शनिवार, 31 दिसंबर 2016

तब सिर्फ दैहिक नहीं आत्मिक भी हो जायेगा प्रेम...

मात्र अदेह कल्पना नहीं
तुम तो मेरा साकार प्रेम हो
नहीं-नहीं यह मेरा भ्रम नहीं
तुम सचमुच मेरे सीने से लगे हो
और मैंने तुम्हारे बालों को
अपनी अंगुलियां से सहलाया भी है
तुम्हारी आंखों की शरारत
उनकी प्यास, उनका प्यार
सब देखा है मैंने
उनकी ख्वाहिशों को
महसूस किया है, साकार स्वरूप में
लेकिन क्या इतनी सी है
हमारे प्रेम की ख्वाहिशें
नहीं बिलकुल नहीं
हम तो चाहते हैं
उम्र भर साथ चलना
ऐसा हो हमारा साथ
कि बिन बोले समझ जायें
एक दूजे की बात
और जब धुंधली हो जाये नजर मेरी
तब पढ़ देना तुम
मेरे लिए अखबार
और मैं तुम्हें मदद करूंगी
अपनी कांपती हाथों से
पहनने में स्वेटर,टोपी और मफलर
तब ना कहना तुम
टोपी ना पहनाओ प्रिये
अच्छा नहीं लगता
साथ बैठ चाय पीयें हम
और चाय की चुस्कियों के साथ
तुम बताना मुझे देश-विदेश की बातें
और मैं तुम्हें एकटक ताकती रहूंगी
तब, जब सिर्फ दैहिक नहीं
आत्मिक भी हो जायेगा हमारा प्रेम...
रजनीश आनंद
31-12-16 

गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

मेरे शहर में तुम...

क्या कभी मेरे शहर की धरती को
चूम सकते हैं तुम्हारे कदम?
यह सोच उत्पन्न होते ही
सिहरन बन दौड़ जाता है
मेरे नस-नस में
आह!! काश
यह सुख मेरे शहर को नसीब हो
तुम्हारा स्पर्श पाते ही
मेरी हरी-भरी धरती
झूम उठेगी मानो
नव ब्याहता हो कोई
चाहती हूं, थाम कर
हाथ तुम्हारा घूम लूं
थोड़ा अपने शहर की गलियों में
कुछ पहचान हो जाये
मेरे शहर से तुम्हारी
ताकि जब जाओ तुम
मुझे छोड़ तन्हा
मेरे शहर की गलियां बन जाये
तुम्हारी बाहें और मैं
सिमटकर इनमें
सिसक लूं,झगड़ लूं
ताकि तुम्हारे होने का अहसास
रहे हमेशा मेरे शहर की गलियों में...

रजनीश आनंद
29-12-16

सोमवार, 26 दिसंबर 2016

मादक रात

ओह कितनी मादक हो चली है ये रात
आकाश में मुदित चांद
और मैं अपने चांद की बांहों में
आकाश में तारे चमक रहे हैं,
धरती पर तुम्हारी आंखें
इन चमकीली आंखों में एक संकेत है
मेरे लिए, हां सिर्फ मेरे लिए
कि आलिंगनबद्ध हो जाऊं मैं तुमसे
चाहत तो मेरी भी यही है
पर मुझे मोह हो चला है तुम्हारी
आंखों की पुतलियों में देखने का
यह प्रेम का सागर है, जिसका जल
बुझा देता है मेरी हर प्यास
और चुपके से कहता है मुझसे
जिसे मैं साफ पढ़ रही हूं
कि
मैं दुनिया की सबसे सुंदर औरत हूं
और तुम मुझसे अथाह प्रेम करते हो

रजनीश आनंद
26-12-16

शनिवार, 24 दिसंबर 2016

ऊंचाई का डर और मैं

मुझे ऊंचाई से डर लगता था
जब मैं देखती थी ऊपर से नीचे
एक खौफ समा जाता था
नहीं-नहीं मैं ऐसी जगह
नहीं जाना चाहती
जहां हो अकेलापन
हरियाली भी कम हो जाए
घटने लगे हवा
और महसूस हो घुटन
मैं नहीं जाना चाहती
मैं तो जीना चाहती थी
एक आम जिंदगी
एक नीड़ सपनों का
एक चिड़ा एक चिड़िया
लेकिन नहीं मेरे खाते में
तो ये भी नहीं
बस आंसू थे
जिन्हें पोंछना मुझे खुद था
सहसा किसी ने ऊपर से दी आवाज
मैं चल पड़ी ऊंचाई की ओर
हां , अब नहीं लगता मुझे
ऊंचाई से डर क्योंकि
मैंने शिखर से कर ली दोस्ती है
वहां कुछ बर्फ हैं जो पिघलेंगे
हरी घास दिखेगी
वो आयेगा जिसकी
प्रेरणा से मैं ऊंचाई तक पहुंची हूं
थाम कर उसका हाथ
ज्यों देखा मैंने नीचे
ऊंचाई से बहुत हसीन थी दुनिया
इतनी मनोरम होती है ऊंचाई
ये मैंने अब था जाना

रजनीश आनंद
24-12-16

अब बहुत दिन हुए तुम्हें देखे...

सुनो ना प्रिये!!
अब बहुत दिन हुए तुम्हें देखे
इन नयनों की प्यास
सही नहीं जाती
मैं अधीर नहीं
लेकिन क्या करूं
इस मन का जिसमें
पनप उठी यह चाह है
यूं तो यह मन कभी
तुमसे अलग नहीं हो पाता
लेकिन कहता है मुझसे
वर्षों गये बीत
प्रिये की मधुर वाणी
नहीं पड़ी कानों में
नहीं समाई उन बांहों के घेरे में
जो देते हैं सुकून और
सुरक्षा का अहसास,
जानते हो इस बार
मैं नहीं करूंगी वो गलती
जिससे मैं वंचित रह जाऊं
तुम्हारे अनुपम प्रेम से
हां, देखो ना मैंने उतार दिया है
लाज का हर आवरण
अब नहीं आयेगा यह
हमारे प्रेम के बीच
वैसे भी इसकी जरूरत
नहीं अब हमारे बीच
क्योंकि तुम सांसें
और मैं शरीर हूं...

