मंगलवार, 28 जून 2016

प्रेम और औरत

जैसा कि मैंने आपको पहले भी बताया है कि इस कॉलम में मैं सिर्फ नारी मन की बात कहने वाली हूं. भले ही वह पुरुषों से संबंधित हो, फिर भी मैं दृष्टिकोण एकतरफा होगा. ऐसा इसलिए कि पुरुषों का यह मानना है कि कोई नारी पुरुष के विचार को कैसे अभिव्यक्त कर सकती है. सही है. मैं इस बात से इत्तेफाक रखती हूं. स्त्री-पुरुष का जीवन इस तरह एक दूसरे से जुड़ा है कि दोनों एक दूसरे से शिद्दत से मोहब्बत करते हैं. दोनों का जीवन एक दूसरे के बिना अपूर्ण है, इसलिए मैं आज पुरुषों से विरोध की नहीं, उनसे नफरत की बात करूंगी.

‘प्रेम’ अद्‌भुत एहसास है. इसे महज रासायनिक क्रिया कहकर परिभाषित नहीं किया जा सकता. अगर यह सिर्फ इतना ही होता तो इसका ‘सरवाइव’ करना थोड़ा मुश्किल होता. क्या विज्ञान आपको यह बता है कि कि एक इंसान दूसरे इंसान का हाथ थामे भूखे-प्यासे घंटों क्यों बैठा रह जाता है? मुझे पता है नहीं बता सकता है, दरअसल यह प्रेम है जनाब! जब एक बच्चे को चोट लगती है तो उसकी मां कराह उठती है, क्यों? क्योंकि यह प्रेम का संबंध है. तो एक बार दिल/दिमाग जहां से भी प्रेम की शुरुआत आप मानते हैं, उसपर जोर डालिए और उससे पूछिए आपके जीवन में प्रेम के क्या मायने हैं, तब तक मैं अपनी बात कहती हूं.

आपने अमिताभ बच्चन की शराबी देखी है, उसमें वे एक डायलॉग बोलते हैं, हमारी जिंदगी का तंबू, तीन बंबुओं पर खड़ा है-शराब, शायरी और आप. मैं भी उसी तर्ज पर कहना चाहती हूं कि हमारी जिंदगी का तंबू, तीन बंबुओं पर खड़ा है-परिवार, पत्रकारिता और प्रेम. इस इक्वेशन में कॉमन फैक्टर है प्रेम. मुझे अपने परिवार, पत्रकारिता और प्रेम से प्रेम है. चूंकि मैं एक औरत का दृष्टिकोण बता रही हूं, इसलिए यह कहना चाहती हूं कि एक आम औरत प्रेम को लेकर काफी गंभीर होती है. अपवाद हर जगह है मैं उनकी चर्चा नहीं कर रही हूं. लड़कियों के लिए प्यार उनकी लाइफलाइन होता है और इसे संजोने के लिए वह कुछ भी करती है.

छोटा सा उदाहरण देखें- अगर कोई लड़की मीठा नहीं खाती और उसे सिर्फ नमकीन ही पसंद था वह भी प्यार में पड़कर नमकीन खाने लगती है. जींस पहनने वाली साड़ी और साड़ी वाली जींस पहनकर चहकने लगती है. मैंने कई शाकाहारियों को मांसाहारी और मांसाहारी को शाकाहारी बनते देखा है. विशेष बात यह है कि ऐसा महिलाएं खीज से नहीं करतीं, बल्कि प्रेम से खुश होकर करती हैं.

महिलाएं प्रेम में पड़कर हर छोटी से छोटी बात को भी संजोकर रखना चाहती हैं. हो सकता है, वह छोटी बात उसके पति/प्रेमी का कोई छोटा सा वाक्य ही क्यों ना हो. एक बात और एक औरत एक समय में एक ही व्यक्ति से प्यार कर सकती है, इससे ज्यादा उससे संभव नहीं.अपवाद हो सकता है, लेकिन यह एक टफ टास्क ही होगा उसके लिए.

