शनिवार, 28 जनवरी 2017

आ जाओ एक बार कि...

आ जाओ एक बार
कि
कहना है कुछ मुझे
सीने से लगकर तुम्हारे
जीना है चंद पल मुझे
बिंदिया सजा मैं माथे पर
रचती हूं हर रोज सपना हसीन
कि
हौले से आकर तुम
चूम लेते हो पेशानी मेरी
आ जाओ अब तुम
कि
फीकी चाय भी मीठी लगने लगी
जिंदगी में इस कदर
सराबोर हो तुम
कि
सांसें तुम्हारे नाम पर चलने लगी
ख्वाहिश है, मैं टांक दूं 
तुम्हारी कमीज के कुछ टूटे बटन
और कुछ को छिपा लूं.
अब बेचैन है मन
कि
तुुम्हारे पीठ पर
लिखना है मुझे अपना नाम
भरना तुम्हें है बांहों में
जैसे तुम ना जाओ कभी
आ जाओ एक बार
कि ...

रजनीश आनंद
28-01-17

गुरुवार, 26 जनवरी 2017

...जो चेहरे पर दिखता है मेरे

तुम्हारे आगोश में जो सुकून है
वो चेहरे पर दिखता है मेरे
वैसे तो लिया नहीं नाम मैंने
तुम्हारा उस तरह कभी
फिर भी रह-रह कर
जिक्र आ ही जाता है तुम्हारा.
जो अनोखापन है हमारे प्रेम में
वो मोहताज नहीं किसी का
बस तुम मेरी दुनिया
और मैं तुम्हारी हूं
इस तरह जीयें कि
मेरे हिस्से की सांसें तुम भर लो
और तुम्हारी धड़कन
मेरे सीने में महसूस हो
कोई बुरी नजर नहीं
लील सकती हमारे प्रेम को
क्योंकि हम मजबूती के साथ खड़े हैं
हाथों में हाथ डाले...
रजनीश आनंद
26-01-17

बुधवार, 25 जनवरी 2017

...क्योंकि मुझे खुद से हो गया प्रेम है


सुबह -सुबह उठकर कभी महसूसा नहीं
ताजी हवा को, कि सोचा नहीं
इतना रोमांचित करती होगी सुबह
भागमभाग की जिंदगी
घर-आफिस-बच्चे
कहां वक्त, यह सोचने की
कि ताजी हवा गुदगुदाती भी है
मैं तो उलझी रही
झाड़ू-पोंछा, रोटी, प्रेशरकुकर और
रोज की ब्रेकिंग खबरों में
नाश्ते की भी फुरसत नहीं
गर्म दाल-रोटी को फूंक-फूंककर कभी खाती
कभी छोड़ भागती मैं
पर उस दिन, हां, मुझे अच्छी तरह याद है
जब तुम शामिल हुए मेरी दिनचर्या में
एक्ट्रावर्क की तरह नहीं,
स्पेशल असाइनमेंट बनकर
जिसने कराई मेरी खुद से पहचान
अब तो खुद से भी बातें कर लेती हूं
रातें अकेली नहीं होती, क्योंकि कागज पर तुम्हें उकेरती हूं
सुबह जब आंखें खोलती हूं, खुद से कह लेती हूं गुड मार्निंग
क्योंकि जब से तुम आये, मुझे खुद से हो गया प्रेम है...

रजनीश आनंद
25-01-17

मंगलवार, 24 जनवरी 2017

रातें खामोश नहीं होती, बोलती हैं...

रातें खामोश नहीं होती, बोलती हैं
अकसर जब बैठ कर अकेली
मैं इससे बातें करती हूं.
स्याह अंधेरा कहता है
खोल दो जुल्फों को अपनी
कि मैं इनमें उलझना चाहता हूं
लेकिन रूको, कुछ महसूस तो करो हिज्र को
देखो तो ये नीला आकाश
चांद के बिना भी सुंदर दिखता है
जिस रोज चांदनी आकाश की बांहों में होगी
वो रात तो सुकून देगी ही
तब तक तुम मेरे बांहों के घेरे को महसूस करो
और सो जाओ सुकून की नींद
क्योंकि रातें खामोश नहीं होती
वो बहुत कुछ कहती हैं
जरा सुनो तो, आंखें बंद करके...

रजनीश आनंद
25-01-16

क्या मैं अकेली थी?