रजनीश आनंद
24-12-16

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2016

पूरे हुए एक साल

आज फेसबुक की मेहरबानी से मुझे यह याद आया कि ब्लॉग लिखते हुए मुझे पूरे एक वर्ष हो गये. इतने दिनों में मैं जितना और जो कुछ भी लिखना चाहती थी, उससे बहुत कम ही लिख पायी हूं. मैं अभी तक वो तेवर नहीं ला पायी, जो लाना चाहती हूं. समय का अभाव है, यह कहकर मैं बच तो नहीं सकती, हां यह जरूर कह सकती हूं कि अगर दिनभर में 24 घंटे से ज्यादा होते तो अच्छा रहता, कुछ ज्यादा समय लिखने-पढ़ने के लिए निकाल पाती. मैं उन तमाम लोगों को धन्यवाद कहना चाहती हूं, जिन्होंने मुझे पढ़ा. अब तक लगभग आठ हजार लोगों ने मेरी रचनाओं को पढ़ा है. मैं उन सब के प्रति आभार प्रकट करना चाहती हूं. मैं एक पत्रकार हूं और अपने आसपास होती चीजों को जिस तरह से देखती हूं, उसे उसी तरह अपनी रचनाओं में समाहित करती हूं. मैं कहानी लिखती तो हूं लेकिन कथाकार की तरह नहीं एक पत्रकार की तरह. साहित्य के ज्ञाता मेरी टांग खिंच सकते हैं, क्योंकि मैं साहित्य का विज्ञान नहीं जानती. कविताएं मैं लिखती हूं, जिसमें मेरे भाव हैं कविता का विज्ञान नहीं. फिर भी आप सब ने मुझे पढ़ा इसके लिए बहुत धन्यवाद.  मैंने पिछले साल अपने छोटे भाई पंकज पाठक के प्रेरित करने पर ब्लॉग लिखने की शुरुआत की थी और अब सोचती हूं कि आजीवन कलम या कंप्यूटर जो कह लें चलाऊंगी. मेरे अंदर यह सोच मेरे कुछ करीबियों ने डेवलप किया है. उनका तहेदिल से आभार. उनकी प्रेरणा से ही मैं लिख पाती हूं. मैंने सोचा है कि नये साल से मैं अपने ब्लॉग में कुछ नया करने की कोशिश करूंगी. कुछ मन की बात होगी, कुछ समाज की कुछ देश-दुनिया की. एक बार फिर आप सब का आभार.

रजनीश आनंंद
23-12-16

बुधवार, 21 दिसंबर 2016

तुम्हारा आगोश

जिसमें गरमाहट है
तुम्हारे स्पर्श की
विश्वास है
हमारे प्रेम का
उम्मीद है
सुंदर भविष्य की
सपने हैं
हमारी खुशहाली के
उन्माद है
तुम्हारे चुंबन का
मादकता है
तुम्हारी नजरों की
शरारत है
तुम्हारी अंगुलियों की
भरोसा है
एक स्थायित्व का
जुड़ाव है
जीवन भर का
तब ही तो
जग में सबसे सुरक्षित है
तुम्हारा आगोश...

रजनीश आनंद
22-12-16

तू जिसे आराध्य बना दें हमारा...

ना जाने ये क्या हुआ मुझे?
मेरा दिल धड़कता तो
मेरे सीने में है, लेकिन
हर बार धड़कने से पहले
तुम्हारा नाम लेता है
मैंने कहा इससे
कितना नाशुक्र है तू
इतने साल सहेजा मैंने
और तू मेरा ना हुआ
दिल ने ये कहा,
मुझसे क्या कहती है
जरा अपनी सांसों से पूछ
कि
हर बार आने से पहले
वे किसका नाम लेती हैं
अपनी नजरों से पूछ
किसकी छवि उभरती है उनमें
अपने तनबदन से पूछ
किसकी खुशबू बसी है
अरे हम पर इल्जाम लगाने वाली
जरा खुद से तो पूछ
क्या तू खुद की रही है
अरे हम तो तेरे भरोसे हैं
तू जिसे आराध्य बना दें हमारा
उसके नाम पर धड़कते हैं...

रजनीश आनंद
21-12-16

मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

कैसा है प्रेम रंग?

कैसा है प्रेम रंग?
बताओ ना प्रिये
हरा, नीला लाल या फिर केसरिया
जानना चाहती हूं मैं
खुद को उस रंग में
रंगना चाहती हूं
सूरज और उसकी लालिमा को
जब देखती हूं
तो लगता है शायद
लाल है प्रेम रंग
तब ही तो सूर्योदय से
सूर्यास्त तक सूर्य
अलग नहीं होता उससे
लेकिन जब इस गगन को
देखती हूं धरती को अपनी बांहों में
समेटने के लिए झुका हुआ तो लगता है
नीला है प्रेम रंग
फिर जब गगन का आलिंगन पा
मादकता में डूबी हरी-भरी धरती को
देखती हूं तो प्रतीत होता है
हरा है प्रेम रंग
लेकिन जब तुम्हारी बांहों के घेरे में
खुद को बेसुध पाती हूं, तो भान होता है
तुम्हारे रंग में रंगा है प्रेम रंग
तो रंग दो ना प्रिये मुझे
अपने रंग में...

रजनीश आनंद
20-12-16


रविवार, 18 दिसंबर 2016

आओ कुछ हम बदलें


आओ कुछ हम बदलें
कपड़ों से ही नहीं, सोच से भी
कुछ प्रगतिशील हो जायें हम
इस पितृसत्तामक समाज के
कुछ सोच से टक्कर लें हम
आओ कुछ हम बदलें.
बलात्कार नहीं, जीवन का अंत
यह तो है बस एक घिनौना सच
जिसके लिए जिम्मेदार
सिर्फ और सिर्फ पुरुष दंभ है
आओ कुछ हम बदलें.
प्रगतिशीलता का ढोंग करते
इस समाज की दोयम सोच है
महिलाओं को लेकर, इसलिए जरूरत है
देह से इतर खुद को
 स्थापित करें हम
आओ कुछ हम बदलें.
स्त्री की इज्जत कोई
कांच का मर्तबान नहीं
जो बलात्कर की
एक ठोकर से टूट जाये
शीलभंग होने से अपवित्र
अगर औरत होती है, तो
वह पुरुष क्योंकर पवित्र होगा
जिसने जबरन किया यह कृत्य है
इस सोच को आत्मसात करें हम
आओ कुछ हम बदलें
तन पर जबरन कब्जा करने वालों को
रोकर नहीं, अट्टाहास करके दिखायें हम
बलात्कार के बाद भी शान से
जीकर दिखायें हम
आओ कुछ हम बदलें...

रजनीश आनंद
19-12-16

शनिवार, 17 दिसंबर 2016

फिर दुविधा कैसी प्रिये?

तुम कहते हो
मैं पतवार,
तुम नाव हो
मैं प्रेरणा,
तुम कविता हो
मैं ख्वाब,
तुम नजरें हो
मैं सांसें
तुम शरीर हो
फिर दुविधा कैसी?
नि:संकोच कहो
जो हो मन में
औपचारिकता
बेमानी है
हमारे रिश्ते में
मुझे प्रेम है तुमसे
जो मोहताज नहीं
किसी औपचारिकता का
तुम्हारा दिया
अच्छा-बुरा सब
स्वीकार्य मुझे
जो तुम्हारा
सब मेरा है
तुम बिन अब
बेमानी यह जीवन है
तो आओ, संकोच ना करो
इस जीवन को जी लें हम

रजनीश आनंद
17-12-16

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2016

नदी की तिश्नगी

जब भी देखती हूं
नदी की तड़प
सागर से मिलने को
वह पहाड़ का सीना चीर
उदात्त प्रेमभाव में उफनती
आड़े-तिरछे मार्गों से गुजरती
बेकल बहती है
तिश्नगी है उसे
सागर की बांहों में समा जाने की
कई जगह पर बांधी भी जाती है वो
वेग प्रभावित होता है
किंतु रूकती नहीं
सागर से मिले बिना रूकना
यानी समाप्त हो जाना नदी का
लेकिन जब वो समा जाती है
अपने प्रियतम के आगोश में
जब विलीन हो जाती है वो
तब उसका अस्तित्व खोता नहीं
समाहित होता है सागर संग
तब मन में उठता है एक सवाल
क्या प्रेम परिभाषित हो सकता है?
रजनीश आनंद
16-12-2016

