सोमवार, 18 दिसंबर 2017

मुट्ठी में कैद खुशबू...

प्रेम की नदी बहती थी
मेरे घर के पीछे
जब हवा तेज चलती
तो उसकी भीनी सुगंध
मेरे कमरे तक आती
मदहोश कर जाती
एक बार हथेली में
कैद किया मैंने
जोर से पकड़े रखा
प्रेम के सुगंध को
लेकिन मैंंने जब मुट्ठी
फूंक कर खोली
तो निकला उसमें से
मात्र प्रेम का भ्रम
मैं खाली हाथ खड़ी थी
सहसा नदी की ओर से
पुकारा किसी से नाम मेरा
मैं भागकर गयी, कोई नहीं था
बस चट्टानों पर बैठा कोई
मेरी तरह फूंक रहा था
अपनी मुट्ठी को और
प्रेम की खुशबू बिखरी थी फिजाओं में
मैंने पास से देखा, खूशबू मुट्ठी से नहीं
उसकी आंखों से बिखर रही थी
और हाँ, कोई भ्रम नहीं था
अब मन में मेरे...

रजनीश आनंद
18-12-17

बुधवार, 13 दिसंबर 2017

मैं देखना चाहती हूं...

प्रिये,
जानते हो मेरा जी करता है, तुम्हें पास से देखने का. बहुत मन करता है कि देखूं तुम्हें कैसे दिखते हो तुम जब गीले बालोंं में करते हो कंघी. मैं समेटना चाहती हूं तुम्हारे बालों का पानी अपने आंचल में, ताकि सीने पर जब रखूं उस आंचल को तो भीग जाये तनमन. मैं खाना चाहती हूं एक प्यार की रोटी का निवाला, तुम संग. जब तुम खाओ बैठकर सुबह का नाश्ता. तुम्हें पता है, मैं देखना चाहती हूं तुम्हें अखबार पढ़ते हुए, अपनी कुर्सी पर काम करते हुए. तब मैं हाथ फेरना चाहती हूं तुम्हारे बालोंं में और चूम लेना चाहती हूं माथा तुम्हारा. मैं इस्तरी करना चाहती हूं तुम्हारी सफेद कमीज पर, जिसे पहनकर जब तुम घर से बाहर जाओ तो लड़कियां आहें भरें, थोड़ी सी जलन तो होगी, पर मन खुश भी बड़ा होगा. मैं देखना चाहती हूं तुम्हें हंसते, खेलते, गाते , खाते और जीते. मैं देखना चाहती हूं तुम्हें पास से हर पर्दे से परे, यह प्रेम में मेरा हक है तुम पर...

बुधवार, 6 दिसंबर 2017

उम्मीदों का हाँर्लिक्स

जब गिलास में डालकर
दो चम्मच हाँर्लिक्स
मैं घोलती हूं तो
घोलती हूं जिंदगी में उम्मीदें
मैं दूध में नहींं, पानी में घोलती हूं
ताकि उम्मीदें खालिस रहें
उनपर ना पड़े कोई रंग
कभी -कभी अत्यधिक उम्मीदें भी
बन जाती हैं गले का फांस
इसलिए तो पारदर्शिता पसंद है
मुझे उम्मीदों की
वैसे भी औरतें कम में सुकून पा जाती हैं
पर औरतों की उम्मीदें सतही नहीं होती ं
एक गहरापन लिये होती हैं
मैंने तो कइयों को देखा
एक आलिंगन, एक चुंबन को
जीवन मान जीते
मै रोज घोलती हूं दो चम्मच हाँर्लिक्स
ताकि कभी तो रूमानियत के
एहसास के साथ, चाँकलेट फ्लेवर लिये
आओ तुम और मेरे जिह्वा पर धर दो
उम्मीदों की गरमाहट, जो घुल जाये बिलकुल
उम्मीदों का शहद बनकर....

सोमवार, 4 दिसंबर 2017

रात की खामोशी...

रात की खामोशी में
प्रेम से  उस क्षण
साक्षात्कार होता है
जब पुकारते हो तुम
लेकर प्यार वाला नाम
भींग जाती हूं मैं तुममें
जैसे जमीन ओस से
हर सुबह घर के बागीचे से
सहेजती हूं बिखरे ओस
उस पल की याद में
जब सीने में तुम्हारी
दुबकी थी मैं और
प्रेम मुखरित था...

रजनीश आनंद
04-12-17

गुरुवार, 30 नवंबर 2017

ओढ़कर शाँल तुम्हारे प्रेम का...

