ता है। हमारे देश का कानून उसे सजा देगा। रिया जिस प्रेम का दावा कर रही हैं वह व्यक्ति गत तौर पर मुझे इसलिए झूठा लग रहा है कि अगर प्रेम था तो उसे मरने के लिए क्यों छोड़ दिया। लड़ाई क्या प्रेम से ऊपर है, वह भी तब जब आपका साथी बीमार हो, जैसा कि रिया कह रही हैं। 
खैर मेरा यह कहना है कि रिया को गरिया कर महिलाएं आपस में क्यों भिड़ रही हैं। रिया ऐसे सोसाइटी से है जहाँ कोई महिला पीड़ित या अधिकारों से वंचित नहीं है। अधिकारों की जंग वंचित महिलाओं को लड़नी पड़ती है। रिया या आलिया को नहीं। 
तीज, जीतिया और छठ व्रत हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं। अगर कोई  व्रत रखकर अपना प्रेम और केयर प्रदर्शित करता है तो करने दें, इसमें क्या बुरा है। श्रृंगार करके स्त्री मन प्रसन्न होता है होने दीजिए। इसमें आरोप प्रत्यारोप क्या। बंगाल की सारी कम्युनिस्ट महिलाएं दुर्गा पूजा के समय मार्क्स वाद भूलकर वही करती हैं जो उनकी परंपरा है, तो बिहारी औरतें तीज, छठ पर नाक से सिंदूर क्यों ना लगायें। किसी की भावना आहत ना करें। वैसे भी आजकल के पति पत्नियों का खास ख्याल रखते हैं। खैर मेरा कहना यह था कि जिस चीज से आप सहमत नहीं वह गलत है ऐसा नहीं है। वैसे भी हमें बात लैंगिक समानता की करनी चाहिए। स्त्री शिक्षा, स्वास्थ्य, काम के अवसर और निर्णय के अधिकार पर बात करनी चाहिए। स्त्री को देह से इतर एक इंसान के रूप में स्थापित करने की जंग करनी चाहिए तो हम टिकुली-सिंदूर पर भिड़े हुए हैं, अरे समझिए यही हमारी हार है। 

बुधवार, 26 अगस्त 2020

सोने की चेन

वो सोने की चेन मैंने बेच दी थी सुनार के पास
तुम्हें याद है ना, तुम इतना ही कह पाये थे, इसे क्यों? 
लेकिन मैंने तुम्हारे क्यों का उत्तर दिये बिना थमा दिया था
उस चेन को सुनार की हाथों में, मेरे जितने जेवर थे
उनमें से सबसे खरा सोना साबित हुआ था, वह चेन
20 हजार में बेच, मैंने पैसे भी पकड़ा दिये थे तुमको
ताकि तुम दावा ना कर सको मेरी तथाकथित स्वंतत्रता पर
मैंने देखा है तुम्हारी नजरें दबोचना  चाहती है मुझे आज भी
दर असल जिसे मैंने प्रेम का आलिंगन समझा था
वह तो जकड़न थी उस तकिये की जो गला घोंटना चाहता था 
एक स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व का, मिटाना चाहता था उसकी आत्मा को
शरीर तो स्त्री का अपना होता ही नहीं, उसपर तो स्टांप लगा होता है समाज का
हाँ उसकी आत्मा जीवित होती है, जिसका गला घोंटने के लिए
तुमने पहनाई थी मुझे सोने की चेन, लेकिन उसकी गिरफ्त से निकल गयी थी मैं, शरीर लहूलुहान हो तो क्या, आत्मा जीवित थी
इसलिए मैं बेच आयी थी तुम्हारे साथ ही वो सोने की चेन... 

रजनीश आनंद

रविवार, 23 अगस्त 2020

धीरज और सृजन

धीरज और सृजन औरतों के ऐसे शस्त्र हैं
जिनका मुकाबला करना ब्रह्मास्त्र के लिए भी संभव ना था
तभी तो अश्वत्थामा का प्रहार खाली गया था
जानते थे कृष्ण औरतों के इस शस्त्र को
तभी तो बदल दिया था उन्होंने परीक्षित का भाग्य
स्त्री धीरज रखती है, अश्रु का सहारा लेकर
वह जानती है शस्त्र घातक हैं मानव समाज के लिए
जो उपहास करते हैं अश्रु का
उन्हें रोकर देखना चाहिए, यह मात्र कुटिलता नहीं 
सहजता है सबकुछ संवारकर, सहेजकर रखने की
स्त्री सबकी चिंता करती है, इसलिए वो रोती है
धीरज धरती औरत तो बिकती आयी है बाजारों में
समाज उस सृजन को दरकिनार कर रहा है
जो औरतों के पेट में नहीं, समाज की कोख में पल रहा
लिंगभेद ने छीना है बच्चियों और उसकी मुस्कान को
फिर भी औरत धैर्य से सृजन कर रही है अनगिनत अश्वत्थामा का... 