सोमवार, 12 दिसंबर 2016

...और मेरा प्रेम परास्त होगा

इंतजार करती हूं तुम्हारा
हर पल तुममें खोकर
मन बाहर नहीं निकलना चाहता
इस प्रेमव्यूह को भेदकर
रचियता तुम इस प्रेमव्यूह के
जिसमें उलझी हूं मैं
क्या करूं जो हर सांस
आने से पहले लेती 
तुम्हारा नाम है
निहत्थे किया प्रवेश मैंने
इस व्यूह रचना के अंदर
बस तुम्हारे नाम की तलवार ही
मेरा एकमात्र सहारा है
भरोसा है, मुझे अपनी तलवार पर
यह मुझे विजयश्री दिलवाएगी
देखना तुम उस दिन
प्रेम मेरा अमर होगा
हार मेरी तब है जब तुम,
ठुकराओ प्रेम निवेदन
लेकिन अडिग है विश्वास 
मेरा अपने पावन प्रेम पर
तुम बांहों में भरने मुझे 
खुद चलकर आओगे
जो ये ना कर पायी मैं
शस्त्र डाल दूंगी उस दिन
मेरा प्रेम परास्त होगा
और नश्वर मेरा तनमन...

रजनीश आनंद
11-12 16

शनिवार, 10 दिसंबर 2016

अमावस है, तो पूनम की रात भी है...

क्या है कविता का विज्ञान?
मैं नहीं जानती
मैं तो बस अपने भाव
संप्रेषित करती हूं तुमतक
जब भी सोचती हूं तुम्हें
एक टीस सी उठती है मन में
और पनपनता है प्रेमभाव
दिमाग में घुमड़ते हैं,कुछ शब्द
जिन्हें कलम के सहारे
कागज पर उतार देते हैं मेरे हाथ
अगर ये कविता है, तो फिर
कविता ही सही, लेकिन
मेरी कविता के हर शब्द में
लिखा है तुम्हारा नाम
बचपन में सहेलियों संग
खेला करती थी एक खेल
दोनों हथेलियों को जोड़
हाथ की लकीरों से
बनाती थी अर्द्धचंद्र
इस सोच के साथ
कि जिसके हाथ बनेगा
अर्द्धचंद्र, उसका प्रिय होगा
चांद सा सुंदर
तब से आज तक
तुम्हारे इंतजार में मैंने
रोज जोड़ा अपने
हथेलियों की लकीरों को
आकर देखो ना कितना
सुंदर चांद बनता है
मेरी हथेलियों में
बिलकुल तुम्हारी तरह
ओ ‘रजनीश’ के चांद
सुनो मेरी बात
जैसे तुम एक नाप में
नहीं दिखते कभी
वैसे ही, मेरे नसीब में है
तुम्हारा प्रेम, लेकिन अमावस है
अगर, तो पूर्णिमा की भी होती है एक रात
उस रात अपने मस्तक को रखकर
मेरे सीने पर तुम सुन लेना
क्या कहता है मेरा मन

रजनीश आनंद
10-12-16

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2016

वो लड़की


मेरे साथ हास्टल में रूम पाटर्नर थी वो लड़की. छरहरी काया, साधारण नयननक्श, लेकिन गोरा तन. भारतीय जनमानस के लिए सुंदरता के सबसे बड़े फारमेट ‘गोरा तन’ में फिट थी वो. जब से आयी थी ब्वायफ्रेंड के बहुत किस्से थे उसके पास. मुझसे कहती- दी आप बोरिंग आइटम हो किताबों की दुनिया से बाहर आओ बाहर सब कुछ बहुत सुंदर और सेक्सी है.

अकसर बड़ी गाड़ियां उसे छोड़ने आती. महंगे गिफ्ट उसके शौक में शामिल थे. एक दिन वो बहुत खुश होकर आयी.  मैंने खिड़की से देखा लंबी सी कार से आयी थी वो. कमरे में आकर लिपट गयी मुझसे, उसके हाथ में दो गिफ्ट थे, जो उसे अलग-अलग लड़को ने दिये थे.

मैंने पूछा उससे तू मैनेज कैसे करती है इन्हें? अगर इनमें से किसी ने तुझे दूसरे के साथ देख लिया तो? सड़क पर तेरी बेइज्जती कर दी तो? वह मुस्कुराई और कहा-दी आप जानती नहीं इन साले लड़कों को, इन्हें जो चाहिए मैं देती हूं. किसी को मेरे होंठों की प्यास है तो किसी को...ज्यादा से ज्यादा क्या करेंगे? सेक्स ही तो करेंगे ना! मै बोरिंग आइटम उसकी बात सुनकर भक्क रह गयी थी और वह मुस्कुरा कर वाशरूम चली गयी...

रजनीश आनंद
10-12-16

औरत हूं लेकिन अब त्याग नहीं करूंगी मैं...

भागते-भागते सांस उखड़ रहे थे मेरे
पांव भी साथ नहीं दे रहे थे, देखा तो
पैर के छाले फट गये थे, उनसे अब
 खून भी रिसने लगा था
मैंने निश्चय किया, बस अब और नहीं
कब तक अनवरत मैं भागती रहूं
तुम्हारे पीछे, इस आस में कि
तुम कभी तो दोगे मेरे प्रेम को सम्मान
कभी तो तुम्हें लगेगा, मैं गैरजरूरी नहीं
हाशिये पर जीवन जीते-जीते ऊब गयी हूं
ऐसी नहीं थी मेरी प्रकृति
मेरे अंदर की आग को यूं बुझने नहीं दूंगी
मैं मिटने नहीं दूंगी अपना अस्तित्व
सही है लिखा है तुम्हारा नाम मेरे भाल पर
लेकिन तुम्हारी उपेक्षा ने धूल जमा दी है इसपर
जो रगड़ने से भी नहीं होगी साफ
अब तो कुछ पढ़ा भी नहीं जाता
सिर्फ कुछ लिखा होने का एहसास मात्र है
लेकिन मैं  कब तक यूं ही जीती रहूं
क्योंकि मैं एक औरत हूं, इसलिए इंतजार पर मजबूर रहूं
जबकि मुझे पता है कोई नहीं आने वाला
तुम तो कब का मीलों आगे चले गये
तुम मर्द हो, तुम्हें आजादी है
जब चाहो मेरा इस्तेमाल करो
इंसान से वस्तु बनाकर छोड़ दिया
पहचान खोते अपने चेहरे को मैंने देखा जो आईने में
उम्र से पहले चेहरे पर आयीं लकीरें साफ दिखीं
नहीं-नहीं और नहीं, अब नहीं घुटूंगी मैं
मुझे अपना दमकता चेहरा वापस चाहिए
आंखों में नये सपने चाहिए, जिन्हें जीना है मुझे
जिंदगी बहुत खूबसूरत है, जो दोबारा नहीं मिलेगी
मेरे पास जीने और खुश रहने की कई वजहें हैं
जो हाथ थाम कर मुझे सीने से लगाने के लिए बेचैन हैं
तो हाशिये पर नहीं अब मुखपृष्ठ पर जीना है मुझे
औरत हूं लेकिन अब और त्याग नहीं करूंगी मैं
कुछ पल अपने लिये भी जीऊंगी मैं...