इस ठिठुरती रात में ओढ़कर
शाँल तुम्हारे प्रेम का
गरमाहट महसूस करती मैं
सोफे पर बैठ लिखना चाहती हूं
एक कवितानुमा संदेश, नाम तुम्हारे
पता है मुझे, यह डिजिटल युग है
फिर भी उस संदेश को
मैं भिजवाऊंगी डाक से
ताकि जब वह पहुंचे तुम तक
तो अपने हाथों में थाम
तुम पढ़ो उस प्रेम संदेश को
जानते हो तुम? तुम्हारे हाथ कलाकार से हैं
जो गढ़ सकते हैं अनगिनत ख्वाब साकार स्वरूप में
इसलिए तो मैं लिख रही यह संदेश तुम्हें
सुनो प्रिये, मैं हौले से नहीं
जोर से खींचना चाहती हूं तुम्हारे गाल
ताकि जब आह निकल जाये तुम्हारी
तो हौले से चूम लूं मैं उन्हें
फिर प्यार के नीले रंग में रंगा
वह स्वेटर पहनाऊं मैं तुम्हें
जिसे बुना है मैंने बड़े प्रेम से
फिर तुम्हें पिलाऊं एक कप गरम चाय
खास्ता मठरी के साथ
फिर घूम आऊं तुम संग उस साइकिल पर
जिसके सामने के डंडे पर मैं बैठ सकूं
और कर सकूं तुमसे बातें प्रेम भरी
और तुम इस गुलाबी मौसम में
मस्ती में हवा के झोकों से प्रेम को
महसूस करते हुए, चूम लो डीप नेक ब्लाज से झांकती
मेरी पीठ को, जिसे खास पहना है
मैंने तुम्हें देखकर अपने पास-इतने पास...

रजनीश आनंद
30-11-17

शनिवार, 25 नवंबर 2017

हर रोज एकदम...

प्रिये ,
सर्दी की सर्द शाम में जब ठंडी हवा बदन को छूकर जाती है, तो ठंड से ठिठुरती मैं अपने स्वेटर के पाँकेट में  कुछ यूं हाथ डालती हूं जैसे तुम्हारी अंगुलियों में फंसा ली हो अपनी अंगुली. और  महसूस होती है एक अजीब किस्य की ऊर्जा, लगता है ऐसे जैसे मैं किसी अद्श्य डोर में बंंधी खिंचती चली जा रही हूं तुम्हारी ओर...
मैं दीवानी नहीं पर बात करती हूं खुद से, तुम्हारे जबाव  भी मैं खुद ही दे लेती हूं.पर जब मैं तुम्हें पुकारती हूं -ए कनु....तुम बहुत खराब हो तो, तुम मेरे चेहरे को दोनों हाथों में थाम कर कहते हो, यह दुष्टता पसंद है ना तुम्हें. तब आह निकल जाती है मेरी. मैं इतराकर चहक  उठती हूं और कहती हूं -दुष्ट कहीं के मैं तुमसे बात ही हीं करूंगी, लेकन अगले ही पल मैं आलिंगबद्ध होती हूं तुमसेऔर कहती हूं-प्रिये तुम बहुत प्यारे हो. और इस तरह मैं रोज तुमसे बात करती ह़़ं  पता है तुम्हें? मेरे मुहल्ले की गली के हर पेड़ पौधे पर लिखा है तेरा नाम...जिनसे बातें करना मेरा रोज का शगल है और यह मुझे तुम्हारे करीब लाता है, हर रोज एक कदम...

रजनीश आनंद
25.11.17

बुधवार, 22 नवंबर 2017

रेखाओं की नियति

सिर्फ लाभ-हानि का
गणित नहीं रिश्ते
यह मैंंने तब जाना जब
ब्रेकैट के ब्रेकैट तोड़कर भी
मैं सुलझा ना पायी
जीवन का सिंपलीफिकेशन
उलझा था जीवन
अंकगणित के खेल में
सहसा एक अनोखा फार्मूला
बन खींंच गये तुम मन में
एक रेखा की भांति
जो अनंत है दोनों छोर पर
हां , जानती हूं मैं
रेखाओं की नियति
नहीं है मिलन, पर
साथ रहने का सुकून है
और पतली दिखने वाली
रेखा की गहराई में है सिर्फ प्रेम...