तो लब्बोलुआब यह है कि औरत प्रेम के बिना नहीं जी सकती, फिर चाहे वो प्रेम उसे प्रत्यक्ष मिले या अप्रत्यक्ष. अप्रत्यक्ष इसलिए कहा क्योंकि कई महिलाएं वर्षों गुजार देती हैं अकेले अपने प्रेम की याद में उन्हें प्रत्यक्ष प्रेम कभी नसीब नहीं होता, तो उसकी उम्मीद रहती है. आपका क्या कहना है इस बारे में?

रविवार, 26 जून 2016

एक बार प्रिये जो आ जाते...


एक बार प्रिये जो आ जाते
दिन में चांदनी बिखर जाती
बन चकोर अपलक निहारती मैं
तनमन की पीड़ा कुछ बुझ जाती
एक बार प्रिये जो आ जाते...
मधुमास जीवन में आ जाता
बन चंचल हवा इतराती मैं
तुम संग रास रचा लेती
एक बार प्रिये जो आज जाते...
पलकों पर रूके अश्रु ढलक जाते
हृदय की पीड़ा कुछ क्षीण होती
कुछ तुम कहते, कुछ मैं कहती
एक बार प्रिये जो आ जाते...
कुछ हंसी ठिठोली हो जाती
जब तुमसे प्रेम पाने को मैं यूं ही तुमसे रूठ जाती
तब सीने से लगाकर तुम मुझको झट मना लेते
एक बार प्रिये जो आते...

2
जब मैं तुम्हें देखती हूं ना प्रिये
तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे
तुम्हारे नख से शिख तक मैं ही मैं हूं
मुझे एहसास होता है तुम मेरे कान्हा
और मैं तुम्हारी मीरा हूं
जानते हो तुम्हारे सिर पर जो यह मोर मुकुट है
वो मेरे प्रेम का पहला चुंबन है
तुम्हारे गले में जो फूलों की माला है
वो तो मेरी बांहें हैं
जिसे प्यार से मैंने तुम्हारे गले में डाला है
 ये जो पीतांबर तुमने पहना है,दरअसल ये तो मैं हूं
जो पीले वस्त्रों में तुमसे लिपटी हूं
ये जो तुम्हारे पैर सिंदूरी नजर आते हैं, वो किसी श्रृंगार से नहीं
दरअसल वो मेरे मांग का सिंदूर है
जो प्रेम निवेदन के वक्त तुम्हारे पैरों को छू गया
मुझे तो तुम में सिर्फ मैं ही मैं नजर आती हूं
अब तुम ही बताओ ना क्या मैं भ्रम में हूं
या तुम सच में मुझे स्वीकारते हो
बोलो ना प्रिये, एक बार तो बोल दो...

रजनीश आनंद
27-06-16

शुक्रवार, 24 जून 2016

आओ ना प्रिये...

आह, वो तुम्हारी छुअन
एहसास मात्र से रोमांचित हो जाती हूं मैं
जैसे भौरें ने छू लिया हो पुष्प को
जैसे तपती धरती को बारिश की पहली फुहार ने
जैसे कोई पंछी पहली बार उड़ा हो आकाश में
अद्‌भुत हो तुम, तुम्हारी बातें
कैसे कहूं कितना प्रेम है तुमसे
क्योंकि मैं खुद भी तो नहीं जानती
बस प्रतीत होता है प्रेम का सागर हो तुम
और मैं एक नदी, जिसे तुमसे मिलने की है तड़प
प्रेम पूर्ण है मेरा अस्तित्व
आओ ना समेट लो मुझे अपनी बांहों में
रीत जाये यूं ही जिंदगी
ना रह जाये, मैं-तुम का एहसास
मै तुममें और तुम मुझसे जायें घुलमिल
तुम्हारी छुअन जब बन चुंबन उतरे मेरे अधरों पर
मौन बन जाये, हमारे लिए वरदान
उस एक पल में मैं जी लूं,पूरी जिंदगी
आओ ना प्रिये, अपनी छुअन से कर दो मुझे सराबोर
रजनीश आनंद
24-06-16

मंगलवार, 21 जून 2016

आखिर इज्जत महिलाओं की ही क्यों जाती है, पुरुषों की क्यों नहीं जाती?