रजनीश आनंद
09-12-16

बुधवार, 7 दिसंबर 2016

राधा भी रश्क करे इतना प्रेम...

सुनो प्रिये
मन में जो बात है
कहना चाहती हूं तुमसे
जो तुम ना सुनोगे तो
मूक हो जाऊंगी मैं
जानते हो पानी की तरह है मेरा प्रेम
एकदम पारदर्शी, झांककर देखो
छवि दिखेगी तुम्हें अपनी
जैसे चाहो इसे ढाल लो
भर लो किसी पात्र में,
या दे दो कोई और स्वरूप
एक बार होंठों से लगाकर
तो देखो, मिट जायेगी हर प्यास
हां, पानी की तरह है मेरा प्रेम
रंगहीन, गंधहीन
जो चाहे जैसा चाहे रंग दे दो इसे
लाल, हरा, पीला या नीला
एक बार सीने से लगाकर
सराबोर कर दो इसे अपनी मादक खुशबू से
ताकि आजीवन ना मिट पाये वो महक
बस इतनी सी है ख्वाहिश
राधा भी रश्क करे
इतना प्रेम दे दो मुझे...

रजनीश आनंद
08-12-16


अब विश्वास हो चला है...

जीवन में सबकुछ बुरा नहीं
जरूरत है अच्छाइयों से
पहचान बनाने की
बुराई के अंधकार को परे रख
अच्छाई के प्रकाश को
मैंने हथेलियों में समेट लिया है
और देखो ना, साथी के रूप में
नजर आये हो तुम
हृदय को मिला है सुकून
तुम्हारे होने के आभास मात्र से
जागी हैं नयी उम्मीदें,
नयी ऊर्जा से लबरेज हूं
हां, अब अकेली नहीं मैं
जीवनपथ पर संघर्ष तो करना है मुझे
किंतु अगर लड़खड़ाई मैं
तो तुम थाम लोगे मुझे
यह विश्वास अब हो चला है
क्योंकि तुम्हारे साथ होने का अहसास
अब मजबूत हो चला है...
रजनीश आनंद
07-12-16

सोमवार, 5 दिसंबर 2016

धर्मपत्नी...


हां मैं तुम्हारी धर्मपत्नी हूं
अर्धांगिनी के तमगे के साथ
अग्नि के सात फेरे ले मैं बनी थी
तुम्हारी जीवनसंगिनी
आंखों में थे अनगिनत ख्वाब
जो हकीकत ना बन पाये कभी
हां, आंसुओं का आशियाना जरूर बने
जीवनसाथी तो थे तुम मेरे
लेकिन कभी अहसास,ना हुआ साथ
हर राह पर अकेली ही चली मैं
अपने अश्रु खुद ही सहेजे
बेमानी थे विवाह के सात वचन
अर्धांगिनी तो गूढ़ अर्थ सहेजे है
साथी भी ना बनाया तुमने
हां कुछ पल का भ्रम जरूर पुष्पित हुआ
लेकिन कभी भी चांदनी रात में
तुम संग आंखें ना हुईं वाचाल
सिर्फ मशीनी देहप्रेम नहीं होती
किसी औरत की चाह!
ये बताना चाहती हूं मैं तुम्हें
चूड़ी,बिंदी और सिंदूर नहीं
और भी बहुत कुछ है धर्मपत्नी!!

रजनीश आनंद
05-12-16

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

मेरी कलम और तुम

आज नीले रंग की
एक कलम खरीदी मैंने
बेसब्र थी उससे
दिल की कुछ बात
लिख डालने के लिए
उसे गिरफ्त में लिया
तो दिल को मिला कुछ सुकून
चूम कर उसे मैंने
अपने सीने से लगाया
कलम से अपना प्रेम
मैंने कभी नहीं छुपाया
प्रेमातुर हो उसकी चमकीली
नीब को ज्योंही मैंने सफेद
कागज से सटाया
बिजली सी कौंधी और
जो बरसा वह था
सिर्फ तुम्हारा नाम, तुम्हारा नाम...
रजनीश आनंद
02-12-16

क्यों चांद इशारे करता है...

ये क्या हुआ मुझे प्रिये?
क्यों चांद इशारे करता है
क्यों बादल लिपटना चाहता है
क्यों पवन चूमकर जाता है
क्यों पुष्प सजाना चाहता है
ये क्या हुआ मुझे प्रिये
क्यों चांदनी छेड़ कर है
क्यों बिजली सिहरन बन जाती है
क्यों हवा मदहोश हुई जाती है
क्यों कली देख शरमाती है
ये क्या हुआ मुझे प्रिये
क्यों आईना देख लजाती हूं
क्यों चेहरा मेरा दमकता है
क्यों बिन बोले कुछ सुन लेती हूं
क्यों किसी की चाह में तड़पती हूं
ये क्या हुआ मुझे?

बुधवार, 30 नवंबर 2016

एक बात बताओ तो प्रिये...

एक बात बताओ तो प्रिये
ऐसा क्यों होता है?
काले मेघ छाते हैं तो
वर्षा क्यों होती है?
मुझे तो ऐसा प्रतीत
होता है जब तुम
बांहों मे लेते हो
नयना मेरे खुशी से
बरबस बरस पड़ते हैं
अच्छा ये बताओ तो
बिजली जब चमक उठती है
तो बादल क्यों गरज उठते हैंं?
मुझे तो ऐसा भान होता है
जब तुम नजर भर देख लेते हो
तन मेरा चमक उठता है
और वो बादल नहींं गरजते
मेरी धड़कन है ,जो
सहसा तीव्र गति से धड़क उठती है
अच्छा ये बताओ तो तुम...
रजनीश आनंद
30-11-16

मंगलवार, 29 नवंबर 2016

तुम्हारे नाम एक पाती

प्रिये,
कैसे हो? हर सुबह जब गुड मार्निंंग के साथ यह सवाल मैं तुमसे करती हूं,तो भान होता है,जो सांसें रूकी थीं अबतक वो चल पड़ी हैं. और हां , जब तुम कहते हो एकदम ठीक, तो एक मुस्कान खिल जाती है मेरे चेहरे पर. जानते हो, तुम्हारे ये तीन लब्ज प्राणवायु बन गये हैं मेरे-तुम मेरी हो.
जब तुम इन्हें कहते हो ना,तो खुद पर गुरूर सा होता है, प्रतीत होता है मैं दुनिया की सबसे भाग्यशाली औरत हूं.
देखो ना तुम्हारे हर शब्द को अपने हाथों में समेट कर मैंने सीने से लगा रखा है. अजीब सी खुशी मिलती है. खुद में खोई रहती हूं खुशी नहीं, आनंद से सराबोर,एकदम तुम्हारे रंग मे रंगी.
मेरे जीवन की हर रात जो स्याह थी कभी, बेनूर थी, वो नये उत्साह से भरी है. सपने हैंं, तुम्हारा आलिंगन है, इंतजार है और सबसे बड़ी बात तुम्हारा प्यार है, जो हर दिन गुड नाइट कहकर मुझे ले जाता है तुम्हारे आगोश में जहां तुम्हारा स्नेहिल स्पर्श है और वो सब जो एक औरत को चाहिए....
तुम्हारी...