रजनीश आनंद
22-11-17

शनिवार, 11 नवंबर 2017

स्वेटर

हो चुकी ठंड की शुरुआत
पंछी की भांति नीड़ की ओर
लौटते हुए शाम को महसूसा
जब टकराया एक सर्द झोंका
दिल ने कहा मुझसे सिकुड़े तुम
मन ने एक सपना बुना, क्यों ना
बुन लूं मैं तुम्हारे लिए एक स्वेटर
नीले रंग का, सफेद बाँर्डर वाला
सच बहुत फबेगा तुम पर
नीले आकाश की तरह तुम
ऊन के लच्छों से गोले
बनाते-बनाते प्रेम की ऊष्मा
बन गयी गरमाहट की वजह
सलाइयों पर चढ़ा फंदा
मैं बुनती हूं ख्वाब, तुम संग
कभी उलझ भी जाते हैं फंदे
तब सुलझाते वक्त देती हूं उलाहना
आंखें मटकाकर मैं, पर
डूब कर कभी देखो तो इनमें
उलाहनों में शिकायत नहींं, प्रेम है
फंदों पर फंदा चढ़ाती मैं
पूरा कर देती हूं मैं सपनों का स्वेटर
इस उम्मीद में कि तुम कहोगे कभी
प्रिये, बहुत सुंदर बुना यह स्वेटर
लाओ पहना दो मुझे...

रजनीश आनंद
11-11-17




शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

प्रेम की फुलकियां

ना तो मेहंदी रचाई
ना महावर लगाया
मैंने उसके नाम का
पर, यह सच है मेरे ईश्वर
हर सांस में उसका नाम लिया
और इतना जरूर किया
कि जब भी उसे चूम लेने
का दिल चाहा
उसकी बातों की सीढ़ी पर सवार मैं
आकाश में टंगे चांद को
दोनों हाथों से थाम, उतार लायी
भर कर उसे बांहों में
सुकून से खूब रोई भी
उसके सीने की सुगंध घुली है उसमें
अपने वक्ष के बीच रख चांद को
खूब बतियायी भी मैं
उसकी आंखों में है
वही चमक जो दिखती है
मेरे प्रिये की आंखों में
सहसा लगता है भूखा है वो
तो चूल्हे पर चढ़ा प्रेम का तवा
मैं बनाती हूं प्रेम की  फुलकियां
अपने हाथों से खिलाती भी हूं
प्रेम की रोटी चांद को
और चांद मुस्कुरा कर देखता है
बस उसकी चांदनी बिखरती जाती
और मुझे समेटती जाती है खुद में....

रजनीश आनंद
03-11-17

गुरुवार, 2 नवंबर 2017

नींद

आज तो नींद बहुत
प्यारी मालूम होती है
तुम्हारी मुस्कान की तरह
इसलिए तो सहेजा है मैंने
इसे अपने पलकों पर
लेकिन उफ्फ! यह मुस्कान
फिसल आयी पलकों से सीने में
और करा गयी तुम्हारे स्पर्श का एहसास
हां-हां लेकिन याद कराने की जरूरत नहीं
पता है मुझे भलीभांति
तुम कहीं नहीं हो
लेकिन यह क्यों भूलते हो?
तुम्हारी नजरें हर वक्त
साथ चलती हैं मेरे
चांद बनकर, जहां और
जिस ओर जाऊं मैं
अकेला पन नहीं सालता मुझे
क्योंकि तुम ही तो कहते हो
तुम मेरे और मैं तुम्हारी हूं...

रजनीश आनंद
02-11-17

सोमवार, 30 अक्तूबर 2017

एक चम्मच मुस्कान...

रात नींद जैसे पराई हुई
लाख मिन्नतें की लेकिन
आगोश में नहीं लिया उसने
जैसे मुझे तड़पाने की हो ठानी
थक कर मैंने भी उसे
परास्त करने का निर्णय किया
भर लिया चाय की केतली में
एक चम्मच तुम्हारी मधुर मुस्कान,
एक चम्मच शरारती आंखों की जुबिश
और ढेर सारी तुम्हारी अनोखी बातें
सोफे पर बैठ मैंंने जहां शुरू किया
चाय पीना, पाया, इस चाय की हर चुस्की में था
एक अपनापन,प्यार और सुकून
वो सुकून जो नींद के खजाने में भी नहीं है मयस्सर
तुम्हारी बातों का असर दिख रहा
नींद आंखों से गायब थी, और मैं
पूरी ऊर्जा से आसमान के कैनवास
पर उतारना चाहती थी ,तुम्हारी बातें
अनोखी बातें जो प्राणवायु थे मेरे लिए....
रजनीश आनंद
31-10-2017

रविवार, 29 अक्तूबर 2017

खुल गयी दुपट्टे की गांठ...