बलात्कार का अर्थ होता है बल पूर्वक किया गया कार्य. जिसमें हमेशा सहानुभूति पीड़ित के प्रति होती है. लेकिन समय के साथ ‘बलात्कार’ शब्द रूढ़ हो गया और इसका अर्थ अब सिर्फ एक महिेला के साथ जबरन शारीरिक संबंध बनाना रह गया है. किसी महिला को बल पूर्वक हासिल करने और प्रेमपूर्वक हासिल करने में क्रिया भले ही एक होती हो, लेकिन दोनों में जमीन-आसमान का फर्क होता है और यह बात हर पुरुष को समझनी चाहिए. लेकिन अकसर यह देखा गया है कि एक आम पुरुष इस फर्क को समझ नहीं पाता. उसे तो दोनों बातें एक ही लगती हैं, जबकि सच्चाई इससे इतर है. मेरा ऐसा मानना है कि जबरदस्ती तो एक सेक्स वर्कर के साथ भी नहीं होनी चाहिए.

एक पुरुष जबरदस्ती के दर्द को इसलिए नहीं समझ पाता है क्योंकि उसके साथ अमूमन जबरदस्ती होती नहीं है. अगर एक बार वह जबरदस्ती के दर्द को झेल जाये, तो फिर वह किसी बलात्कार पीड़िता का मजाक उड़ाने से पहले सौ बार सोचेगा. निसंदेह बलात्कार एक गंभीर अपराध है, लेकिन आज भी हमारा समाज इसे अपराध की तरह नहीं लेता है. जब अखबार में बलात्कार की खबर छपती है तो लोग उसे दुख या सहानुभूति से नहीं पढ़ते, बल्कि उन्हें यह सनसनी लगती है और कई बार लोग इसे चटखारे लेकर भी पढ़ते हैं और पीड़ित महिला के प्रति उनमें कोई संवेदना नहीं जगती.

यह स्थिति तब तक नहीं बदलेगी जब तक बलात्कार को महिलाओं की इज्जत से जोड़कर देखा जायेगा. बलात्कार दरअसल एक अपराध है जिसमें महिला की कोई गलती नहीं होती, तो ऐसे में उसे महिला की इज्जत चली गयी और उसे अब जीने का कोई हक नहीं जैसे सोच को बदलना होगा. जिस दिन हम बलात्कार को एक सामान्य अपराध की तरह देखेंगे, महिलाओं के प्रति अपराध घटेगा. पुरुषवादी सोच के विस्तार के कारण हमारे समाज में लड़कियों को शुरू से यही सिखाया जाता है कि कुछ ऐसा ना करो कि बदनामी हो जाये. लेकिन लड़कों पर यह लगाम कभी नहीं कसी जाती.

पश्चिमी देशों में बलात्कार को महिलाओं की इज्जत से नहीं जोड़ा जाता और ना ही यह कहा जाता है कि अब उन्हें जीने का कोई हक नहीं है. इसलिए वहां पीड़ित महिला सामाजिक बहिष्कार का शिकार नहीं होती, लेकिन हमारे देश में तो महिला  को ही इस अपराध की जननी तक बता दिया जाता है. उसकी पहचान छुपाई जाती है. क्यों? क्योंकि उसकी इज्जत चली गयी है उसकी बदनामी होगी. अरे कोई उस मर्द से क्यों नहीं पूछता कि उसकी इज्जत इस अपराध के बाद बढ़ कैसे जाती है? ये तो वही हो गया कि करे कोई भरे कोई.अद्‌भुत है भारतीय समाज. इसके लिए पुरुष आगे नहीं आयेंगे. महिलाएं अपनी सोच बदलें. बलात्कार को अपने साथ हुए एक अपराध के तौर पर लें. इसके लिए उन्हें जान देने की जरूरत नहीं है, उनका ऐसा कुछ नहीं खोया है.
रजनीश आनंद
21-06-16