क्या मैं अकेली थी?
नहीं तो भीड़ से घिरी थी,
बस उस भीड़ में कोई मेरा ना था
क्या मैं बहुत उदास थी?
नहीं तो मैं खिलखिला रही थी,
बस वो खुशी मेरी ना थी
क्या चांद चमकीला ना था?
नहीं तो चांद निहायत ही खूबसूरत था,
बस मुझे किसी का अक्स नजर नहीं आता था
अब अकेली तो हूं मैं,
पर भीड़ में कोई अपना सा
चेहरा नजर आता है
अब खिलखिला रही हूं मैं
क्योंकि तुम्हारी बातें गुदगुदा सी जाती हैं
और थिरक उठती है होंठों पर हंसी
चांद अब निहायत ही चमकीला हो गया है
क्योंकि जब भी उसकी ओर देखती हूं,
नजर आते हो तुम,
जो जकड़ना चाहता है मुझे प्रेमजाल में...

रजनीश आनंद
24-01-17

सोमवार, 23 जनवरी 2017

...और कसें हम-तुम

वसंत की दस्तक के साथ ही
इठलाती ठंड कुछ सहम सी गयी है
सर्द रातों में अलाव के सहारे
जीते लोगों ने ली है राहत की सांस
ऋतुराज के आगोश में
आम के पेड़ों पर महक उठी मंजरी है
बगिया में एक साथ खिल उठे कई फूल हैं
ऐसे खुशनुमा माहौल में मेरा मन आतुर है
तुम संग कुछ पल जीने को
जब हाथों में लेकर तुम्हारा हाथ
मैं कह सकूं, तुम साध्य मेरे जीवन के
हां, अब नहीं कोई चाह शेष है.
देखो ना वसंत को भी है ज्ञात
बात मेरे मन की, तभी तो
उसने हवाओं से कह दिया है
जो गुजरे मेरे नजदीक से
तो पहले कर आयें तुम्हारा स्पर्श
तुम्हारी खुशबू से सराबोर हूं मैं
इंतजार है मुझे उस पल का जब
वसंत के सानिध्य में
गूंजे हमारी खिलखिलाहट
और कसें हम-तुम
प्रेम आलिंगन में
क्योंकि मुझे तुमसे प्रेम है
अथाह प्रेम...बस प्रेम...
रजनीश आनंद
24-01-17

मात्र देह होने का एहसास...

मैं औरत हूं, लेकिन
बार-बार होता है एहसास
मात्र देह होने का
आईने के सामने खड़े होकर
जब भी टटोला है खुद को
साफ उभर आयीं, वो वहशी नजरें
जो बचपन से आज तक
मुझे लील जाने को आतुर थीं
जिन्होंने बार-बार कराया मुझे
मात्र देह होने का एहसास
घर के परिचित, जो मां के सामने
पुचकारते थे मुझे, वही
मां के जाते ही, खूंखार लगने लगते थे
उनकी तेज होतीं सांसें, आज भी
डरा जातीं हैं मुझे
मां के जाते ही वे जकड़ना चाहते थे मुझे
अपनी वासना के जाल में
मैं भागकर छुप जाती थी मां के आंचल में
ऐसी ललचाती नजरों से कभी नहीं बच पायी मैं
घर-बाहर हर जगह मौजूद हैं ऐसी नजरें
तभी तो हर शाम जब आफिस से घर आती हूं
ऐसी घूरती, निगलने को आतुर नजरों से भिड़कर
औरत नहीं मात्र देह होने का
एहसास घर कर जाता है मन में...

रजनीश आनंद
23-01-17

शनिवार, 21 जनवरी 2017

तुम्हारी महक...

मेरी जिंदगी में इस कदर शामिल हुआ तू
ना जाने कब मेरे लैपटॉप से बॉल पेन तक में
बिखर गयी तुम्हारी महक .
यूं तो किसी को मैं ऐसे ही नहीं देती यह हक
पर ना जानें कैसे मेरे मन ने मुझसे
पूछे बिना ही तुम्हें दे दिया यह अधिकार
मैंने मन का विरोध भी नहीं किया
क्योंकि एक सहमति, एक खुशी सी थी मस्तिष्क में
मन-मस्तिष्क ने स्वीकारा है तुम्हें संपूर्णता के साथ
तभी तो भोर होती है तुम्हारी मुस्कान के साथ
और रात तुम्हारे अपनेपन के साथ
किशोरवय का आकर्षण नहीं ये
सोची-समझी स्थिति है, ठहराव के साथ
प्रेम तुम्हारा, प्रेरणा मेरी जिंदगी का
जिसके दम पर पाना चाहती हूं
मैं अपने हिस्से का आकाश
और उस आकाश पर लिख देना चाहती हूं
तुम्हारा नाम, ताकि आजीवन बिखरी रहे
मेरे जीवन के हर कोने में तुम्हारी महक...