ओह!! यह क्या हुआ?
कैसी खुल गयी यह गांठ
मन ने पूछा मुझसे, यह सवाल
जवाब तो सच में नहीं जानती
क्योंंकि कसकर बांधा था
मैंने अपनी स्वाभाविक मुस्कान को
अपने प्रिय दुपट्टे में और
जब बांध रही थी गांठ
तो बहुत रोई थी मैं, तो
क्या आंसुओं ने सींच दी
मुस्कान की खेती को
तभी तो अंकुरित हो यह
फूट पड़ी है मेरे दुपट्टे से
बिना मुखौटे वाली हंसी
बेपरवाह, उन्मुक्त, जोशीली
इतने दिनों बाद जब देखा इसे
तो आइने के सामने खड़े हो
मैंने चस्पां किया इसे होंठों पर
और खुद से किया एक वादा
अब कोई गांठ नहीं बाधूंगी...

रजनीश आनंद
29-10-17

शनिवार, 28 अक्तूबर 2017

शब्द भेदते हैं मुझे...

शब्द चुभते हैं मुझे
घाव कर जाते हैं
कोशिश करती हूं
बच निकलने की
लेकिन पीछा करते हैं
मधुमक्खी की तरह
डंक मारते हैं
चीखती हूं मैं
बस करो अब और नहीं
लेकिन वर्णमाला के सारे
अक्षर जैसे दुश्मन बने
कान बंद करूं तब भी
शब्दों का स्वर तीक्ष्ण
भेदते हैं तनमन
तमाम उपमाओं से विभूषित
क्योंकि मैं एक औरत
हाड़ मांस की जिंदा इंसान
लेकिन स्व निर्णयसे वंचित
शब्दों के जाल में उलझी
मर्यादा की टोकरी ढोती
फिर भी शब्द भेदते हैं मुझे...

रजनीश आनंद
28-10-17

गुरुवार, 26 अक्तूबर 2017

मैं रोती हूं तुम्हारे लिये...

मैं रोती हूं तुम्हारे लिये
पूरे तड़प के साथ
जब तुम नहींं आते
क्योंकि इंतजार में तुम्हारे
बिखेर कर रखा था
जुल्फों को,ताकि तुम
संवार दो इन्हें और
मेरे हाथों को थाम
कह दो, मैं हमेशा
संग तुम्हारे, लेकिन
जब बिखरे केश मैं
खुद से संवारती हूं
तब आंसू बरसते हैं
कानों में गूंजती है
तुम्हारी आवाज
समय पर बस नहीं तुम्हारा
वह तुम्हें भगा रहा
पर तुम आओगे जरूर
तब आंखें मींचकर
मैं खुद को भरोसा दिलाती हूं
हम साथ होंगे, तब हाथों में हाथ होगा
बस मौन और प्रेम संग होगा
तब आंंखों से लगातार बरसते हैं
आंसू, विरह के नहीं ,मिलन के रोमांच के
तभी तो तुम्हारे लिए
रोना भी खुशी से भरपूर होता है...

रजनीश आनंद
26-10-17

मंगलवार, 24 अक्तूबर 2017

मैं तुम्हें याद नहीं करती

मैं तुम्हें याद नहीं करती
जीती हूं हर पल हर क्षण
जैसे नदी के किनारे नीर को
अंधियारा रात को
चांदनी चांद को.
तो यह सोच गमगीन
ना होना की तू
यादों में शामिल है मेरे
क्योंकि मैं याद नहीं करती तुम्हें
जीती हूं हर पल....
ए सुनो तुम्हें मैं बताऊं एक बात
अलसाई सुबह में कड़क चाय तुम
मुरझाये चेहरे पर गहरा चुंबन तुम
उदासी के पलों में मुस्कान तुम
बेबसी में एकमात्र सहारा तुम
क्योंंकि मैं याद नहीं करती तुम्हें
जीती हूं हर पल हर क्षण...

रजनीश आनंद
24-10-17

सोमवार, 23 अक्तूबर 2017

मैं लिखती हूं एक खत तुम्हें

हां मैं लिखती हूं
रोज एक खत तुम्हें
आंसुओं से नहीं सजाती
कभी शब्दों को, हां
उम्मीद बनते हैं शब्द
और वाक्यों में प्रेम का उपहार
जब खत पहुंचता है तुमतक
और हौले से मुस्कुरा कर
तुम खोलते हो उन्हें
तो लगता है जैसे
मैंने तुम्हें छूने का
सुख पा लिया
और इस सुख की चाह में
मैं हर रोज रात को
लिखती हूं एक

रजनीश आनंद
23-10-17

शनिवार, 21 अक्तूबर 2017

एहसासों की वो शाम...

