गुरुवार, 29 जून 2017

मैं कविताएं लिखती हूं...

मैं कविताएं लिखती हूं
अक्षर-अक्षर तुम में भींगी
बिनती हूं तिनका-तिनका
जो मिल जाये तुम्हारे प्रेम का
बया की तरह बुन लूंगी मैं
घोंसला हमारे प्रेम का
जो रौशन होगा तुम्हारे ठहाकों से
जहां बसती होगी खुशबू
हमारे अनोखे प्रेम की
जहां नहीं रिसेगा दर्द कोई
बस तड़प होगी तो मिलन की
आस में उस पल के
जब भी मैं आहें भरती हूं
प्रतीत होता है जैसे
मेरे प्रेम की छींटे
तुम्हें सराबोर करती हैं
विनती बस है इतनी सी
तौलिए से पोंछ हटाना नहीं
तुम इन प्यार के छींटों को...
रजनीश आनंद
29-06-17

सोमवार, 26 जून 2017

मैं पत्र तुम्हारे नाम लिखूं...

जी चाहता है एक
पत्र लिखूं मैं तुम्हारे नाम
अपनी नीली कलम से
जो बहुत प्रिय है मुझे
पता नहीं क्या बात है
इस कलम में जब भी
थामती हूं मैं इसे
यह समझ लेती है मेरी मनोस्थिति
और उकेरती है मेरे मन की बात कागज पर
जैसे कि तुम पढ़ लेते हो
बिना कहे मेरे मन की बात
फिर सोचती हूं
फेसबुक,व्हाट्‌सएप के युग में
क्या तुम पढ़ोगे मेरा पत्र
लेकिन यह पत्र आभासी नहीं
सजीव है, जिसे मैं लिख रही हूं
तुम्हारे नाम अपनी कलम से
मैंने चूमा है अपनी कलम को
और सीने से लगाया है उस कोरे कागज को
जिसपर लिखूंगी मैं अपने मन की बात
कागज पर ज्योंही मैंने लिखा तुम्हारा नाम
भावनाएं कुछ यूं उमड़ीं कि
जहां लिखा था तुम्हारा नाम
वहीं बरस पड़े अश्रु
यह आंसू नहीं मेरा प्रेम है तुम्हारे लिए
इसलिए इनसे मुंह ना मोड़ना
सीने से लगाकर देखना पत्र को
मेरी धड़कनें सुनाई देंगी तुम्हें
और महसूस कर सकोगे मेरे प्रेम की खुशबू
यह प्रेम का दिखावा नहीं, ना तो अति है
क्योंकि मेरा प्रेम दिखावे का मोहताज नहीं
हां, अति तो शायद कभी ना होगी प्रेम की
क्योंकि हर पल मुझे लगता है
जैसे तुमसे मन भर प्यार ना कर पायी मैं
जब मिले यह पत्र तुम्हें
बस इतना करना तुम
पढ़ना इसे मेरा सच समझ कर
और कहना बस एक बात
मुझे तुमसे प्रेम है...

रजनीश आनंद
26-06-17

बुधवार, 21 जून 2017

मैंने दुनिया खरीदी...

मैंने आज दुनिया खरीदी,
वह भी गुल्लक से सौ रुपये निकालकर
इन रुपयों को संजोया था मैंने
हर सिक्के को गुल्लक में डाल
मैं बन जाती थी एक औरत
और सजाती थी कई सपने
कई ख्वाहिशें भी जनमींं
पर उनका बेदर्दी से हुआ कत्ल
लेकिन आज वो औरत कब्र से जागी है
और एक बार जीना चाहती है
अपने सपनों के साथ
क्योंकि उसने पाया है
प्रेम और अधिकार तुम्हारा
इस सौ रुपये से लिपटे हैं
मेरे अनगिनत सपने
लाल, गुलाबी, नीले, पीले
मैं इन सपनों को साकार करूंगी
तुम्हारी आंखों में डूबकर
क्योंकि मैं तुम्हारी हूं...
रजनीश आनंद
21-06-17

सोमवार, 19 जून 2017

अनगिनत रंग

मौत बेरंग होती है
रुखी, नीरस
कफन का सफेद रंग
छीन लेता है होंठों की खुशी
लेकिन मौत नहींं लूट सकती
किसी के जज्बे को
जीवन के प्रति
उसके प्रेम को
मौत की उदासी पर
कई गुणा भारी है
इंसान की संकल्पशक्ति
तभी तो देखा मैंने
उस औरत की आंंखों में
मौत को परास्त करने की तिश्नगी
मौत ले भागी है उसके
सिंदूर का लाल रंग
धुल गयी है कपड़े की रंगीनी
लेकिन वह हारी नहीं
वह देगी अपने बच्चों के भविष्य को
सुंदर रंगीन मंच
जहां से साफ दिखेगा
एक औरत का संघर्ष
और उसके जीवन के अनगिनत रंग...
रजनीश आनंद
19-06-17

रविवार, 18 जून 2017

जिंंदगी की थाली...