सोमवार, 28 नवंबर 2016

वो निर्मल जल है...

चांद सुनो
किसी को दिखते होंगे
पर मुझे तो अपने प्रिये में
कोई अवगुण नहीं दिखते
यह महज किताबी बात नहीं
अहसास है जिसे समझने के लिए
प्रेम में पगा हृदय चाहिए
बेशक हर इंसान में कमियां होती हैं
उसमें भी होंगी, लेकिन वो मुझे
उन कमियों के साथ प्यारा है
मन उसका निर्मल जल
बोली गन्ने के रस जैसी
मुख दीवाली के दीये सा प्रकाशमान
हृदय केशव सा विशाल
नयनों में अपार सपने
मन में अद्भुत इच्छाशक्ति
और सबसे बड़ी बात
उसे प्रेम है मुझसे
तो तुम ही कहो
क्योंकर दिखेगा मुझे
उसमें कोई अवगुण
रजनीश आनंद
28-11-16

सपने तो मैं देखूंगी...

ये क्या है जो मेरे सीने में
धंस सा गया है
तिल-तिल रिसता है दर्द
मेरे आंखों से अश्रु बनकर
जब भी देखती हूं
नर-मादा जोड़ियों को
घोंसले के लिए बिनते तिनका
होता है अहसास एक अधूरेपन का
बिन घोंसले के होने का
कोशिश तो मैंने भी की थी
तिनका -तिनका बीनकर
नीड़ के निर्माण की
लेकिन बिखर गया सबकुछ
और कहा गया मुझसे नहीं है मुझे
सपने देखने की आजादी
नहीं मिली रोने की भी इजाजत
तो ठहाकों में बदल दिया
मैंने अपने आंसुओं को
और किया निर्णय सपने
तो मैं देखूंगी, सच भी करूंगी.
रजनीश आनंद
28-11-16

रविवार, 27 नवंबर 2016

प्रेमवृक्ष

प्रेम में जायज है इंतजार
तबतक,जबतक प्रिये आकर
ना भर ले बांहों में
निसंदेह अधीर होता है मन
अश्रु भी बहते हैं,लेकिन
एकत्र कर आंसुओं को
मैंने सींचा है अपना प्रेमवृक्ष
देखो ना प्रिये ह लहलहा रहा है
कुछ दिन में फूल और फिर फल आयेंगे
फिर कोई चिड़िया आकर
अपना नीड़ बना जायेगी
इसे बूढ़ा बरगद होते देखना है हमें
और हां जब तुम आओगे ना
तो अपने प्रेम की वर्षा कर
भींगा जाना इसे ताकि
अमर हो जाये यह प्रेमवृक्ष
रजनीश आनंद
27-11-16

शनिवार, 26 नवंबर 2016

हर्षित है तन, पुलकित मन

तुम मेरे जीवन में
नयी शुरुआत
नहीं , तुम तो
मेरे तमाम सत्कर्मों का फल हो
तभी तो पाकर तुम्हें
सार्थक हुआ जीवन है
ओ प्रिये सुनो
हर्षित है मन
पुलकित तन
हृदय में मधुर पीड़ा
जी चाहता है
पंछी बन उड़ चलूं
जहां है देश तुम्हारा
नदी, पहाड़,पठार लांघ
पंख तब तक ना थकें
जब तक देख ना लूं तुम्हें
और फिर तुम्हारे बांहों की
गरमाहट हो मेरा ईनाम
और कुछ चाह तो शेष नहीं अब...
रजनीश आनंद
26-11-16

शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

सपने...

जानते हो प्रिये
जब रसोई में मैं
रोटियों को गोलाई
में विस्तार देती हूं
तो भान होता है
जैसे अपने सपनों को
मूर्त रूप दे रही हूं
और तुम,मुझे
उस तवे की भांति लगते हो
जो मेरे सपनों को साकार करने
के लिए खुद आग की तपिश में
जल रहा है, मेरे सपनों को
स्वादिष्ट रोटी बनाने के लिए
यूं दिन-रात ना जलो प्रिय
कुछ मुझे भी मौका दो जलने का
क्योंकि प्रेम तो हमदोनों ने किया है
और यह सपना हमदोनों का है,है ना?
रजनीश आनंद
25-11-16

बुधवार, 23 नवंबर 2016

मैं तुम्हारी और तुम मेरे हो...

बहुत खराब हो तुम
मैं तुमसे तबतक ना बोलूंगी
जबतक तुम ना बोलो मुझसे
यह ठान मैं कर आयी तुमसे किनारा
सोचा, कुछ देर ले लेती हूं मीठी नींद
लेकिन पलकों को चूम जगा गये तुम
जागती आंखों में जो ख्वाब तैरे
उसमें तुम ही तुम थे
सोचा बाहर टहल लेती हूं
दरवाजे को खोला, तो सर्द हवा
टकराई मुझसे, जिसमें गरमाहट थी तुम्हारी
उस गरमाहट को ठुकरा मैं बैठ गयी
कागज काले करने, लेकिन ना जानें क्यों
तुम्हारे नाम के सिवा कुछ लिख ना पायी
खुद से हार कर जो मैंने बंद की आंखें
तो ढलक गये अश्रु, कहा दिल ने
तू किससे ना बोलने की जिद कर बैठी है
जिसके सांस लेने से आती है सांस तुझे
जिसकी उपस्थिति से होता है,
तुझे अपने अस्तित्व का एहसास
जिससे बोलकर है तेरे नयन वाचाल
अन्यथा हो जायेंगे मूक
सुनकर अपने दिल की बात
मैं भागकर समा गयी, तुम्हारी बांहों में
इस मिलन मेंं नयन जो बरसे, तो
मिट गये सारे शिकवे, एक ही बात शेष रही
कि मैं तुम्हारी और तुम मेरे हो...
रजनीश आनंद
23-11-16

मंगलवार, 22 नवंबर 2016

प्रेम का गुल्लक

ए सुनो ना प्रिये,तुम्हें कुछ बताना है
मैं कुछ दिन पहले बाजार गयी थी
वहां एक मिट्टी के छोटे गुल्लक
पर टिक गयी मेरी नजरें
बिलकुल गोल, ना ओर ना छोर
हमारे प्रेम की भांति.
उसे देखते ही अजीब से आकर्षण हुआ
मैंने लपक लिया उसे ताकि
कोई और ना उठा ले उसे
बड़ा सुकून मिला उसे स्पर्श करके
मैं हर दिन उस गुल्लक में
अपने इंतजार का, तुम्हारे लिए अपने तड़प का
एक-एक सिक्का गिराती हूं
जब वो सिक्का गुल्लक की दीवारों से टकराता है
और फूटती है एक ध्वनि, तो प्रतीत होता है
मानो तुमने सुन ली मेरी बात
कल जब मैंने उसे हाथों में उठाया
तो गुल्लक के अंदर से आयी आवाज
सुनो प्रिये तुम अकेली नहीं तड़प रही
मैं भी तो तुम्हारे लिए तड़पता हूं
यकीन है मुझे जिस दिन यह गुल्लक पूरा भर जायेगा
उस दिन तुम आ जाओगे मेरे सामने और
कहोगे मुझसे आओ इंतजार को अभिसार में बदल दें.