तुम साथ नहीं आज
पर एहसासों की वो
शाम साथ है मेरे
जब मेरा सूखा मन
गीला हुआ था तुमसे
याद है वो रूमाल?
जिसमें पोंछा था हाथ
उसे यूं ही रखा है अबतक
तुम्हारी खुशबू के साथ
वो साड़ी भी सहेजा है
जिसके आंचल पर
जीवंत हैं अंगुलियां तुम्हारी
अपनी आंंखों में कैद किया
मुखड़ा तुम्हारा, ताकि
आंखों ही आंखों में दे दूं
बनावटी,प्रेमजड़ित उलाहना
तुम्हारी मुस्कान को होंठों से
सटाकर जज्ब किया है
अपने होंठों पर ताकि
वही, हां बिल्कुल वैसे ही
मुस्कान थिरके मेरे होठों पर
जानते हो तुम,यह तमाम
पूंजी हैं मेरी, और मैं सबसे
धनवान इस धरती पर...

रजनीश आनंद
21-10-17

बुधवार, 18 अक्तूबर 2017

इतराकर चलने को जी चाहता है...

ना आज चांदनी रात
ना मैं चौदहवीं का चांद
ना हाथों में हाथ किसी का
ना पैरों में सोने की पाजेब
फिर भी ना जानें क्यों
आज इतराकर चलने को
जी मचल रहा है ...
ना पीने की लत, ना पी रखी है
ना लगा सोलहवां साल
ना कसीदे पढ़ें किसी ने
ना छुटपन की सखी मिली
फिर भी ना जानें क्यों
आज इतराकर चलने को जी...
हां, एक बात हुई अनहोनी सी
असर उसका तो नहीं है?
हां, मेरी रूह तक पहुंचे तुम
कानों में घुली तुम्हारी हंसी
आंखों में बसा साथ तुम्हारा
तनमन में अपनापन तुम्हारा
तभी तो आज इतराकर
चलने को जी मचल रहा
और मैं बेफ्रिक तुम्हारी ऊर्जा से भरपूर
अमावस की रात को पूनम बनाती
बिना तुम्हारे, फिर भी साथ तुम्हारे
तुम से लिपटती तुममें सिमटती
तब तो आज इतराकर चलने को
जी मचल रहा मेरा हर पल हर दिन...

रजनीश आनंद
18-10-17

सोमवार, 16 अक्तूबर 2017

वो जो कतरा -कतरा सा...

वो जो छोड़ गये
तुम मेरे पास कुछ
दाना-दाना सा
भरपूर मीठा है
तुम्हारे प्रेम से
जानते हो तुम
हर रात बैठ अकेली मैं
चुगती हूं कतरा-कतरा
और हर दाना
करता है शरारत मुझसे
मेरे वक्ष से लिपट
खो जाता है मुझमें
जैसे कभी तुम ,
और मैं भर जाती हूं
तुम्हारी ऊष्मा से...

रजनीश आनंद
16-10-17

शनिवार, 14 अक्तूबर 2017

लड़कियों की नियति 'छोड़ना'

छोड़ना तो जैसे
लड़कियों की नियति
बचपन में खिलौने
लड़कपन में सखियां
और जवानी में
सीने से कलेजे को
निकाल अपनी गलियां
आंसुओं को भी छोड़ देती है
लड़कियां दूसरों की मुस्कान पर
अपनी मुस्कान तो कहां
छोड़ आती है, स्मरण नहीं
तब कोई नहीं
करता सवाल हमसे?
सवाल तो तब
दागे जाते हैं
जब छोड़ आती हैं लड़कियां
अपनी मुस्कान के लिए
कुछ पल ही सही
जिम्मेदारियों का थैला
सवाल छोड़ते नहीं
पीछे भागते हैंं
डराते , धमकाते हैं
मु्ट्ठी में कैद
ख्वाबों को छुड़ाना
चाहते हैं, जिसे
कसकर पकड़ा है मैंने
लेकिन इस बार
सवालों के डर से
मैं पिंड छुड़ाकर
भागूंगी नहीं, क्योंकि
भागने की कला
तो सिर्फ मैं जानती हूंं...