रजनीश आनंद
21-01-17

सोमवार, 16 जनवरी 2017

रिक्तता का बादल

आज अकेली बैठ ज्यों
अनायास मैंने पलटी
जिंदगी की किताब
एक रिक्तता का बोध
कलेजे को कस गया
चीख निकलने को हुई
लेकिन मजबूरियों ने
चीख को कंठ में ही रोक लिया
अश्रु छलक गये, लेकिन
फिर मन में आयी एक बात
जीवन में हर निर्णय सही तो नहीं होते
कुछ सही, कुछ गलत होते हैं
फिर क्यों इतना शोक, इतना मातम
इस निर्णय का दोष किसी के सिर नहीं
कोई दोषी नहीं, मैं उस निर्णय के लिए
उपयुक्त पात्र नहीं थी,
पर कोई अफसोस नहीं मुझे
मैंने सही समझकर निर्णय लिया था
जो मिला, जो खोया
सब जिंदगी के सफर के सहयात्री थे
जिंदगी में प्रयोगधर्मिता है जरूरी
सो छलके आंसुओं को सहेजा मैंने
सोचा जिंदगी के प्रयोग में
कुछ रिश्ते वाष्प बनते हैं
तो कुछ ठोस भी शेष  रहते हैं
जिंदगी के फ्यूजन में
हमेशा सही धुन नहीं बजता
मन को मजबूत कर ज्यों
मैंने आगे के पृष्ठों को देखा
तो जिंदगी का एक शानदार समागम
मानो मेरी ही प्रतीक्षा में था खड़ा
रिक्तता का बादल
अब छंटने लगा था मानो
मैंने खुलकर ली सांस, तो
प्रतीत हुआ अनंत है आकाश ...

रजनीश आनंद
16-01-17

सोमवार, 9 जनवरी 2017

क्षमाप्रार्थी हूं मैत्रेयी पुष्पा मैम, लेकिन मैं आपसे असहमत हूं


क्षमायाचना. जी हां मैं यह लिखते वक्त क्षमा पहले चाहती हूं. कारण यह है कि मैं जिनके विचारों से असहमति जता रही हूं वह मेरे लिए परम श्रद्धेय हैं और उनके अनादर का विचार सपने में भी मेरे मन में नहीं आ सकता. मैं बात कर रही हूं परम आदरणीय मैत्रेयी पुष्पा जी की. कल मैंने उनका एक इंटरव्यू शब्दांकन डॉट कॉम पर पढ़ा. एक शानदार इंटरव्यू है, लेकिन उसे पढ़ते वक्त एक जगह पर मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे मैं उनसे असहमत हूं, तो मैं सिर्फ असहमति जता रही हूं और कुछ नहीं.

इस इंटरव्यू में मैत्रयी पुष्पा ने कहा है- सेक्स प्रेम की मृत्यु है. यह मैत्रयी मैम के निजी विचार हो सकते हैं, लेकिन इसे शाश्वत सत्य नहीं माना जा सकता. कोई इंसान, जो प्रेम में हो वो सेक्स तब करता है, जब उसे यह पक्का यकीन हो जाता है कि हां यही वह व्यक्ति है जिससे मुझे अथाह प्रेम है. ऐसे में सेक्स उनके प्रेम को और मजबूती देता है ना कि मृत्यु का कारण बनता है. हां, यहां मैं बलात्‌ सेक्स की बात नहीं कर रही, बल्कि सहमति से बनाये गये शारीरिक संबंध की बात कर रही हूं. जहां बलात्‌ सेक्स होता है वहां मात्र शारीरिक भूख होती है, प्रेम नहीं होता है. प्रेम तो जबरन किया जाने वाला मनोभाव ही नहीं है. यह तो किसी को स्वीकार्य करने की आदर्श स्थिति है. जब इंसान तमाम अहंकार, मेरा-तुम्हारा और स्वार्थ जैसे दुर्गुणों को त्याग कर एक होते हैं. जैसा राधा-कृष्ण का प्रेम. जो तमाम बंधनों और परंपराओं के मुक्त होने के बावजूद आज भी आदर्श है.  