...ताकि संपूर्ण हो हमारा प्रेम

ए सुनो ना प्रिये
क्या तुमने कभी घड़ी की सुइयों को ध्यान से देखा है
वे अनथक एक दूसरे के पीछे भागती हैं
मिलन की चाह में
भले ही उनकी मिलन बेला क्षणिक  होती हो
लेकिन उनका प्रेम देखो
मिलन की आस में बस चलना जानती हैं
एक दूसरे के स्पर्श की असीम चाह लिये
गौर से देखो इन्हें
एक है इनकी धुरी
भले ही साथ ना मिलता हो इन्हें हमेशा
लेकिन धुरी पर एक दूसरे को कसे रहती हैं
मानों जीवन की डोर बंधी हो
मेरा-तुम्हारा प्रेम भी तो कुछ ऐसा ही है
मिलन के अवसर कम हैं
लेकिन
हाय, हमारे प्रेम का उद्वेग देखो
मिलन की तड़प को महसूस करो
सुनो ना,जब एकाकार होंगे हम
तब कहना ना तुम इन घड़ी की सुइयों से
एक ही नाव पर सवार हैं हम
बख्श दो हमें थम जाओ कुछ पल
जी लेने दो, ताकि संपूर्ण हो हमारा प्रेम
चांद और चकोर की तरह नहीं
कमल और भौंरे की तरह ...
रजनीश आनंद
21-06-16

सोमवार, 20 जून 2016

राजनीति में महिला

ईश्वर ने या यू कहें कि प्रकृति ने जब स्त्री-पुरुष की रचना की तो दोनों को एक-दूसरे का पूरक बनाया. संभवत: पहले दोनों को एक ही बनाया होगा फिर दोनों को अलग-अलग स्वरूप प्रदान किया. दोनों इस कदर एक दूसरे से जुड़े हैं कि कोई काम एक दूसरे के बिना कर ही नहीं पाते.

‘हम बने तुम बने एक दूजे के लिए’ की स्थिति के बावजूद पता नहीं क्यों पुरुष को यह अहंकार घर कर गया है कि वह श्रेष्ठ है. अपनी शारीरिक बनावट का फायदा उठाते हुए उसने नारी को दबाना शुरू किया और वह श्रेष्ठ होता गया और नारी दोयम.

इस स्थिति के कारण ही पूरी दुनिया में नारी की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति बिगड़ती गयी. पुरुष ने धर्म और राजनीति को अपनी गिरफ्त में कर लिया, चूंकि हमारी नीति और रीति दोनों इन्हीं पर आधारित है इसलिए पूरा समाज उसकी गिरफ्त में चला गया. नारी उसकी पूरक से मात्र संतति उत्पन्न करने का जरिया और भोग्या बनकर रह गयी.

बात अगर राजनीति की करें, तो नारी को राजनीति में जगह बनाने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा है. पश्चिमी देश जो खुद को ज्यादा विकसित और आधुनिक बताते हैं उन्होंने भी महिलाओं को राजनीति में की- पोस्ट देने से परहेज किया. अमेरिका, फ्रांस, रूस जैसे देश में अभी तक कोई महिला की-पोस्ट पर नहीं बैठ पायी. हालांकि ब्रिटेन और जर्मनी में मार्गेट थैचर और एंजेला मार्केल को मौका मिला. इस बार अमेरिका में हिलेरी क्लिंटन राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी की रेस में हैं और अगर वह राष्ट्रपति बनती हैं, तो यह इतिहास ही होगा, क्योंकि अमेरिका में अभी तक कोई महिला राष्ट्रपति नहीं बन पायी है.

जहां तक बात एशियाई देशों की है तो जिसे तीसरी दुनिया कहा जाता है वहां के लोगों ने ही महिलाओं को ज्यादा मौका दिया है. भारतीय राजनीति में सरोजनी नायडू, विजयालक्ष्मी पंडित, इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी, मायावती, जयललिता, ममता बनर्जी जैसी कई नेत्रियों को मौका दिया. पाकिस्तान जैसे देश में भी बेनजीर भुट्टो प्रधानमंत्री बनीं.  बांग्लादेश में भी शेख हसीना और खालिदा जिया का नाम सामने है. भारत में तो मध्ययुग में भी रजिया सुल्तान जैसी शासक हुई हैं, भले ही अल्प अवधि के लिए.

लेकिन अगर हम बात वर्तमान की करें, तो यह कहा जा सकता है कि एक आदमी भारतीय महिला चाहे वह कितनी भी प्रतिभावान क्यों ना हो, उसके लिए राजनीति में पैठ बनाना और की-पोस्ट तक पहुंचना आसान नहीं है. इसके लिए उसे परिवार और गॉड फादर की जरूरत होगी.