रजनीश आनंद
14-10-17

गुरुवार, 12 अक्तूबर 2017

ऊर्जा का स्त्रोत तुम...

तुम वो सूर्य हो
जिससे मिलती
ऊर्जा मुझे.
दूर सही तुम
पर मेेरा घर
आंगन रौशन है
नाम से तुम्हारे
हर सुबह जब धरती पर
बिखरती है सूरज की छटा
तो महसूस होता है तुमने
हौले से चूम लिया हो
और मैं उठकर पूरी
ताकत से जुट जाती
जीवन के संघर्ष में
जहां तुम्हारा साथ
हर कदम पर
महसूस होता है...

रजनीश आनंद
12-10-17

बुधवार, 11 अक्तूबर 2017

मोहब्बत बस मोहब्बत...

हां, मैं एक औरत हूं
जिसे मोहब्बत है
एक ऐसे पुरूष से
जिसकी बांहों में गरमाहट
व्यवहार में अपनापन है
जो धौंस नहीं जमाता
अपने पुरूषत्व का
ना अपमानित करता है
मेरे स्त्रीत्व को
जिसके लिए प्रेम का आशय
मात्र मेरे शरीर को मसलना नहीं
जो तरजीह देता है
मेरी सहमति, असहमति को
जो यह तो नहीं कहता
कि चाय जूठी कर दो मीठी हो जायेगी
पर हर निवाला खाना से पहले
कहता है मुझसे खाओ प्रिये
और हर बार जब
मैं सिमटना चाहती हूं उसमें
उसकी आंखों में होता है
मेरे लिए अथाह प्रेम
हां, मुझे मोहब्बत है ऐसे शख्स से
मोहब्बत बस मोहब्बत...

रजनीश आनंद
11-10-17

रविवार, 8 अक्तूबर 2017

चुंबन का प्रति उत्तर

आकाश में जितने
तारे टिमटिमाते हैं
सब चुंबन हैं मेरे
जिन्हें उछाल फेंका है
मैंने तुम्हारे लिए
वो तुम तक पहुंचे या नहीं
यह सोच बेचैन होती हूं
रोती भी हूं घंटों
लेकिन सुबह जब
बागीचे की घास पर
बिखरी होती हैं ओस की बूंदें
तो लगता है जैसे
मिल गया हो चुंबन का प्रति उत्तर...

रजनीश आनंद
08-10-17

बुधवार, 4 अक्तूबर 2017

सपनों की किताब

मैंने छुपाकर रखी थी सबसे
अपने सपनों की किताब
जिसके पन्नों पर बिखरे थे
मेरे कई मासूम सपने
चांद को मुट्ठी में भींचने के नहीं
सूरज से आंख लड़ाने के ख्वाब
स्थिति-परिस्थिति ने तोड़ा मुझे
कभी-कभार यह ख्याल भी
चस्पां हुआ कि फेंक दूं यह किताब
आसार नहींं दिख रहे, सपने पूरे होने के
औरत होकर इतने बड़े सपने देखने की जुर्रत!
औकात में रहो का व्यंग्य भी सहा
टूटकर छोड़ दिया था सपने देखना
सोचा था अबकी दीवाली
सिरहाने से निकाल फेंक दूंगी रद्दी संग
इस ख्याल ने पलकें गीली की
तो जी चाहा एकबार सिसक लूं
उस किताब को सीने से लगाकर
खोली जो किताब, दंग थी मैं
जिन सपनों को दफन किया था
सब जीवित थे नन्हें पौधों की तरह
जीवन के प्रति मेरी जिजीविषा ने
खाद पानी दिया था इन्हें
नन्हें पौधों को मारने की नहीं
अब उन्हें पेड़ बनाने का समय था
और मैं समझौते के मूड में
बिल्कुल नहींं थी, बिल्कुल भी नहीं...

रजनीश आनंद
05-10-17

रविवार, 1 अक्तूबर 2017

उम्मीदों का टूटना...

क्या तुम्हें मालूम है
कैसा होता है,
उम्मीदों का टूटना
क्या महज आंसू बहते हैं?
या दरक जाता है
दो दिलों का रिश्ता.
मैंने तो यह पाया
जब टूटती है उम्मीद
तो रिक्त जरूर होता है इंसान
लेकिन बे उम्मीद वह
एक कदम बढ़ जाता है
इंसान होने की तरफ
तो टूटे जब उम्मीद किसी से
तो जश्न मनाओ आंसुओं का
क्योंकि आज के दौर में
आंसू किसी के लिए बह निकले
ऐसे संबंध अब बनते कहां हैं?