सेक्स तो प्रेम की जरूरत है, महज आत्मिक प्रेम एक टीस पैदा करता है, जबकि शारीरिक प्रेम उस टीस का इलाज है. अपने प्रेमी/प्रेमिका के आलिंगन में जो सुख है, वह सुख उसे दूर से देखने मात्र से मिल पाता है क्या? क्या प्रेमपूर्ण एक आलिंगन, एक चुंबन प्रेम को और गहरा और ऊर्जावान नहीं बनाता है? एक शरीर से मोह होना स्वाभाविक है, क्योंकि वह एक इंसान की पहचान है, जिससे हमें प्रेम होता है, फिर उस शरीर का प्रेम कैसे मृत्यु तुल्य हो जायेगा? हां, मैं उनकी इस बात से सौ फीसदी सहमत हूं कि शादी सेक्स करने का लाइसेंस देता है, लेकिन शादी में हुए सेक्स में प्रेम होता है या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं है. हमारे देश में आज भी सामाजिक बंधनों में बंधे लोग अपने प्रेम को उस तरह से नहीं स्वीकार कर पाते, जिस तरह से वे अपने प्रेम को जीते हैं, क्योंकि ऐसा करने से उनके प्रेम को नाजाजय संबंध का टैग दे दिया जाता है.

बस यही कारण है कि लोग अपने प्रेम की कब्र खुद खोद लेते हैं और उसका अंत हो जाता है. चलिए यह मान लिया जाये कि समाज के संचालन हेतु नियम कायदे होते हैं, मर्यादा होती है, तो क्या प्रेम की कोई मर्यादा नहीं है. प्रेम में इंसान अपने साथी का कभी अपमान नहीं करता, ना ही उसका बुरा चाहता है. प्रेम के लिए पति-पत्नी का टैग होना जरूरी नहीं है, यह तो एक सुखद अनुभूति है, जिसके लिए विशाल हृदय चाहिए. हां यह बात सोलह आने सच है कि सेक्स प्रेम की गारंटी नहीं है, लेकिन यह बात भी बिलकुल सही नहीं है कि प्रेम में अगर सेक्स हो तो प्रेम की मृत्यु हो जाती है.



रजनीश आनंद
10-01-17

गुरुवार, 5 जनवरी 2017

अब इच्छाओं पर नहीं लगेगा ताला

क्यों मेरी हर इच्छा पर
ताला लगा दिया जाता है?
और चाबी नहीं दी जाती मुझे
मरती इच्छाओं के बंद कमरे में
घुटन सी महसूस होती है
पसीने से तर-बतर शरीर
लेकिन फिर भी मैं
जद्दोजहद करती हूं
कोई झरोखा मिल जाये
जहां से झांकू मैं
अपनी इच्छाओं का बालपन निहारूं
उसकी अल्हड़ जवानी का लुत्फ उठाऊं
लेकिन नहीं, मैंने तो हमेशा
अपनी इच्छाओं को अर्थीं पर देखा
हां, उसे कांधा देने समाज के कई ठेकेदार आ जाते थे
लेकिन बस अब और नहीं
तय कर लिया है मैंने
तोड़ दूंगी हर दीवार
नहीं सजने दूंगी
अपनी इच्छाओं की अर्थी
औरत हूं मैं, सृजन कर सकती हूं
तो जन्म दूंगी अपनी
इच्छाओं के मधुर जीवन को
मासूम बालपन से गंभीर वृद्धावस्था
तक संवारूंगी उसे, क्योंकि अब कोई
ताला नहीं लगा सकेगा मेरी इच्छाओं पर...

रजनीश आनंद
05-01-17

बुधवार, 4 जनवरी 2017

...तो मिल जाये थोड़ी सी नीरवता

सुनो प्रिये, यह अधीर मन
कुछ कहना चाहता है तुमसे
जानती हूं मैं, तुम तक नहीं पहुंचती
मेरी आवाज, किंतु मानता नहीं यह मन
यह विश्वास भी है कि
ये हवाएं तुम्हारे कानों में
फुसफुसा कर दे देंगी मेरा संदेश
औरत हूं, सिखाया गया है धीरज धरना
लेकिन जब से हृदय में वास हुआ तुम्हारा
एक आग सी जलती है सीने में
जिसकी जलन नहीं होती कम
ठंडी हवा का रुख किया
बारिश में भींगकर भी देखा
लेकिन हृदय को नहीं मिला सुकून
चाह होती है, तुम छिपा लो अपना
मुखमंडल मेरे हृदय के करीब
और सुनो इसके मन की बात,
तो मिल जाये थोड़ी सी नीरवता
चाह होती है, तुम्हें सीने से लगाये
मैं लिख दूं अपना नाम तुम्हारी पीठ पर
और तुम छा जाओ मुझ पर
पाकर मेरे अधरों  का स्पर्श
तुम्हें मिले तृप्ति और मुझे निस्तब्धता
रजनीश आनंद
01-04-17

