कान उमेठता है और कहता है
उठो कि अब सोना जरूरी नहींं तुम्हारा
मिश्री से धुली इस डांट के साथ मैं
फेंक देती हूं आलस की चादर
और उमड़ पड़ती हूं
व्यस्त दिनचर्या के बीच
उस पंछी की तरह जो
सूरज के आने की आहट मात्र से ही
चहचहा कर घोंसला छोड़ निकल पड़ते है
पंख फैलाए खुले आकाश में
दाना-पानी का इंतजाम करने
मैं भी तो फिरती हूं जग में
दाना -पानी के जुगाड़ में
कई समझौते करती,
स्वाभिमान को ठेस पहुंचाती
लेकिन यह स्थिति बेचैन करती है
कभी-कभी फफक उठती हूं
लेकिन कहती है यह चोटिल आत्मा
ना निराश हो, वो दिन भी आयेगा
जब खिलेगी उम्मीद की धूप
और चोटिल ना होगा स्वाभिमान
ताकि तुम भी पंख फैला सको
इस विस्तृत आकाश में...
27-04-17