रजनीश आनंद
22-11-16

शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

क्योंकि एक उम्मीद काफी है जिंदगी के लिए...

क्या तुम्हारे होने का एहसास मात्र
मुझे जिंदगी को जी लेने के लिए प्रेरित करता है?
यह सवाल मेरे मन में कुलबुला रहा है
बेनूर ना सही, लेकिन नाउम्मीद सी
जरूर हो गयी थी जिंदगी
सुबह भी होती थी, शाम भी और रात भी
लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ता
जैसी हो गयी थी मैं
होली भी आयी और दीवाली भी
पकवान भी बने बने और गुलाल भी उड़े
मैं मुस्कुराई भी और नये कपड़े भी पहने
लेकिन मुस्कान के पीछे छिपी
मेरी भींगी पलकों को किसी ने देखा नहीं
ना किसी ने मेरी मुस्कान देख कहा
यूं ही बनाये रखना इसे
ना किसी ने यह कहा
कि नीला रंग तुम पर बहुत फबता है
लेकिन अचानक जीवन के एक मोड़ पर मिले तुम
पता नहीं क्यों और कैसे मैं जुड़ती गयी तुमसे
मेरी जिंदगी में एक उम्मीद बनकर आये तुम
और मैंने ये जाना कि
एक उम्मीद काफी है जिंदगी जीने के लिए
रजनीश आनंद
18-11-16

बुधवार, 16 नवंबर 2016

मैं बन जाना चाहती हूं ...

प्रिये मन में है एक बात
बेसब्र हूं, तुमसे कहने को
ज्ञात है मुझे, सीमित है
हमदोनों के प्रारब्ध में मिलन
लेकिन कोई दुख नहीं
मैं हर दिन, हर पल
तुम्हारे लिए जीना चाहती हूं
इसलिए तो मैं बन जाना चाहती हूं,
सूर्योदय की लालिमा
ताकि अहले सुबह, जब जागो तुम
बसा लो उसके अनुपम सौंदर्य को अपनी आंखों में
मैं बन जाना चाहती हूं,
सरदी की धूप
जिसका ताप तुम्हें सुकून दे
तुमको कर दे ऊर्जा से ओतप्रोत
मैं बन जाना चाहती हूं
शीतल मंद वसंती हवा
ताकि जब बहाव हो मेरा, तो चूम लूं
तुम्हारे तन को और
तुम्हें हो मेरे आसपास होने का एहसास
मैं बन जाना चाहती हूं
तुम्हारे बागीचे की फूल
जिसे तुम प्रेमवश कभी-कभी दे दो अपना स्पर्शसुख
मैं बन जाना चाहती हूं
तुम्हारे आंगन की तुलसी
जिसे तुम मान दो और
मैं बनाया जाऊं तुम्हारे लिए शुभकारी
मैं बन जाता चाहती हूं
तुम्हारे आंगन की प्यारी गोरैया
जिसका आंगन में फुदकना, तुम्हें प्रिय हो
और जिसके घोंसले और अंडे को
तुम सहेजकर रखते हो
मैं बन जाना चाहती हूं,
चांद की नहीं, तुम्हारी चांदनी
जिसकी दूधिया रौशनी तुम्हारे मार्ग के हर तिमिर को दूर करे
और तुम सच कर सको अपने हर सपने को

रजनीश आनंद
17-11-16

रविवार, 13 नवंबर 2016

..ओ चांद सुनो

..ओ चांद सुनो,
मेरी एक बात
आज मेरे प्रिये ने
वो सबक कह दिया
जिसे सुनने को मेरे कर्ण
कब से तरस गये थे
उसने आज बताया
अपने प्रेम का रहस्य
उस क्षण लगा जैसे
जड़ हो गयी हूं मैं
परम सुख से हुआ साक्षात्कार
और नम हो गयीं पलकें
अश्रु सिर्फ दुख के नहीं
सुख के भी होते हैं साथी
मैंने कहा उससे थाम लो मुझे
ताकि इस सुख को महसूस कर लूं
जब उसने लिया मुझे
अपनी बांहों के घेरे में
तब मैं, मैं नहीं रही
सिर्फ वो रहा और हमारा प्रेम
उसके प्रेम की वर्षा से अभिभूत
मैं प्रेमलता बन कस गयी उससे
इस कसावट में मेरी आंखें,
अधमुंदी सी हो गयीं और
मैंने कहा, तुम्हारे प्रेम में
टीसता है तनमन
आजीवन बनी रहे यह टीस, यह कसावट
प्रेम इतना दो मुझे कि बेसुध हो जाऊं मैं
और तुम्हारी बांहों में तोड़ दूं
तनमन की हर लाज, हर दीवार
रजनीश आनंद
14-11-16

गुरुवार, 10 नवंबर 2016

...तुम पलाश के फूल

मैं हरी घास की चादर
और तुम पलाश के फूल
जब बिछते हो तुम मुझपर
अनुपम होता है सौंदर्य
हरा और सुर्ख लाल
ऐसे खपते हैं दोनों
एक दूसरे में जैसे चुंबक के दोनों ध्रुव
सोचती हूं किस मोड़ पर आ गयी जिंदगी
कुछ समय पहले तक
अनजान थे बिलकुल हम
लेकिन अब आती है हर
सांस लेकर तुम्हारा नाम
तुम बिन कैसे होंगे दिन-रात
इसकी कल्पना मुझसे नहीं संभव
सुनो तुम प्रिये, ये चाह है मेरी
जब आओ तुम बनकर प्रेममेघ
मैं बन जाऊं तपती धरती
समेट लूं हर बूंद
तुम्हारे प्रेम का
क्योंकि हर बूंद है अनमोल मोती
रजनीश आनंद
10-11-16

मंगलवार, 8 नवंबर 2016

तुम मृत्यु नहीं सृजन हो...

डूबती किश्ती नहीं मैं
ना तुम तिनके का सहारा
मेरे लिए बहुत खास हैं
तुम्हारे होने के मायने
बिलकुल वैसे जैसे किसी
मूर्तिकार के लिए गीली मिट्टी
और चित्रकार के लिए रंग
तुम मृत्यु नहीं सृजन हो मेरे जीवन के
नकारात्मकता का तिमिर छंटा तब,
जब आये तुम जीवन में
बने रहना सदा यूं ही
तुम जीवन प्राण बनके
मृत्यु शैय्या पर जाऊं जब मैं
तुम थाम लेना बांह मेरी
कह देना बस एक बात
तुम प्राणप्रिया मेरी
चैन से तब मैं जा पाऊंगी
इस नश्वर जगत से
तुम ही तुम हो चारों ओर
जब निकले अंतिम यात्रा मेरी
रजनीश आनंद
08-11-16

वो बंधन...