रजनीश आनंद

शनिवार, 6 जून 2020

स्त्री और स्मृति

तीक्ष्ण स्मृति की होती हैं स्त्रियाँ
वह कभी कुछ भूलती नहीं
नफरत, प्रेम सब सहेजती हैं
अपने केशों में छुपाती हैं प्रेम 
तो अश्रु में अपमान-दुत्कार
 केशों को सहलाना उसका शगल है
दरअसल वह दुलारती है हर प्रेम निवेदन को
वो याद करती है पहले प्रेमी का वो पहला चुंबन
जिससे दो गज की दूरी पर भी नहीं हुई कभी भेंट
किंतु उसकी गरमाहट मौजूद होती है 
उसके सबसे खास रिश्तों में
उसके हाथों की रोटियों की कोमलता में
स्त्री का प्रेम उसके जीवन की बाधा नहीं
उसके जीवन की सीख है, इसलिए स्त्री 
हमेशा करती है अपने प्रेम पर मान
और अपमान से सींचती है घर आंगन
ताकि लहलहाती रहे खुशियाँ... 

-रजनीश आनंद-

रविवार, 17 मई 2020

प्रवासी मजदूरों के मुद्दे पर सरकार को जवाब तो देना होगा, यह लोकतंत्र है तानाशाही नहीं?

पिछले कुछ दिनों से देश में जिस बात की चर्चा सबसे ज्यादा है, वह हैं प्रवासी मजदूरों की. प्रवासी मजदूर इसलिए क्योंकि वे अपना प्रदेश या यूं कहें कि देस छोड़कर दूसरे प्रदेशों में मजदूरी कर रहे हैं. कोरोना वायरस के प्रकोप ने अबतक देश में 90 हजार से ज्यादा लोगों को संक्रमित किया है और अबतक 2872 लोगों की मौत हुई है. लेकिन कोरोना से बचाव के लिए सरकार ने देश भर में जो लॉकडाउन किया उससे आठ करोड़ मजदूर सड़क पर आ गये हैं और भूख उन्हें विवश कर रही है कि वे अपने देस लौट जायें. परिणाम क्या हुआ है यह बताने की जरूरत नहीं है. सोशल मीडिया में तो ऐसी-ऐसी तसवीरें वायरल हैं कि कोई पत्थर दिल भी रो दे. लेकिन यहां सवाल यह है कि आखिर ऐसी स्थिति क्यों बनीं. देश में 24 मार्च से लॉकडाउन है और आज 17 मई है. यानी एक महीना बाइस दिन से लॉकडाउन जारी है और आगे यह 31 मई या जून 15 तक भी जा सकता है ऐसी संभावना है. बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश ऐसे राज्य हैं जहां से सबसे ज्यादा मजदूर आजीविका के लिए दूसरे प्रदेशों में जाकर अपना काम करते हैं. बिहार और उत्तरप्रदेश से जैसे राज्यों का समर्थन पाये बिना इस देश में प्रधानमंत्री बनना तो मुश्किल है, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि यह दोनों ही प्रदेश आज भी अपने लोगों को अपने प्रदेश में आजीविका का उचित साधन उपलब्ध नहीं करा पायी है, तभी तो यहां के लोग मजदूर बनने पर विवश हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लॉकडाउन की घोषणा करते हुए यह कहा था कि‘जान है तो जहान है’.उनकी इस बात से तो मैं पूरी तरह इत्तेफाक रखती हूं, लेकिन क्या मैं अपने पीएम से एक यह सवाल नहीं पूछ सकती कि क्या उन्हें यह पता नहीं था कि जब देश में पूरी तरह लॉकडाउन हो जायेगा तो ऐसे लोग जो सड़कों पर दिन-रात पैदल चल रहे हैं, उन्हें क्या परेशानी होगी? ऐसे मजदूरों के सामने जब भोजन और आवास की समस्या उत्पन्न हो जायेगी तो वे क्या करेंगे और कहां जायेंगे? अगर सरकार ने यह सोच लिया होता तो शायद आज जो दर्दनाक दृश्य हमारे सामने है, वह नहीं होता. सरकार यह कह रही है कि संक्रमण का खतरा है, इसलिए वह लोगों को घर पर रहने की सलाह दे रही है. सरकार अगर इस सलाह के साथ गरीबों के लिए खाना और कुछ पैसे का इंतजाम कर देती तो शायद यह मजदूर अपना ठिकाना छोड़कर नहीं आते. हजारों किलोमीटर पैदल चलते यह मजदूर हमारी व्यवस्था और सरकार के ‘फेल्योर’ की निशानी हैं. यहां मैं सिर्फ केंद्र सरकार की ही नहीं राज्य सरकारों की भी बात कर रही हूं, क्या राज्य सरकारों का यह दायित्व नहीं है कि वह इन मजदूरों को रोकें. जो इंसान रोजी-रोटी के लिए इतनी दूर गया वह इतना खतरा मोल लेकर वापस क्यों आयेगा?