राजनीति में महिलाओं की उपस्थिति बढ़ाने के उद्देश्य से उनके लिए  33 प्रतिशत आरक्षण की मांग तो की जा रही है, लेकिन इस मुद्दे पर सभी राजनीतिक दल एक हैं और महिला आरक्षण विधेयक को पास नहीं करने को लेकर एकमत हैं. ऐसी स्थिति में आम भारतीय महिला के लिए राजनीति में पैठ बनाना मुश्किल सा है.
हालांकि पंचायतों में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है, लेकिन यहां भी मुखियापति जैसे पद महिलाओं की राह में बाधा ही बनते हैं.
रजनीश आनंद
20-06-16

शनिवार, 18 जून 2016

प्रेरणा

मेरे लिए रिश्ते बहुत मायने रखते हैं. इसलिए मैं चुनिंदा रिश्ते बनाती हूं. कुछ रिश्ते जन्म से हैं, जो मेरी लाइफ लाइन हैं और कुछ रिश्तों को मैंने चुना है या यूं कह सकते हैं कि ईश्वर का वरदान हैं वो मेरे लिए. कोई मेरा मित्र है, कोई अग्रज, कोई अनुज और कोई इतना खास कि उसके बारे में पूरी उम्र लिखूं तो भी सारी बात ना लिख पाऊं, जितना मुझे इन रिश्तों से मिला है.

मैं पत्रकारिता में हूं तो अपने भैया के कारण. उन्होंने ही मुझे प्रेरित किया था. मेरे परिवार में अखबार तो सब पढ़ते हैं, लेकिन अखबार में काम किसी ने नहीं किया. मेरे भाई यानी ‘भैया’ का मेरे जीवन में अहम स्थान है. यह रिश्ता मेरे लिए इतना खास है कि इसे लिखते वक्त मेरी आंखें भर आयीं हैं. दुख से नहीं प्रेम से. मैंने हमेशा उनके सानिध्य में प्रेम महसूस किया है. जब भी दुखी हुई हूं लिपट कर रोई हूं उनसे, सच कहती हूं अजीब से सुकून मिलता है. सभी बहनों को मिलता होगा. मेरा एक ही नाम है रजनीश आनंद. अकसर लोगों को घर में प्यार के नाम या निक नेम से पुकारा जाता है,

लेकिन मुझे सब रजनीश ही बुलाते हैं. लेकिन भैया मुझे ‘बुचु’ बुलाते हैं. हमेशा नहीं कभी-कभी. उनका यह संबोधन हजार खुशियों से बड़ा है. बचपन में उनके साथ साइकिल पर बैठकर मैं आलू लाने और गेहूं पिसाने जाती थी. ढलान पर भैया तेज साइकिल चलाते थे तो मैं डर से आंखें बंद कर लेती थी, लेकिन कभी असुरक्षा का भाव नहीं आया. हमेशा सुरक्षित महसूस किया. भैया के अलावा कुछ और भाई हैं मेरे, जिनसे मेरा खून का रिश्ता है. सब के साथ अनोखा है मेरा रिश्ता.

लेकिन मेरे कुछ ऐसे भाई भी हैं, जिनसे मेरा खून का रिश्ता नहीं. लेकिन फिर भी वो मेरे लिए अनमोल हैं. मेरा ऐसा ही एक भाई है जो मेरे साथ काम करता है. बेहद ही ऊर्जावान. लेकिन मस्तमौला. कुछ कर गुजरने का जुनून तो है, लेकिन लापरवाह भी है.कल उसने मुझसे थोड़ी सी बहस की और कहा है कि आप नारीवादी सोच रखती हैं और बेवजह लड़कों पर आरोप लगाती हैं. आप किसी मुद्दे पर कैसे कह सकती है कि पुरुष ऐसा सोचते हैं आप महिला हैं तो महिला का दृष्टिकोण बतायें, पुरुष क्या सोचते हैं यह आप ना बतायें.