रजनीश आनंद
01-10-17

बुधवार, 27 सितंबर 2017

क्योंकि जरूरी है छूटना भी...

जब कुछ छूटता है
तो दर्द होता है क्योंंकि
हम बना चुके होते हैं
उस छूटते से एक रिश्ता
रिश्ते की डोर को थामने की चाह
कई बार बलवती भी होती है
जैसे बाढ़ में सामने से बहकर
जा रहा हो अपने घर का
कुछ खास सामान हाथ ना आये
छूटने का दर्द इतना मानो
जिंदा शरीर से काटा जा रहा हो
मांस का लोथड़ा.
फिर रिसता है दर्द
बहता है खून आंखों से
लेकिन रूको, जरा सोचो
कितना जरूरी था ,
मांस का वह लोथड़ा?
क्योंकि कई बार छूटना भी
जरूरी होता है जीवन में...

रजनीश आनंद
27-09-18

शनिवार, 23 सितंबर 2017

इस नवरात्रि यही संकल्प...

मैं एक पत्रकार हूंं, इसलिए खबरें लिखती हूं, ताकि वह खबर आम जनता तक पहुंचे और वह अपने आसपास हो रही घटनाओं से अवगत हो सके. डिजिटल मीडिया में हूं, इसलिए खबरों को जल्दी से जल्दी पाठकों तक पहुंचाने की हड़बड़ी होती है. खबरें एक पत्रकार के लिए प्राणवायु हैं, उसकी नसों में दौड़ते लहू  के समान. लहू ( खबरों) का संचार बंद, तो पत्रकार 'डेड' हो जाता है. इसलिए पत्रकार खबरों से रोमांचित होता है,  लेकिन कई बार दुर्घनाएं भी होती हैं, लोग शोक में होते हैं. उस वक्त भी सूचनाएं पूरी जिम्मेदारी से आम जनता तक पहुंचाना पत्रकार का दायित्व है. ऐसे वक्त वह कमजोर नहीं पड़ता भावनाओं को नियंत्रित करता है, अन्यथा रोना तो पत्रकारों को भी आता है. आंसू उसकी आंखों में भी सूखे नहीं.
खबरों से पत्रकार थकता नहीं, लेकिन विगत कुछ दिनों से लगातार आ रहीं बलात्कार , यौन शोषण की खबरें मुझे थका रही हैं. हर दिन देश-राज्य से ऐसी इतनी खबरें आती हैं कि क्या लिखूं?कैसे लिखूं? कभी चार साल की बच्ची पीड़िता तो कभी नाबालिग. कभी 35-40 की महिला तो कभी 50 की. इतनी तकलीफ होती है खबर लिखते, क्या महिलाओं को कभी अपने शरीर पर भी अपना हक मिलेगा? या वह यूं ही रौंदी कुचली जाती रहेगी? महिलाओं के खिलाफ हिंसा थमने का नाम ही नहीं ले रही है, यह सिलसिला कब थमेगा यह बड़ा सवाल है, कभी-कभी तो इतनी खीज होती है कि अंतरात्मा चीख कर कहती है- अरे शोहदों मैं खबर लिख-लिखकर थक गयी और तुम कैसे इंसान हो कि  कुकर्म करते नहीं थकते? फिर सोचती हूं थकना नहीं है थक गयी , तो यह अपने डैने और फैलायेंगे मुझे तो पत्रकारिता के हथियारों से इनके डैने तोड़ने हैं ताकि कोई महिला किसी गिद्ध का शिकार ना बनें और कोई उसे नोंच खाने की हिमाकत ना करे. इस नवरात्रि यही संकल्प.

रजनीश आनंद
23-09-17

शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

धूसर आंखें

जब भी मैं देखती हूं
झुकी कमर,धूसर आंखें
लड़खड़ाते कदम, कांपते हाथ
बेचारगी नहीं पनपती ,
मन खो जाता है
अतीत के गड्ढे में
दुपट्टे से साफ करती हूं गढ्ढे को
तो धुंधली सी नजर आती है
एक खुशहाल दुनिया
आज जो आंखें धूसर हैं
उनमें संघर्ष की आग थी
झुकी कमर तन कर पड़ी थी
आग पर तवे की मानिंद
और परोस रहीं थीं
नर्म, मुलायम, गर्म रोटियां
उफ्फ!!  की आस में गड्ढे की
मिट्टी को थोड़ा और हटाया
लेकिन बेकार थी कोशिश
सहसा मैं भागी,चूम लिया
कांपते हाथों को
सहारा देने के लिए नहींं
जज्ब करने के लिए
उन कांपती हाथों की मजबूती
मैं सैल्यूट करन चाहती हूं
उस धूसर आंखों वाले व्यक्तित्व को....