लॉकडाउन में एक महीने से ज्यादा का समय बीत जाने के बाद सरकार ने श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलायी है, लेकिन अबतक कुछ लाख मजदूर ही अपने देस लौट पाये हैं, जबकि आंकड़ा आठ करोड़ है. बेबसी किस तरह की है कि वे पैदल तो चल ही रहे हैं, किसी भी ट्रक, ट्रेलर और साइकिल पर सवाल होकर भी अपने घर लौट रहे हैं. पिछले दिनों दो खबर आयी थी एक मध्यप्रदेश की थी और एक बिहार की. जिसमें गर्भवती स्त्री ने बच्चे को सड़क पर ही जन्म दिया और फिर एक घंटे रूक कर फिर चल पड़ी अपने पति के साथ उस नवजात को गोद में लिये हुए. दूसरी घटना गोपालगंज की थी जहां सड़क पर बच्चे को जन्म देने के बाद बच्चे की हालत बिगड़ गयी, किसी तरह प्रशासन को जानकारी मिली तो बच्चे को अस्पताल पहुंचाया गया और वह बच्चा वेंटिलेटर पर है. कई श्रमिक ओवरलोडेड गाड़ी पर सवार होकर आ रहे थे तो कोई थककर पटरी पर सो गया. अबतक ऐसी घटना के बाद हुई दुर्घटना में 50 से अधिक लोगों की मौत हुई है.

लेकिन सरकार और विपक्ष एक दूसरे पर दोषारोपण कर रहे थे. बेशक जो सत्ता में है उसकी ही जवाबदेही है कि वह व्यवस्था को दुरुस्त करे. लेकिन क्या यह विपक्ष की जिम्मेदारी नहीं है कि वह पांच-दस प्रतिशत भी सहयोग करे. युद्ध जैसी स्थिति बताकर एक दूसरे पर दोषारोपण करते नेताओं को देखकर चिढ़ होती है. यह वही लोग हैं, जो अपने-अपने बड़े नेताओं की रैली में भीड़ जुटाने के लिए ट्रक-बस भरकर लोगों को लाते हैं, उनके खाने-पीने की व्यवस्था करते हैं और पैसे भी देते हैं. ठीक है यह चुनाव का वक्त नहीं, लेकिन क्या यह राजनेताओं का कर्तव्य नहीं है कि वह इन मजदूरों के लिए कुछ करते?

सरकार ने 20 लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा की है, लेकिन इसमें सीधे लाभ पहुंचाने वाले स्कीम बहुत कम हैं. मनरेगा के तहत 40,000 करोड़ रुपये के रोजगार सृजन की बात तो है, लेकिन इसे उपलब्ध कराने में भी समय लगेगा.  इससे बेहतर तो यह था कि सरकार इन मजदूरों को उनकी फैक्ट्री और मालिकों द्वारा ही पगार दिलवाती और उनके भोजन की व्यवस्था करती जिससे वे जहां थे वहीं रहते और यूं सड़कों पर दर्दभरी कहानी ना बनते. अभी भी समय है सरकार युद्धस्तर पर प्रयास करे और इन मजदूरों को उनके घर तक सुरक्षित पहुंचाये, अन्यथा इसके परिणाम उन सभी सरकारों को भुगतने पड़ेंगे जहां यह मजदूर काम करते थे और जहां ये मजदूर लौटे हैं. जहां काम करते थे उन सरकारों के सामने लॉकडाउन खत्म होने के बाद लेबर की कमी हो जायेगी और उनका काम बंद हो सकता है, वहीं जहां ये मजदूर लौटे हैं, वहां कि सरकार के सामने भी इन्हें रोजगार उपलब्ध कराने की चुनौती है.


शुक्रवार, 8 मई 2020

TrainAccident : पटरी पर 16 मजदूर नहीं बेबसी सो रही थी, जिसे व्यवस्था ने बेमौत मार दिया

आज सुबह-सुबह एक ऐसी खबर आयी जो मनहूसियत से भरपूर थी. महाराष्ट्र के औरंगाबाद के पास 16 मजदूर एक मालगाड़ी की चपेट में आकर कट गये. कल के विशाखापट्टनम कांड से देशवासी उबर भी नहीं पाये थे कि यह एक और दर्दनाक हादसा.कोरोना वायरस के प्रभाव में दिहाड़ी मजदूर करने वालों पर आफत है, उनकी रोजी छीन गयी है और साथ ही रहने का ठिकाना भी. काम नहीं होने के कारण उनके पास पैसे नहीं हैं, ऐसे में घर का किराया देना उनके बस में नहीं है, चूंकि यह उनका देस भी नहीं है, इसलिए ऐसे समय में उन्हें सिर्फ और सिर्फ अपनी धरती की याद आ रही है. यह वाजिब बात है और किसी के साथ भी इन परिस्थितियों में ऐसा ही कुछ होता. परेशानी यह है कि पूरे देश में लॉकडाउन जारी है और रेल,सड़क और वायुमार्ग से आवागमन बंद है. ऐसे में बदहाली के कगार पर  पहुंचे यह मजदूर अपनी धरती तक पहुंचने के लिए हजारों किलोमीटर का सफर पैदल ही तय करने पर आमादा है. कोई साइकिल को जरिया बना रहा है तो कोई किसी तरह जुगाड़ करके अपने घर पहुंचने के लिए मीलों चल रहा है. बस एक ही चाह है अगर कोरोना मारने ही आया है, तो अपनी धरती पर मरें अपने लोगों के साथ.