मंगलवार, 3 जनवरी 2017

...यह समझो औरतों और चुप रहो

नये वर्ष के स्वागत में लोग जुटे हों, चारों ओर खुशी का वातावरण हो, भीड़ को नियंत्रित करने के लिए 1500 पुलिसकर्मी भी तैनात हों, तभी कुछ लोग महिलाओं के साथ बदसलूकी करने लगे, उनके ना चाहते हुए भी उनके शरीर को हाथ लगाने लगे और महिलाओं की स्थिति यह हो जाये कि वे वहां से भागने लिए मजबूर हो जायें और पुलिस वालों से मदद की गुहार लगायें, लेकिन शोहद्दे अपनी हरकतों से बाज ना आयें, तो इस पूरे घटनाक्रम में दोष किसका कहा जाये? नि:संदेह महिलाओं का भाई! अरे नववर्ष का स्वागत करने का अधिकार पुरुषों को है बेकार में महिलाएं उतावली हो जाती हैं. जश्न तो पुरुष मनाते हैं, महिलाएं तो उनके जश्न मनाने का जरिया हैं, तभी तो जब जश्न के दौरान महिलाएं सहज उपलब्ध हो गयीं, तो उन्होंने एक युवती के कपड़े तक उतार दिये.

अरे लड़कियां तो बिन कपड़ों के ही अच्छी लगती हैं, वो तो अपनी बहू-बेटियों को लोग पूरे कपड़े में, या यूं कहें कि बुर्के में देखना पसंद करते हैं. बेंगलुरू में महिलाओं के साथ जो हुआ, वह बिलकुल सही तो है, जहां पेट्रोल होगा वहां आग के आने से आग तो लगेगी ही, भड़केगी ही. अरे भाई महिलाओं को तो सगे भाइयों और पिता के साथ भी कमरे में नहीं रहना चाहिए, क्योंकि इससे शैतान जाग उठता है, तो फिर इन लड़कों का तो उन युवतियों से कोई संबंध भी नहीं था, फिर ये सब तो होना ही था.

सही है. जिनके दिमाग में कबाड़ भरा हो उसके लिए पूरे कपड़े में औरत हो या बिना कपड़ों के क्या फर्क पड़ता है. उसकी नजर तो देह पर होती है, वह औरत को इंसान नहीं वस्तु समझता है, जिसे उसे भोगना है. सही है भोगने का सुख तो सिर्फ उसे चाहिए चाहे औरत की मरजी हो या ना हो. क्योंकि कामेच्छा तो सिर्फ पुरुषों के अंदर होती है, औरत तो बेजान है, संवेदनाशून्य. उसकी कोई इच्छा नहीं, कोई मरजी नहीं.

 अरे यहां तो अपना पति इच्छा-अनिच्छा की परवाह नहीं करता तो भीड़ का क्या है? सही तो किया, भीड़ ने. बिना भाई-बाप के मॉडर्न ड्रेस पहनकर महिलाएं नये वर्ष का स्वागत करेंगी, तो यह सब तो होगा ही. रोने-चिल्लाने की कोई जरूरत नहीं लड़कियों, चुप रहो, सबकुछ झेल जाओ. सड़क पर कोई हाथ लगाता है, तुम्हारे प्राइवेट पार्ट छूता है, तो क्या? छूने दो, तुम वस्तु हो, लोग छू-छा कर तो देखेंगे ही, वे इंसान हैं. चुप रहो तुम. सड़क पर, घर में जो चाहे जहां चाहे, तुम्हें हाथ लगा सकता है. लेकिन अगर तुम अपनी इच्छा के साथ किसी के साथ रहो, अगर वह तुम्हारा पति नहीं, तो तुम चरित्रहीन हो, यह जानो, चरित्रवान तो वो हैं, जो तुम्हारी मरजी जानें बिना तुम्हारे शरीर को छूते हैं. यह समझो औरतों और चुप रहो, क्योंकि बोलने पर इज्जत तुम्हारी जाती है, पुरुषों की नहीं. पूरे समाज की इज्जत का टोकरा तुम्हारे सिर जो लदा है.

रजनीश आनंद
04-01-17