 उसकी इस बात से मुझे प्रेरणा मिली. मैं एक महिला हूं और मेरी एक सोच है. अपने आसपास के वातावरण, समाज, राजनीति, देश-दुनिया, संबंधों, खेल आदि पर मैं जो सोचती हूं उसे मैं लिखना चाहती हूं. इसलिए नये सप्ताह से इन विषयों पर मैं लिखूंगी. जो मुझे पढ़ते हैं, उनसे आग्रह है कि अगर अच्छा ना लिखा जा रहा हो, तो फीडबैक देंगे.
रजनीश आनंद
18-06-16

बुधवार, 15 जून 2016

मरीचिका नहीं है प्रेम

उसने कहा, मरीचिका है प्रेम
पास से देखोगी तो टूट जायेगा भ्रम
मैंने कहा, जीवन की आस है प्रेम
पास से देखूंगी तो भाग कर लिपट जाऊंगी, तर जाऊंगी
उसने कहा, नहीं है वो तुम्हारा
क्यों जता रही हो अपना हक
मैंने कहा, कहा है उसने मैं उसकी हूं
हक नहीं, प्रेम जता रही हूं
उसने कहा, छलावा है प्रेम
हासिल है बस क्षणिक सुख, शेष सब मिथ्या
मैंने कहा, मेरे लिए जीने का साधन और साध्य है प्रेम
क्षण भर जो पा जाऊं अपने प्रियतम के बांहों का घेरा, तनमन प्रफुल्लित होगा मेरा
जो अबतक मुझसे प्रेम पर था उलझा
उस चांद ने सुन मेरी यह बात भर लिया मुझे आगोश में
चूम कर मेरी पलकों को , कहा उसने, तू नहीं मानेगी
जो देखा मैंने उसके मुख की ओर
बढ़ गयी धड़कनें मेरी, क्योंकि मैं थी अपने प्रिये की बांहों में
एहसास हुआ वो श्याम मेरा मैं उसकी मीरा
मेरी नस-नस में दौड़ता है रक्त बन उसका प्रेम
हां मुझे है यकीन, जिस दिन मैं उसकी
बांहों में बेसुध रहूंगी और मौन प्रेम के बीच
गूंजेगी उसकी मोहक वाणी
उस दिन जीवन विष का प्याला नहीं
अमृत का प्याला होगा, उसके प्रेम से छलकता हुआ...
रजनीश आनंद
16-06-16  

शनिवार, 11 जून 2016

क्या यह सपना होगा सच?

क्या मेरा रोम-रोम जी पायेगा तुम्हें?
सुबह से शाम तक खोई रहती हूं तुम में
भीड़ में अकेला कर दिया है तुमने
लेकिन मादक है यह अकेलापन
क्योंकि नस-नस में मौजूद हो तुम
चाह तो है कि इस मिट्टी के शरीर के
कण-कण को तृप्त कर दो तुम
ताकि तन-मन पर हो सिर्फ छाप तुम्हारी
जब पाकर प्रेम तुम्हारा
तेज हो जाये सांसें मेरी और फिर
कसती जायें बांहें तुम्हारी और
फिर बेसुध होकर पड़ी रहूं तुम्हारी बांहों में
तब हम दोनों हों बिलकुल मौन
जानते हो प्रिये
ऐसा अहसास होता है मुझे
जैसे तुम्हारी बांहें सिर्फ मुझे ही आगोश में लेने के लिए हैं
और वह सिर्फ मैं ही हूं जिसे मिल सकता है तुम्हारा प्रेम
क्या यह सपना होगा सच?
रजनीश आनंद
11-06-16

बुधवार, 8 जून 2016

...क्योंकि नापाक नहीं है मेरा प्रेम

प्रेम कभी नापाक नहीं होता प्रिये
इसलिए बरस जाओ तुम सावन बनकर
प्यासी हूं मैं तुम्हारे प्रेम की
जन्मों से, अंतरघट तक
आओ प्रिये बांह थाम लो, गूंथ लो तुम मुझे बांहों में
ताकि शीतल हो जाये तनमन
मैंने प्रेम किया है, शर्म नहीं, गर्व है
किसी का हक ना छीना, ना शर्तों पर किया
हृदय में बस बसाया तुम्हें,
किसी को नहीं बताया मैंने
किसी से नहीं छुपाया मैंने
बस प्रेम किया, जो अब भी तुम कहो
नहीं है हमारा रिश्ता
तो छलक सकती है आंखें मेरी
लेकिन फिर भी होंठ मुस्कुरायेंगे
क्योंकि तुमने ‘कुछ’ तो कहा हमारे बारे में
उस ‘कुछ’ से ही सजा लूंगी मांग अपनी
क्योंकि नापाक नहीं है मेरा प्रेम....
रजनीश आनंद
09-06-16