बस इसी चाह में मध्यप्रदेश के 20 मजदूर महाराष्ट्र के जालना से पैदल मध्यप्रदेश अपने गांव जा रहा थे. यह सभी जालना की एक स्टील फैक्टरी में काम करते थे और कोविड-19 लॉकडाउन के कारण बेरोजगार हो गये थे और अपने घर पैदल लौट रहे थे. चूंकि सड़क मार्ग से जाने पर पुलिस रोकती-टोकती है, इसलिए वे पटरियों पर चल रहे थे. उन्हें यह तो मालूम है कि रेल इन दिनों नहीं चलती, लेकिन उन्हें यह नहीं मालूम था कि मालगाड़ियां अभी भी चल रही हैं. कुछ रोटी को पोटली में बांध यह मजदूर पैदल चल रहे थे. चलते-चलते थककर वे पटरी पर ही सो गये. कुल 16 मजदूर सुबह पांच बजे के आसपास मालगाड़ी की चपेट में आ गये और बेमौत मारे गये. वे अपने घर से 30-40 किलोमीटर दूर थे. दुर्घटना औरंगाबाद जिले के आसपास हुई है. मजदूर मध्यप्रदेश के भुसावल के थे.

दुर्घटना की जो तसवीर सामने आयी है, उसमें मजदूरों के शव पटरी पर पड़े हैं. रेलगाड़ी से कटे शव. पटरियों पर बिखरीं रोटियां. किसी को भी भावुक कर सकती हैं. हम इसलिए भावुक ज्यादा हैं क्योंकि हम वैसे इलाके से आते हैं, जहां के लोग मजदूरी करने के लिए पूरे देश में जाते हैं. बिहार-झारखंड और उत्तर प्रदेश. पूरे देश में इन्हीं राज्यों से मजदूर जाते हैं.

सरकार का कहना है कि वह मजदूरों को उनके घर पहुंचाने के लिए 222 श्रमिक स्पेशल ट्रेन चला रही है, जिसका फायदा अबतक 2.5 लाख लोग ले चुके हैं. लेकिन सवाल यह है कि अगर मजदूरों को उनके घर तक पहुंचा ही रही हैं, तो क्यों नहीं सरकार ने यह फैसला पहले किया? अगर सरकार लॉकडाउन के तुरंत बाद या मजदूरों को पहले वापस भेजकर लॉकडाउन लगाती तो इन मजदूरों को इस तरह विवश नहीं होना पड़ता. ऐसी कई घटनाएं हमारे सामने हैं जो लॉकडाउन के दौरान देखने को मिल रही हैं. हम वह घटना भी नहीं भूले जब दिल्ली और मुंबई से वापस आने के लिए मजदूर लाखों की संख्या में सड़क पर आ गये थे. इनके पास खाने को नहीं है. कई लोग 5-6 तक भूखे हाईवे पर चल रहे हैं, क्योंकि दुकानें बंद हैं. ऐसे में हमारे राजनेताओं को इस बात का जवाब तो देना होगा कि आखिर इन मजदूरों की बदहाली का जिम्मेदार कौन है? क्या आज जो लोग ट्रेन से कटकर मरे हैं, उनकी मौत की जिम्मेदारी कोई लेगा? क्या यह केंद्र और राज्य सरकार की जिम्मेदारी नहीं थी कि वह इन मजदूरों को या तो रोक कर रखे और भूखों मरने से बचाये?

गुरुवार, 7 मई 2020

बड़ी की सब्जी

उस दिन बड़े प्यार से
मैंने बनायी थी बड़ी की सब्जी
जैसे बनाती थी दादी मेरी
इंतज़ार किया था, घंटों उसका
हाँ, श्रृंगार भी किया था, 
लेकिन सिर्फ मन का
उसे रिझाना मेरे बस में नहीं था
इसलिए तो बस उम्मीद की डोर बांधे थी
काश की वो इस डोर के खिंचाव को महसूस करता
इसी उम्मीद में मैंने डोर कुछ ज्यादा ही खिंची
भौतिकी में पढ़ा था प्रत्यास्थता सीमा
संभवतः मेरी उम्मीद उसी सीमा को लांघ गयी
तब मिला मुझे जिंदगी का मूलमंत्र
रिफाइन में नहीं, सरसों के तेल में बनती है
सबसे अच्छी बड़ी की सब्जी... 