जीवन के सफर में मैं और तुम
चले तो थे प्रेमी -हमसफर बनकर
लेकिन, कुछ ही समय में
प्रेम कहीं खो गया और
हावी हुआ स्वार्थ, रिश्तों पर
अहसास हुआ मुझे
खोखला है हमारा रिश्ता
जहां प्रेम तुम्हारे लिए
महज किताबी बातें थीं
कोई मोल नहीं था तुम्हारे लिए
मेरी भावनाओं का
तुम यह बात कभी नहीं समझ पाये
प्रेम सबकुछ सहता है
किंतु उपेक्षा नहीं
आखिर मैं कबतक उपेक्षित रहती
कबतक अपने स्वाभिमान को अपमानित करती
यह सोच मैं ज्यों गयी तोड़ने उस बंधन को
जिसने बांध रखा था मुझे तुमसे
मैंने देखा तुम तो कब के तोड़ गये थे
वो बंधन!!!
मैं तो महज लाश ढो रही थी रिश्तों की...

रजनीश आनंद
08-11-16

शनिवार, 5 नवंबर 2016

चंद सिलवटें...

ये किसकी महक है फिजाओं में
जो छूकर मदहोश कर जाती है
एहसास करा जाती है कि
उसके बिना अकेली हूं मैं
निष्प्राण हूं , एक बुत के समान!
तभी कानों में फुसफुसा जाता है कोई
एक सनसनी सी दौड़ जाती है तनबदन में
और रोमानी हो जाता है पूरा वातावरण
बिस्तर पर लेट मैं महसूस करना चाहती
देखना चाहती हूं,उस आवाज को
साकार स्वरूप में, उसके चेहरे का स्पर्श
किंतु हाथ नहीं आता वो
सिर्फ मिलती हैं चादर पर
चंद सिलवटें!!!
जो रोमांचित करती हैं
जिन्हें हाथों से छूकर, मैंने अंकित किया है
मन के उस कोने में जहां है बादशाहत
उस महक की, फुसफुसाहट की...
रजनीश आनंद
05-11-16

बुधवार, 2 नवंबर 2016

निर्मल आंसू

एकदम स्वच्छ
निर्मल होते हैं
आंखों से बहते आंसू
दोष से रहित
बिलकुल पारदर्शी
हम-आप
साफ देख सकते हैं
इसके आर-पार
क्यों, कब और कैसे
आंखों में घुमड़े
और फिर बरसे आंसू
मैंने तो कई बार
पढ़ा इन्हें,
अद्‌भुत है
इनकी कहानी
जब हाथों में समेट
आप देखेंगे
इनके आर-पार
बरस सकते हैं
एक बार फिर
ये मोती आंखों से
लेकिन तब भयावह
हो जाती है स्थिति
जब सूख जाते हैं आंसू
और
संवेदना शून्य
आंखें पत्थर की
हो जाती हैं
मुझे नफरत है
पत्थर होती है
आंखों से
इसलिए भाते हैं
निर्मल आंसू...

रजनीश आनंद
03-11-16

मंगलवार, 1 नवंबर 2016

तुम्हारी इच्छा और मैं...

तुम्हें यह झूठ
प्रतीत हो सकता है
पर
सच कहती हूं मैं
मेरी हर इच्छा
तुमसे जुड़ी है
क्या तुम्हें भी कभी
ऐसा महसूस हुआ है?
जानते हो प्रिये जब
स्नान के बाद मैं
कपड़े पहनना चाहती हूं
तो
सहसा उस रंग के कपड़े तक
मेरे हाथ चले जाते हैं
जो तुम्हें प्रिय है
जब खुद को संवारने
आइने के सम्मुख होती हूं
तो वह सब कर बैठती हूं
जो है तुम्हारी पसंद
माथे पर लाल बिंदी
मैं बरबस लगा लेती हूं
क्यों?मुझे पता नहीं
पूरा दिन तुमसे बात करती हूं
समझना चाहती हूं तुम्हें
तुम्हारी पसंद-नापसंद
लेकिन आसान नहीं है
तुम्हें पढ़ पाना
क्योंकि विस्तृत है तुम्हारा व्यक्तित्व
फिर भी मैं इतना कह सकती हूं
बहुत प्रेम है तुमसे
बाकी चीजें मैं नहीं समझ पाती
रात नींद तो आती है
पर जागती रहती हूं मैं
यह सोच कि कब तुम्हें
मेरी चाह हो
और
तुम मुझसे कहो
आओ प्रिय उदात्त प्रेम के
सागर में हम डूब जायें
तब मैं समर्पित कर दूं
खुद को तुम्हारे लिए
गहरे प्रेम के उस क्षण में
मैं गहरी आवाज में
जो तुम्हें प्रिय है
सिर्फ लेना चाहती हूं
मैं तुम्हारा नाम
उस पल जब चंचल हो
तुम्हारा स्पर्श और
मादक हो हर ध्वनि
मैं बन जाना चाहती हूं
तुम्हारी इच्छा
और जी लेना चाहती हूं
तुम्हारे लिए बस
तुम्हारे लिए...

रजनीश आनंद
02-011-16

रविवार, 30 अक्तूबर 2016

रिसता दर्द

तुमने कभी सोचा प्रिये?
क्या बितती है मुझपर
तुम्हारी चाह में
हर पल रिसता है
एक दर्द सीने में
मैं वर्णन नहीं कर सकती
उस एहसास का
देखो मेरी आंखों में
तुम्हें स्पष्ट दिखेगी
असीमित इंतजार की तड़प
और
जब तुम कसते हो
मुझे बांहों में तब,
जब वायु का प्रवेश भी
हो जाता है निषेध
मुझे मिलती है प्राणवायु
असीम ऊर्जा से परिपूर्ण
और मैं अपने अधरों से
लिख देती हूं तुम्हारे वक्ष पर
हमारी प्रेमकथा
और जब तुम अपनी अंगुलियां
फेरते हो मेरे केशों में तो
मैं जकड़ती जाती हूं तुम्हें
ताकि एक हो जायें हम
थोड़ी क्रूर होती पकड़
लेकिन सुखद
जब बेसुध सी हो जाती हूं मैं
तब अहसास होता है
मेरा जिस्म मेरा नहीं
सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी चाह है
जिसका हर रिसता दर्द
मिटता है तुम्हारी बांहों में आकर