जिंदगी की थाली में
व्यंजन तो कई थे
लेकिन रसोइये ने
नमक ना डालने की
भूल कर दी थी
सब फीका-फीका सा था
हर कौर को उठाकर
जब मुख तक लाती मैं
बेस्वाद है ऐसा बोल पड़ती थी
जिह्वा मेरी, लेकिन
भोजन को सुस्वादु बनाने में
ना जाने क्यों रुचि नहींं थी मेरी
सफर-ए-जिंदगी के बीच में
आया एक राहगीर
मेरे व्यंजनों पर उसने दौड़ाई नजर
हौले से मुस्काया
फिर ना जाने उसे क्या सूझी
एक तेज फूंक मारी उसने
मेरी बेस्वाद थाली पर
और
अगले ही स्टेशन पर गया उतर
उसके जाने पर ज्योंही
मैंने थाली से उठाया
एक कौर और रखा जिह्वा पर
भोजन के स्वाद से
मुख के साथ-साथ
पूरा तन-बदन रोमांचित हुआ
फूंक का रहस्य जो समझी मैं
भागी उस राहगीर के पीछे
लेकिन वो जा चुका था
मेरी थाली के व्यंजनों में
नमक छिड़ककर
मुझे मिली मात्र उसके
फूंक की सुंगध
जिससे सराबोर मैं
आजीवन लिख लिया
हृदय पर नाम
उस राहगीर का...
रजनीश आनंद
18-07-17

गुरुवार, 15 जून 2017

तो जन्म लेती है दूसरी आस...

आज मैंने देखा अपनी जड़ों से
उखड़ कर बिखरे बूढ़े बरगद को
आह निकल आयी, आते-जाते
राह में रोज होती थी उससे मुलाकात
मैंने देखा था उसे शान से लहलहाते हुए
उसके हरे पत्तों पर, जीवन ठहराता था
लंबी जटाओं में बचपन उमड़ता था
जिन कदमों की शक्ति हो रही थी क्षीण
वे भी सानिध्य में इसके पाते थे अपनापन
दो पल को जी लेते थे, ठिठक कर
तुम भी तो एक दुपहरी इसकी छांव में
मेरी गोद में सिर रखकर लेटे थे सुकून से
कुछ पल के लिए ही सही पनपा था प्यार हमारा
हमारे जिस प्रेम पर लोग उठाते हैं सवाल
उसपर भी स्नेह बरसाया था इसने
बस, उसी दिन से यह बरगद
पिता तुल्य हो गया था मेरे लिए
आज जब देखा, इसकी एक शाखा पर चलते कुल्हाड़ी
चीख उठी थी मैं, मत करो यह अनर्थ
भाग कर लिपट गयी थी उसके टूटे तने से
चीत्कार उठा था मन
अश्रु जो बरसे तो धुली आंखों से देखा
मैंने एक सुंदर दृश्य, नन्हा बरगद
हां, बूढ़े बरगद की जड़ों से फूटा था नन्हा पौधा
उसमें थी अद्‌भुत जीवंतता, जैसे कह रही हो
जीवन थमता नहीं, एक उम्मीद टूटती है
तो जन्म लेती है दूसरी आस...

रजनीश आनंद
15-06-17

सोमवार, 12 जून 2017

...फिर चाहे बेहया क्योंं ना कहलाऊँ मैं

आज बहुत दिनों बाद
अट्टाहस करना चाहता है मन
एकदम बेफिक्री में, बिना विचारे
मैं नहींं सोचना चाहती
कितनी जोर से खिलखिलाऊं
ताकि बेशर्म ना कहलाऊं मैं
होठों के किनारों को
कहां तक खींच कर ले जाऊं
कि पोशीदा रहे परिवार की आबरू
मैं तो उसकी बांहें थामकर
फिरना चाहती हूं सड़कों पर
चाहती हूं भटकना जंगल, पहाड़, नदियां
जो नहीं है मेरे जात का, प्रांत का
पर मेरे दिल से उसका नाता
मैं संग उसके साड़ी खरीदूंगी और शार्ट्स भी
दिल से आयेगी आवाज तो चूम भी लूंगी उसे
आज प्रेम प्रदर्शन का शौक हुआ है
फिर चाहे बेहया, बेशर्म ही
क्यों ना कहलाऊं मैं
मैंं अब वह सब करूंगी
जिसे बचपन से आज तक
मैंने सीने में दफन किया
संगीत पर अकेली नाच भी लूंगी
आईने में खुद को देख इतरा भी लूंगी
आंखों में काजल डाल भी लूंगी
होठों को सुर्ख लाल भी करूंगी
खुश हूं क्योंंकि मिला है
स्वनिर्णय का खजाना
जिसे अब छुपाऊंगी नहीं,लुटाऊंगी मैं...
रजनीश आनंद
12-06-17

शनिवार, 10 जून 2017

इस डर से नहींं सजाती हिना...

चांद पूनम का हो,दूज का हो
या फिर बदली मेंं छिपा क्यों ना हो
कमतर नहीं होती उसकी खूबसूरती
जैसे तुम पास हो, बांहों में हो या फिर
सैकड़ों मील दूर, कसक कम नहींं होती
तुम्हारे प्यार की, एहसास की.

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सोचती हूं कैसे खुशनसीब हैं वो
जो प्यार की अति से ऊब जाते हैं
हम तो उनकी एक नजर के लिए भी
हरपल तरसते रहते हैं.
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वर्षों हुए हाथोंं में मेहंदी सजाये
उसका सुर्ख रंग भाता नहीं मुझे
यह भी सच नहींं, पर इस डर से
नहींं सजाती हिना कि जो तुम पास ना होगे
तो कौन संवारेगा मेरी बिखरी जुल्फों को.

रजनीश आनंद
10-06-17