रजनीश आनंद

मंगलवार, 5 मई 2020

bioslockerroom, girlslockerroom और sexuality का सच!


bios locker room और #girlslockerroom की चर्चा इन दिनों सोशल मीडिया के जरिये पूरे देश में हो रही है, जिसके कारण यह दोनों ग्रुप ट्विटर पर टॉप ट्रेंड में रहा. यह दोनों ही सोशल मीडिया ग्रुप के नाम हैं और जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है यह दोनों लड़कों और लड़कियों के ग्रुप हैं. अब इस ग्रुप में बात करने का तरीका देखिए- अगर एक लड़का तुम्हारी हॉट पिक पर रिस्पांड ना करें, तो समझना वो गे है. बूब्स की जगह पिंपल है, वगैरह-वगैरह. अब लड़कों की सुने-उसने बहुत दारू पी थी. पागलों की तरह नाच रही थी आउट अॅाफ कंट्रोल थी इसलिए हम शुरू हो गये....


यह सिर्फ उदाहरण हैं जो आम लोगों के साथ शेयर की जा सकती है, इससे इतर भी ग्रुप में कई बाते हैं, जिसे सभ्य लोगों के ग्रुप में शेयर करना असभ्यता समझा जायेगा. हालांकि हमारा समाज उस तरह की भाषाओं का आदि है और समाज में ऐसी भाषा बोली और समझी जाती है. किसी को नीचा दिखाना हो तो खासकर ऐसी भाषा का प्रयोग किया जाता है. खैर विषयांतर ना करते हुए मैं मुद्दे पर आती हूं.

दरअसल #boyslockeroom इंस्टाग्राम पर लड़कों का एक ग्रुप है जिसमें स्कूल के 16-19 साल तक के बच्चे मेंबर हैं. जैसा कि आम तौर पर देखा जाता है लड़के, लड़कियों की शारीरिक संरचना के बारे में अश्लील तरीके से बात करते हैं, वो इस ग्रुप में भी हो रहा है. टीनएजर लड़के जिनमें जिज्ञासा है और वे सबकुछ जानने को उत्सुक है. खासकर शारीरिक बनावट और शारीरिक संबंध के बारे में. चूंकि इस उम्र में अपोजिट सेक्स के प्रति खिंचाव स्वाभाविक है, इसलिए उनकी बातचीत भी स्वाभाविक है. लेकिन चौंकने वाली बात या जिसे हम खतरे की घंटी मानें, वह यह है कि इंटरनेट के इस युग में वे गलत तरीके से गलत ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं. इस वजह से वे अपराट की ओर अग्रसर हो रहे हैं. यह बच्चे जो किशोर हो चुके हैं वे रेप की योजना बना रहे हैं.

 वे आपस में यह चर्चा कर रहे हैं कि किस तरह एक लड़की का जो शायद उनकी सहपाठी है, उसका उन्होंने रेप किया या करना चाहते हैं. यही स्थिति डराने वाली है, क्योंकि बच्चे अपराध करने का सोच रहे हैं. वह भी तब जब इसी साल 20 मार्च को देश में निर्भया के दोषियों को फांसी दी गयी. निर्भया की चर्चा इसलिए क्योंकि चार-चार लोगों को फांसी पर चढ़ते देखकर भी अगर रेप की प्रवृत्ति लड़कों में पनप रही है तो यह समाज के लिए खतरे की घंटी है.

इंटरनेट और सोशल मीडिया के दौर में खुलापन समाज में हावी है. हर कोई आपस में खुलकर बातें कर रहा है. सेक्स एक ऐसा विषय है जिसे लेकर जिज्ञासा तो है जो स्वाभाविक है, लेकिन गलत जानकारी किशोरों को भ्रमित कर रही है और वे पथभ्रष्ट होकर गलत राह पर जा रहे हैं. यह बात सिर्फ लड़कों पर लागू नहीं है, यह बात लड़कियों पर भी लागू है, क्योंकि जो जिज्ञासा इनके अंदर है वो लड़कियों में भी है. यही कारण है कि लड़कियों ने भी इसी तरह का ग्रुप बनाया हुआ है, जिसमें वे अपनी जिज्ञासा शांत कर रहे हैं. लड़कों पर कमेंट कर रही हैं उनकी शारीरिक बनावट पर बात कर रही हैं और मजे ले रही हैं. इसका कारण है उनकी जिजीविषा.

लड़कियों का शरीर लड़कों के लिए एक रहस्य है जिसे वह भोगना चाहता है और यह बात हर युग में सही रही है. बात sexuality की नहीं है, यह तो प्राकृतिक और स्वाभाविक प्रक्रिया है. sexuality को हमारे समाज में गलत तरीके से परिभाषित किया जाता है. यह तो सामान्य प्रक्रिया है और परिवार नामक संस्था की आधारशिला भी है. जिसमें प्रेम और विश्वास रहता है और लोग दूसरे की भावनाओं की कद्र करते हुए एक दूसरे को आकर्षित करते हैं और संतुष्ट करते हैं. आपत्ति है सेक्स के नाम पर विकृति की. sexuality दोनों ही जेंडर में है, तभी यह प्रकृति सुचारूरूप से चलती है. लेकिन आज सेक्स के नाम पर विकृति दोनों ही जेंडर में दिख रही है.