गोरैया

सूरज की पहली किरण जब धरती को छूकर मुस्कुराती है
और उसके स्पर्श से कमल खिल उठते हैं
तब धरती की ऐसी छवि देख मुझे भी खिलखिलाने का मन करता है
चाहती हूं गोरैये की तरह चहक कर मैं इधर-उधर उड़ती फिरूं
लेकिन तभी कुछ सवाल घेर लेते हैं मुझे
नहीं मैं सूरज के स्पर्श से आनंदित नहीं हो सकती
क्योंकि मैं एक औरत हूं, पाप-पुण्य का सारा हिसाब मेरे खाते में है
लेकिन मैंने तो रिश्तों को जीने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी
फिर क्यों मर गया हमारा रिश्ता?
इस मृत रिश्ते का शव मेरे कांधे पर ही क्यों?
तुम बेपरवाह होकर आनंदित रहो और मैं....?
लेकिन अब नहीं मेरा अंतस मुझे झकझोर रहा है
कहता है खुशियों से मुंह मत मोड़ो
जो मिलते हैं उन्हें समेट लो
उठो गोरैये की तरह तिनका बिनो और मेहनत करो
आशियाने को संवारने में
क्योंकि हमेशा आंधी नहीं आती
और गर आती भी है
तो वह डर कर घोंसला बनाना तो नहीं छोड़ती...
रजनीश आनंद
08-06-16


सोमवार, 6 जून 2016

फिर क्यों भर आती हैं आंखें मेरी?

आह, कितना सुख है, तुम्हारे आलिंगन में
जिस प्रेम की थी जन्मों से तलाश, अब जाकर पाया मैंने
जब झांकती हूं तुम्हारी आंखों में, तो प्रेम का उफान नजर आता है मुझे
तुम्हारा स्पर्श देता है अपनेपन का सुख
सीने में जब तुम्हारे छुपा लेती हूं मैं अपना चेहरा
प्रतीत होता है मानों दुनिया सिमट आयी मेरे इर्द-गिर्द
और तुम अपने प्रेम से सराबोर कर देते हो मुझे
फिर भी ना जानें क्यों बरस जाती हैं आंखें मेरी?
प्रेम का यह स्वरूप अब तक अनुभव से परे था मेरे
साकार किया तुमने उन ख्वाबों को जो दम तोड़ती सी दिख रही थीं
सोचती हूं कि कौन हो तुम?
मसीहा कहूं, तारणहार या फिर सखा तुम्हें
जिसने भर दिये मेरे जीवन में इंद्रधनुषी रंग
लेकिन जब भी देखती हूं, तुम्हारी मुख की ओर
तुम मुझे लगते हो इन सब से परे मेरे श्याम
जिसके लिए मेरे मन में है प्रेम बस प्रेम....!
 रजनीश आनंद
  06-06-16

गुरुवार, 2 जून 2016

इतनी बेसब्री क्यों है?

तुमसे मिलने की इतनी बेसब्री क्यों है?
तन-मन में मेरे यह बेकशी सी क्यों है
हर आहट चौंका जाती क्यों है
हर बुलाहट अपनी सी लगती क्यों है
यूं तो श्रृंगार नहीं है प्रिये मुझे
लेकिन रह-रह आईना देखती क्यों हूं
तू सपना है या सच नहीं जानती मैं
फिर भी अपना सा लगता क्यों है
नहीं है तेरे स्पर्श से पहचान मेरी
फिर भी क्यों तेरे स्पर्श से तन-मन भीगा सा है
आह,
जबकि नहीं हो तुम सामने मेरे
फिर क्यों आसपास तेरे बदन की खुशबू सी है
जानती हूं मैं तू नहीं हो सकता मेरा
फिर भी कुछ पल अपने नाम करने की जिद सी क्यों है?

रजनीश आनंद
2-06-16