रजनीश आनंद
22-09-10



शनिवार, 16 सितंबर 2017

यादों की लकीरें

यादों की लकीरों में
हर वक्त कुछ अच्छा
खिंचा हो जरूरी नहीं
कई बार लकीरें
गलत भी खींच जाती हैं
इंसान चाहकर भी उन
लकीरों को डस्टर से
मिटा नहीं पाता
लेकिन जरूरी नहीं
उन लकीरों को
लक्ष्मण रेखा बनाने की
अपने जीवन में यादों की
गलत खींची लकीरों को
शिलालेख पर खिंची लकीर
बना उसे मिटाने के लिए
शिलालेख पर हथौड़ा
चलाना बेवकूफी है
गलत लकीरों को ऐसे मिटाएं
जैसे ब्लैक बोर्ड पर
लिखे को डस्टर मिटाता है
बिना कोई निशान छोड़े
नयी मीठी और सच्ची लकीरों के लिए...

रजनीश आनंद
16.09-17

शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

पीछा करते अनगिनत सवाल

मैंने देखा था
उस बच्ची का दर्द
जो शिकार बनी थी
हैवानों की भूख का
पिल पड़े थे
एकसाथ छह-सात
नोचने-बकोटने को
शरीर घायल
मसली-कुचली
नन्हीं जान, सिसकती
कोमल अंगों से रक्तस्राव
बेसुध,बदहवास
किंतु आंखों में कई सवाल
सवालों से बचती मैं
ढांढस मात्र दे आयी
लेकिन, अनगिनत सवाल
पीछा कर रहे थे मेरा
सहमति, असहमति का पेंच
तो कसा जा सकता है महिलाओं पर
लेकिन अबोध बच्चियां
जिनके अंग भी खिल ना सके थे
उन्हें रौंदने का तर्क
क्या देगा यह समाज?
बलात्कार के बाद मार दी गयी
बच्चियों के शव पर आंसू
बहाने तो सब आते हैं
बलात्कारियों को रोकने कोई नहींं
क्यों?
आखिर वे भी तो इसी समाज का हिस्सा हैं
आकाश से तो नहींं टपकते बलात्कारी?

रजनीश आनंद
15-09-17

शनिवार, 9 सितंबर 2017

हंसी तुम्हारी सुंदर रंग...

चांदनी रात में
दूर पहाड़ी पर
अकेले बैठ तुम
बुनते हो सपना
भविष्य का मीठा
देखा मैंने आकाश
चादर को सजे
गुलाब, गेंदा,पलाश से
चमकीले मानों ऐसे
जैसे ध्रवतारा.
लेकिन मैं खिंचना
चाहती हूं खाका
हमारे भविष्य का
अहा! बताऊं प्रिये कैसे?
तुम्हारी पीठ होगी कैनवास
हंसी तुम्हारी सुंदर रंग
बातें तुम्हारी बनेंगी ' स्पार्कल'
मेरे होंठ बनेगे इंतज़ार
देखो ना प्रिये ,पीठ पर
तुम्हारे उतर आया है
चांदनी रात का आकाश...
रजनीश आनंद
09-14-17

मंगलवार, 5 सितंबर 2017

आंसुओं का कटोरा

जब उस रात
नाराज हो तुम
चले गये थे झटक
दामन मेरा
मैं तकिये में मुंह
छिपा रोई नहीं
आंसुओं को कटोरे में
समेट उछाल दिया
आसमान की ओर
देखा मैंने
आंसुओं की हर बूंद
चिपक गयी सितारों से
और हर सितारे की चमक से
झड़ रहीं थीं तुम्हारी मीठी बातें
मैं भागकर गयी बाहर
और जमा किया
उन बातों को एक बाल्टी में
पूनम की रात थी
तुम नहीं पर चांद
मुस्कुराया मुझे देख
मैंने उसके सामने ही
बातों की बाल्टी से
एक-एक मग प्यार के
निकाल खुद को नहला
दिया उस मीठे जल से
चमक उठा मेरा बदन
क्योंकि लिपटा था
वह तुम्हारी मीठी बातों
के आलिंगन में सिर से पैर तक...

रजनीश आनंद
05-09-17