गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

उम्मीद की धूप...

हर सुबह जब सूरज आकर
कान उमेठता है और कहता है
उठो कि अब सोना जरूरी नहींं तुम्हारा
मिश्री से धुली इस डांट के साथ मैं
फेंक देती हूं आलस की चादर
और उमड़ पड़ती हूं
व्यस्त दिनचर्या के बीच
उस पंछी की तरह जो
सूरज के आने की आहट मात्र से ही
चहचहा कर घोंसला छोड़ निकल पड़ते है
पंख फैलाए खुले आकाश में
दाना-पानी का इंतजाम करने
मैं भी तो फिरती हूं जग में
दाना -पानी के जुगाड़ में
कई समझौते करती,
स्वाभिमान को ठेस पहुंचाती
लेकिन यह स्थिति बेचैन करती है
कभी-कभी फफक उठती हूं
लेकिन कहती है यह चोटिल आत्मा
ना निराश हो, वो दिन भी आयेगा
जब खिलेगी उम्मीद की धूप
और चोटिल ना होगा स्वाभिमान
ताकि तुम भी पंख फैला सको
इस विस्तृत आकाश में...
रजनीश आनंद
27-04-17

गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

...जो गुलाब दिया तुमने

आज तुमने जो गुलाब दिया मुझे
उसे हाथ में लेकर देखा मैंने
उसकी खूबसूरती में तो कोई
कमी नहीं आयी थी
ना ही उसकी खुशबू ढली थी
तुम्हारे हाथों से स्पर्श का
सुकून भी लेकर आया था फूल
फिर ऐसा क्या हुआ कि
उसके स्पर्श में तुम्हारी
छुअन महसूस ना हुई
खुशबू में तुम्हारी महक ना थी
हमारे सजीव प्रेम का साक्षी
प्रतीत नहीं हुआ मुझे
लगा जैसे किसी निर्जीव
हो चले पौधे का फूल हो
मुरझाया सा.
रिश्ते का पौधा भी पनपता है
सही रखरखाव और प्रेम के बीच
उपेक्षा,तिरस्कार से उजड़़ जाती है हर बगिया
फिर मुरझाये फूल शेष रहते हैं
रंगहीन, गंधहीन
यह बताने को कि कभी गुलजार था ये चमन
यही सोच मैंने उस गुलाब को
रख दिया अपनी जिंदगी की
उस किताब के बीच,जिसके पन्ने अब मैं नहीं पलटती...
रजनीश आनंद
20-04-17

शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017

प्यार का कमरा

प्यार के कमरे की बहुत चाह है मुझे
जब भी कागज पर उसे उकेरा
प्यार के लाल रंग से उसे भर दिया करती हूं
एक छोटा सा सुंदर कमरा
जहां करीने से सजा होगा हमारा प्यार
जैसे बगिया में सजे होते हैं फूल
एक प्यारी सी खिड़की होगी
जिससे सटा होगा हमारा पलंग
उस पलंग पर बैठ मैं
देखूंगी बाहर आते-जाते लोगों को
करूंगी तुम्हारा इंतजार
हमारी बगिया के फूलों को रौशनी
तब मिलेगी जब तुम्हारे आने से
सूरज आकाश में चमकेगा
जानते हो ये ऐसे फूल हैं
जिनमें मौजूद है खुशबू तुम्हारे तन की
जो मदहोश करते हैं मुझे
इस कमरे की मलिका मैं
जब करना चाहती हूं श्रृंगार
तो रूप निहारने के लिए
आईना बनती हैं आंखें तुम्हारी
होठों की लाली तब खिलती है
जब हौले से तुम्हारी हाथोंं का
स्पर्श मिलता है इन्हें
पैरों में  पायल तब छनकते हैं
जब दरवाजे पर दस्तक देते हो तुम
इस कमरे की हर दीवार पर लिखा है
नाम मेरा और तुम्हारा
जिसे देखने के लिए दो जोड़ी आंखें काफी नहीं
इस कमरे की होली,दीवालीऔर ईद
तो तब होती है जब तुम बांहों में भरते हो मुझे...
रजनीश आनंद
14-04-17