sexuality जबतक स्वीकार्य हो सहमति से हो, वह प्रेम होता है, लेकिन जैसे ही यह असहमति और अस्वीकार्यता का बोध कराता है यह अपराध हो जाता है. ऐसे में समाज और परिवार की जिम्मेदारी बढ़ जाती है. परिवार और समाज यह तय करता है कि कैसी और कितनी जानकारी किस आयुवर्ग के लोगों को होनी चाहिए. अगर यह तय नहीं किया गया तो अनाचार बढ़ेगा, जो बढ़ रहा है. sexuality के नाम पर अपराध कोई नयी बात नहीं है. लेकिन यह कुंठा निकालने का जरिया ना बने, यह देखना समाज और परिवार की जिम्मेदारी है.

इंटरनेट की वजह से लोगों के हाथों में हर तरह की सूचना उपलब्ध है सेक्स के नाम पर लोगों के सामने विकृत सामग्री परोसी जा रही है. इस बात को मैच्योर लोग तो समझ लेते हैं, लेकिन कच्ची उम्र के लोग इस बात को समझ नहीं पाते और आपराधिक घटनाओं को अंजाम देते हैं. इसलिए सूचना के विस्फोट में क्या लेने लायक है और क्या छोड़ने लायक यह हमें ही तय करना होगा.

मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

Coronavirus outbreak: अजीब सा दौर ये...

एक अजीब सा दौर है, 40प्लस की हो चुकी हूं पर ऐसा समय नहीं देखा था। खौफ, अविश्वास और नफरत के बीच आप पिसे हुए हैं। मेरे जैसे मध्यमार्गी लोगों पर आफत है। इसलिए चुप रहती हूं, ज्यादा लिखती नहीं। पत्रकार हूं तो सूचना देने की कोशिश करती हूं पर उस दो पंक्ति की सूचना को भी लोग नफरत के कमेंट से भर देते हैं। पर कई लोगों को मेरी सूचना का इंतजार रहता है, इसलिए मैं जानकारी देती हूं। एक्सक्लूसिव नहीं पर जनसरोकार की सूचनाएं। 
घर पर राजनीतिक चर्चाएं खूब सुनी जिनमें देश विभाजन और इमरजेंसी की कहानियों की प्रमुखता थी। लेकिन आज का दौर अलग है। कोरोना काल में दिनचर्या पूरी तरह से बदल गयी है ऐसा तो नहीं है पर लोगों की नजरें बदल गयी है, इसमें कोई दो राय नहीं है। बेशक हम वैज्ञानिक युग में हैं लेकिन फिल वक्त विज्ञान लाचार है। वह परीक्षण कर रहा है। इंसान की इच्छा शक्ति और उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता ही उसे बचा सकती है। हम रोज सकारात्मक खबरें ढ़ूंढ़ ते हैं ताकि पढ़कर लोगों की ऊर्जा में वृद्धि हो। अपने कुछ साथी जब निगेटिव हेडिंग लगाकर मुझसे चर्चा करते हैं तो मैं उनसे कहती हूं कि नहीं ऐसे नहीं लिखे। 
बावजूद इसके समाज में सकारात्मकता नहीं जाग्रत हो रही या यूं कहें  कि लोग उसे जगाना नहीं चाहते तो बेहतर होगा। भारत में कोरोना विदेश से आया। अपने ही कुछ नागरिक जो विदेश में थे वे संक्रमण लेकर आये। मामला धीरे -धीरे बढ़ने लगा। चीन के वुहान से शुरू हुई ये बीमारी यूरोप अमेरिका तक पहुँच गयी। चीन हमसे सीमाएं साझा करता है, तो बचना नामुमकिन था। कोरोना संक्रमण के बाद पता चला कि अपने इतने लोग चीन में रहते हैं। वायरस का इलाज अभी मौजूद नहीं इसलिए सावधानी ही बचाव है। शुरुआत में तो हम भारतीयों ने कोरोना को खूब ठेंगा दिखाया लेकिन जब करीब आकर उसने अपने शरीर के कांटे दिखाये तो ठेंगा कहीं गुम गया। अब सिर्फ दहशत है और नफरत भी।
नफरत क्यों? यह सवाल बहुत अहम है। दरअसल भारत एक ऐसा देश है, जहाँ विभिन्न धर्म के लोग रंजिश और मोहब्बत के साथ रहते है। प्रेम करते हैं साथ जीते हैं क्योंकि अकेले इनका जीवन संभव नहीं। यह हमारे समाज की खूबी और कमी दोनों है। तो मसला यह है कि कोरोना मामले तब देश में विस्फोटक हो गये जब दिल्ली में तब्दील जमात के हजारों लोगों को एक मरकज़ में शामिल होने के दौरान पकड़ा गया। इनमें क ई विदेशी भी थे। संक्रमण लेकर बाहर से आये थे और मरकज़ में शामिल हुए भारतीय मुसलमान इसके शिकार हो चुके थे। यहाँ से जब वे अपने राज्य गये तो वहाँ और लोगों को संक्रमित किया और इस तरह कोरोना का चेन फैलने लगा। कोरोना के फैलने से फैला दहशत और इस खौफ में छिपी थी नफरत। कुछ लोगों को लगा कि यह साजिश के तहत किया गया, जिसके लिए मुसलमान जिम्मेदार हैं, वही ं कुछ लोगों को लगा कि हमारे खिलाफ साजिश हो रही है। अगर यह सच है कि जमातियों ने साजिश के तहत कोरोना नहीं फैलाई, तो यह भी उतना ही सच है कि हिन्दू मुसलमानों का दुश्मन नहीं। डर है तो मौत का। इसमें तो कोई दो राय नहीं कि जमातियों ने मसले को छुपाया। और यह भी उतना ही सच है कि सरकार ने उनको समुचित इलाज उपलब्ध कराया। लेकिन इन सबके बीच जैसे जैसे वीडियो दोनों पक्ष की ओर से आये वह मन कसैला करते हैं और आप किसी को समझाने की स्थिति में नहीं रह जाते। 
हिंद पीढ़ी के एक मित्र का हाल जानने के लिए फोन किया था तो वे मुझ पर बरस गये। उनका गुस्सा जायज रहा होगा पर मेरी चिंता उकसाने वाली नहीं थी। उस मुहल्ले से 17 जमाती जिनमें विदेशी भी थे पकड़े गये हैं और कोरोना की दस्तक भी रांची में यही से शुरू हुई। आज झारखंड में 105 केस हैं जिनमें से 54 या 55 हिंद पीढ़ी से है। कारण है लापरवाही। लोगों ने समझदारी दिखायी होती तो ये नहीं होता। 
अरे भाई बीमारी है, धर्म को लेकर क्यों लड़ रहे। समझिए जिस दिन ये बीमारी नहीं होगी और खुदा ना खास्ता हम बच गये तो चर्चा कैसे करेंगे, किससे करेंगे। इसलिए नफरत कम करें। सांप्रदायिक और उकसाने वाले लोग दोनों तरफ हैं कोई दूध का धुला नहीं। शराब की खरीद में जो एकता दिखती है वो बीमारी से लड़ने में क्यों नहीं है भाइयों जागो। अब बहुत हुआ। यह देश हम सबका है, समझिए इसे हम ही संवार सकते हैं क्योंकि हम सब इसी धरती की संतान हैं जिनका डीएनए एक है भले ही जाति-धर्म अलग हो। 