गुरुवार, 13 अप्रैल 2017

मेरी जगह, तुम्हारे दिल में

हां मैं चाहती हूं थाम कर हाथ
तुम्हारा चलना, तो क्या हुआ
कि कभी महसूस ना कर पायी
गरमाहट तुम्हारी हथेलियों की
पर जिंदा है मेरे अंदर जिजीविषा
उन हथेलियों के बीच समाकर
तुम्हारा मुख तकने की
उन आंखों में तलाश करनी है
मुझे अपनी जगह,जिसमें सिमटी है दुनिया मेरी
हां , इन आंखों में है मेरी जगह
साफ दिखता है मुझे जब भी
मैं डूबकर इनमें देखती हूं
मेरी तसवीर साफ नजर आती है...
रजनीश आनंद
13-04-17

मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

बोंसाई

बनावटी चेहरा लिये
मैं एक औरत हूं
असली चेहरा तो
कहीं गुम हो गया है
बचपन से ही बंधनों में
जीने की आदत सी है
ना तो खुलकर हंसने दिया गया ना रोने
हंसी, तो इतना क्यों हंसती हो?
रो लिया, तो बेवजह रोती हो
विचार रखे, तो बकबक ना करने की हिदायत
और फिर बोंसाई बन गयी शख्सीयत मेरी
हैरत इस बात की है , बोंसाई में चाहिए
इन्हें विशाल वृक्ष के गुण
अरे सीमित व्यक्तित्व से इतनी अपेक्षाएं क्यों?
मुझे अपने खांजे में खुश रहने दो
लेकिन नहीं किसी को
मेरा काला रंग नहीं भाता
तो किसी को कद
सोचती हूं सुंदर और बदसूरत
सिर्फ औरत ही क्यों होती है?
लेकिन आज मैं सारे बंधन तोड़
खिलखिलाना चाहती हूं
जिन्होंने मुझे बोंसाई बना
ड्राइंग रूम में सजा दिया
उन सब हंसना चाहती हूं
क्योंकि मैंने आज तय किया है
अपने शरीर पर से उन सारे
बंधनों को हटा दूंगी
जो बनाते हैं मुझे खूबसूरत बोंसाई...
रजनीश आनंद
11-04-17

शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

जीते तो हम तब भी थे...

जीते तो हम तब भी  थे जब
चांद आकाश में दौड़ता नहीं था
पर अब तो चांद अठखेलियां करता है
कभी पूरे चेहरे के साथ रौशन रहता है
तो कभी दूज का चांद बना फिरता है
मैं भागना चाहती हूं  संग उसके
लेकिन मेरी और उसकी रफ्तार कहां मेल खाती है
वो आकाशवासी मैं धरती निवासी
पर कुछ तो है जो एकसार रखती है हमें
मैंने कई दफा पूछा उससे
बोलो तो मैं क्यो भागती हूं जानिब तुम्हारे
क्या होगा इसका हासिल?
कहता वो कुछ नहीं, सिवाय इसके
कि अब तो जीवन भर के लिए है यह मैराथन
भागो क्योंकि भागना ही जिंदगी है
उसकी जलती नजरें, दूर से भी देती हैं गरमाहट
और मैं भागना शुरू कर देती हूं
बिना सोचे कि क्या होगा इसका परिणाम
वो मुस्कुराता है और मैं उन दिनों को पीछे छोड़ आती हूं
जब चांद आकाश में दौड़ता नहीं था...
रजनीश आनंद
07-04-17

सोमवार, 3 अप्रैल 2017

...कि आ जाओ तुम...

तुम्हें याद हैं वो रातें?
जब एक दूसरे में खोये रहते थे हम
मेरे खुले बालों को धीरे से
मेरे चेहरे से यूं हटाते थे तुम
मानों चांद पर से बादलों को
सरकाने की कोशिश कर रहा हो आसमान
मैं पीछे से लिपट जाती थी तुमसे
इसलिए ताकि सामना ना हो
तुम्हारी नजरों से , बहुत दुष्ट हैं
छिन लेती हैं मुझे सब से और मैं बेबस
याद है तुम्हें मुझे भाता है
तुम्हारी पीठ पर अपना नाम लिखना
लेकिन कितनी रातें मैं बेनाम रही
तुम्हारी पीठ का स्लेट जो नहीं था पास मेरे
आकर देख तो जाओ
तुम्हारी जूठी चाय के लिए
मेरा दिल अब भी मचलता है
उसकी मिठास अब भी घुली हुई है मेरे मन में
कई रातों से मेरे होंठ हैं अकेले
क्योंकि तुमने अंकित नहीं की अपनी निशानी
अब बस भी करो, ना बुरा मानो किसी बात का
आ जाओ क्योंकि कायम है
हमारा प्रेम और उसकी कशिश...

रजनीश आनंद
03-04-17