सोमवार, 30 मार्च 2020

Covid19 कुछ अहम सवाल, जिनपर मंथन जरूरी है...

मैंने अपने जीवन में ऐसा दौर नहीं देखा था। ऐसा सन्नाटा ऐसी खाली सड़कें। लोगों के चेहरे पर एक अनजाना खौफ और एक दूसरे पर अविश्वास भी भरपूर। । हालांकि मैंने नेशनल इमरजेंसी और भारत-पाकिस्तान बंटवारे की खूब कहानियाँ सुनी लेकिन ऐसे किसी डिजास्टर को करीब से झेलने की यह पहली घटना है। कभी -कभी तो ऐसा महसूस होता है जैसे सबकुछ ठीक है हम झूठमूठ ही है पैनिक क्रियेट कर रहे हैं लेकिन अगले ही  पल मरने वालों का डाटा और संक्रमित मरीजों की संख्या हमें निगेटिव होने पर मजबूर कर देती है। 
चीन के दुकान प्रांत में सबसे पहले कोरोना वायरस से संक्रमित मरीज मिला और मात्र साढ़े तीन महीने में इस महामारी ने 30 हजार से ज्यादा लोगों को मौत की गोद में सुला दिया। सात लाख से ज्यादा लोग इस बीमारी से संक्रमित है। 
अमेरिका जैसा शक्ति शाली और विकसित देश भी खुद को इस संक्रमण से बचा नहीं पाया। हमारे देश में अबतक लगभग 11 सौ लोग इंफेक्टेड है और 29 की मौत सरकारी डाटा के अनुसार हुई है। 
यह क्यों और कैसे फैला यह आज के समय में सब लोग जान रहे हैं। कोरोना वायरस को लेकर चीन का रवैया सवालों के घेरे में है और वह खुद को बचाने के लिए अमेरिका को जिम्मेदार बता रहा है। बहरहाल सच क्या है यह कुछ समय में सामने आ ही जायेगा। मैं अभी कुछ सवाल उठाना चाहती हूं जिनपर विचार और काम करने की जरूरत मुझे प्रतीत होती है। 
1. Coronavirus के मरीज छुप क्यों रहे हैं: कोरोना के त्रासदी रीज क्वारेंटाइन होने मे ंडर रहे हैं। यहाँ तक कि वे अपने करीबियों को भी संक्रमित करने में गुरेज नहीं कर लिया। अस्पताल से भागकर वे अपना और देश का नुकसान कर रहे हैं। इसलिए सामने आइए कौरोना संक्रमण से 80 प्रतिशत लोग ठीक हो जाते हैं ऐसा स्वास्थ्य मंत्रालय का दावा है। तो डरें नहीं आत्मबल को मजबूत करें। 
2. देश में लगातार विदेशी नागरिक मस्जिदों से पकड़े गये हैं, वे आखिर किस उद्देश्य से यहाँ आये हैं और छुपकर क्यों हैं और उन्हें छिपाने के पीछे राज क्या है। आज दिल्ली में निजामुद्दीन से कुछ ऐसी ही खबर आयी जिसके कारण वहाँ दो सौ से ज्यादा लोगों के संक्रमित होने का खतरा है। आज रांची में भी मलयऐशिया, पोलैंड और वेतन इंडीज के 24 लोग पकड़े गये हैं। इससे पहले तमाड़ से 11 लोग पकड़े गये थे। 
3. पीएम मोदी का विरोध बाद में कर लें क्योंकि अभी वे अपु नागरिकों का सोच रहे उनकी सुरक्षा की बात कर रहे। जान है तो जहान है, इसलिए मोदी जी को नीचा दिखाने में खुद इतने नीचे ना गिरें की उठना मुश्किल हो जाये। बेशक अचानक आयी इस आपदा से गरीबों को बहुत दिक्कत हो रही है और सरकार जो कर रही है वह सभी को सहज उपलब्ध नहीं हैं और ही पर्याप्त भी। लेकिन घर में विपत्ति आने पर तो चना फांक कर रहने की परंपरा भी हमारे यहाँ है, तो निंदा बाद में करिएगा अभी तो साथ खड़े होने का वक्त है। देखिए सोनिया गांधी ने साथ खड़े होने का लेटर भी भिजवा दिया है। 
4. अपनी परंपरा और खान-पान को बचाने की जरूरत आज हर भारतीय महसूस कर रहा है। हाथ धोने और पैर धोने की सीख हम कुछ भूल रहे थे और शौच के बाद भी टिश्यू के आदी हो रहे थे लेकिन कोरोना ने स्पष्ट कर दिया कि ई रोकने कोरोना। तो अपनी परंपरा को अपनाएं तुलसी, हल्दी, गिलोय, लहसुन आपको एक सदी पीछे लेकर जाती है तो जायें लेकिन अपनी परंपरा का संरक्षण करें। इम्यून बिल्डर फूड खायें। 
5. चीन ने कोरोना वायरस और इसके  प्रभाव को जिस प्रकार पूरे विश्व से छुपाया उसमें चीन का हित क्या है? क्या यह सच में जैविक हथियार है जिसके दम पर चीन पूरे विश्व पर राज करेगा। यह विचार करने के योगय है। 
कोरोना पर हम पत्रकार आपको हर पल की खबर दे रहे हैं भले ही हमें अपना लुक चेंज करना पड़ा है। तो कृपया कोरोना लुक पर भी गौर करें आप सब, क्योंकि हम सब बड़ी मेहनत कर रहे। आखिर आपकी प्रशंसा ही हमारी पूंजी और ऊर्जा है। 

शनिवार, 21 मार्च 2020

बंटवारा

बंटवारा दर्द देता है
फिर चाहे वो देश का हो या रिश्तों का
बंटवारे में नहीं हो सकती समान भागेदारी
तब ही तो कई बार माँ के प्रेम में भी
बच्चे महसूस करते हैं अपनी उपेक्षा। 
बंटवारे के दर्द से उपजी हैं 
अनगिनत कहानियाँ-कविताएं
मैंने नहीं देखा देश विभाजन का दर्द
लेकिन रिश्तों के बंटवारे को महसूसा है। 
हम भूगोल नहीं बदल सकते, 
इसी तर्ज पर जीते रिश्तों को और 
छलकते आंसुओं को छूकर कई रात मैं भी जागी
यह समझने की कोशिश करती कि बंटवारा क्यों है जरूरी? 

रजनीश आनंद

शुक्रवार, 13 मार्च 2020

हम मुस्कुराने वाले...

जिंदगी प्रेमिका की उलझी लटें नहीं
जिसे आप सुलझाना चाहें मुस्कुरा कर
यह तो किसी वृद्धा के उलझे केश के गुच्छे हैं
जिसे सुलझाते हुए कई बार काटना भी पड़ता है
एक पीड़ा और भावुकता के साथ
जिंदगी वह काली स्लेट है, जिसपर नाम और ख्वाहिशें
आंसुओं के डस्टर से पोंछे जाने के बाद ही
स्पष्ट लिखी जा सकती हैं, ऐसा क्यों? 
यह पूछने का अधिकार नहीं हमें
सिर्फ हर घटित पर प्रतिक्रिया के अधिकारी हम
आंसुओं को पीकर, हम मुस्कुराने वाले... 

रजनीश आनंद