रजनीश आनंद
31-10-16

शनिवार, 29 अक्तूबर 2016

दीपावली की रात

जानते हो प्रिये तुम
दीपावली की रात
मैंने हर साल जलाये दीये
किंतु छटा नहीं वह तम
जिसने जकड़ रखा था
मुझे अपनी गिरफ्त में
मैंं दीये बढ़ाती गयी
लेकिन
कम ना हुई उसकी जकड़न
अंधेरे से डरती हूं मैं
मां यह बात जानती है
इसलिए मेरे साथ वो भी
लगातार चलाती रही दीये
लेकिन नहीं छटा अंधेरा
फिर एक दिन दो नन्हें हाथों ने
मेरे लिए जलाए दीये
उसकी दो चमकीली आंखें
किसी भी अंधेरे को चीर सकती थी
आसरा हो गया मुझे
उस अंधेरे से सामना करने का
पर अबकी दीवाली तो
मैंने अभी दीये भी नहीं जलाए
और रौशन है घर-आंगन
जानते हो क्यों?
क्योंकि
तुम्हारे प्रेम का दीया
मैंने जला रखा है मन में
अब नहीं लगता डर
मुझे किसी अंधेरे से
क्योंकि तुम हो साथ मेरे
रजनीश आनंद
29-10-16

दीपावली की रात

जानते हो प्रिये तुम
दीपावली की रात
मैंने हर साल जलाये दीये
किंतु छटा नहीं वह तम
जिसने जकड़ रखा था
मुझे अपनी गिरफ्त में
मैंं दीये बढ़ाती गयी
लेकिन
कम ना हुई उसकी जकड़न
अंधेरे से डरती हूं मैं
मां यह बात जानती है
इसलिए मेरे साथ वो भी
लगातार चलाती रही दीये
लेकिन नहीं छटा अंधेरा
फिर एक दिन दो नन्हें हाथों ने
मेरे लिए जलाए दीये
उसकी दो चमकीली आंखें
किसी भी अंधेरे को चीर सकती थी
आसरा हो गया मुझे
उस अंधेरे से सामना करने का
पर अबकी दीवाली तो
मैंने अभी दीये भी नहीं जलाए
और रौशन है घर-आंगन
जानते हो क्यों?
क्योंकि
तुम्हारे प्रेम का दीया
मैंने जला रखा है मन में
अब नहीं लगता डर
मुझे किसी अंधेरे से
क्योंकि तुम हो साथ मेरे
रजनीश आनंद
29-10-16

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

वो गांठ...

सुनो ना प्रिये
एक बात बताऊं तुम्हें
कुछ दिनों से मेरे
आंचल में कुछ बंधा सा है
मैं रोज देखती हूं उसे
सोचती हूं क्या है इसके अंदर
फिर जीवन की उलझनों में उलझी
देख नहीं पाती उसे
लेकिन मेरा ध्यान है उसपर
अब तो आदत सी हो गयी है उस गांठ की
जैसे जीवन में शामिल कोई
जब अकेली होतीं हूं, तो थाम लेती हूं, उस गांठ को,
भान होता है अकेलापन मिट गया
जब उदास होता है मन और
भींग जाती हैं पलकें मेरी
तो उसी गांठ से पोंछ लेती हूं
अपने छलकते आंसुओं को
लगता है जैसे कहा, उस गांठ ने
मत रोओ, मैं साथ हूं ना
खुश होती हूं तो, दबा लेती हूं उसे दांतों से
कभी तो चूम भी लेती हूं खुशी से
लेकिन जानते हो आज क्या हुआ?
आज जब मैं अपने बागीचे में गयी
तो सहसा मेरा आंचल उलझ गया
गुलाब की झाड़ी से और
खुल गयी वो गांठ...
मेरा जी धक से कर गया,अब क्या!!!
लेकिन जानते हो क्या निकला उस गांठ से?
तुम्हारा प्यार, जिसे संजो कर रखा था
मैंने अपने आंचल में
अहा! मैंने एक बार फिर से समेट लिया है
उसे अपने आंचल में और बांध ली है गांठ
जिसे सीने से चिपकाकर जीना है मुझे ताउम्र.

रजनीश आनंद
28-10-16

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2016

संजीवनी बूटी

क्या मैं बेसब्र हूं प्रिये?
सच बताना, संकोच ना करना
वैसे तुमसे एक मन की बात कहूं?
मुझे ऐसा प्रतीत होता है
कि मैं बेसब्र हूं
जब तुम नहीं बोलते ना मुझसे
और मैं निराश हो जाती हूं
कभी-कभी छलक जाते हैं नयन
और कभी तो क्रोध आ जाता है
कभी सोचती हूं, रूठ जाऊं
ना करूं तुमसे कोई बात
यह संकल्प कर ज्योंही बैठती हूं
तुम सामने आते हो और
कहते हो क्या नहीं बोलोगी मुझसे
बस, टूट जाती सारी प्रतिज्ञा
और मैं फिर करने लगती हूं बकबक
क्या करूं मैं, जो मन मानता नहीं
तभी ध्यान आता है मुझे मीरा का
कितना धैर्य था उस स्त्री में
जिसने आजीवन बुतपरस्ती की
सोचो तो, क्या उसका श्याम
उससे नहीं बोलता होगा?
मुझे तो पूरा यकीन है
वो बोलता होगा, यह बात दीगर है
कि सुना सिर्फ मीरा ने
वैसे जरूरत भी क्या थी
किसी और को सुनने की
मैं भी तो तुम्हारी मीरा हूं
मेरा भी मन करता है
कि मैं करूं तुम्हारा श्रृंगार
तुम्हारे लिए  बनाऊं पकवान
और जब तुम खाओ
तो तुम्हें निहारती रहूं, बड़ा सुख मिलेगा
ए सुनो ना एक बार
चाहे तो ना देना जवाब
पर मैं कहना चाहती हूं
बस एक बार कह दो ना
तुम्हें मुझसे है प्रेम
क्योंकि यही एक शब्द है
जो संजीवनी बूटी है, मेरे जीवन की
रजनीश आनंद
26-10-16

कैसे बचा पाऊंगी मैं ...

मृत्यु पर शोक
जन्म पर खुशी
यही विधान है
लेकिन उस दिन
उल्टी गंगा क्यों बही?
एक अबोध के आगमन पर
जब  देने गयी बधाई
तो पसरा था सन्नाटा
खुशी की कोई पहचान
नहीं थी उपस्थित वहां
हां हल्की सी सिसकी थी मौजूद
आशंका से घिर गया मन
कोई अनिष्ट तो....
नहीं-नहीं मैंने
खुद को हिम्मत बंधायी
और पहुंची उस माता के सम्मुख
जिसकी गोद में थी
जीवन की नयी आस
मुस्कुराती, इस दुनिया को
उम्मीद से निहारती
मासूम का प्यारा चेहरा देख
पूछ बैठी मैं उसकी मां से
इतना सुंदर वरदान मिला
फिर भी क्यों है
तेरी पलकें भींगी
खुश हो कि तुमने
अद्‌भुत सृजन किया
गर्व करो खुद पर
अब तू सिर्फ औरत नहीं मां है
फफक पड़ी वो मां
कलेजे से बच्ची को लगा
कहा, हां मां हूं
इसलिए पलकें हैं भींगी
क्यों जना मैंने एक लड़की
मिले घर वालों के ताने
कहीं कोई खुशी नहीं
सोचती हूं ज्यों-ज्यों
इसकी उम्र बढ़ेगी, बढ़ेंगी इसकी मुश्किलें
क्योंकर मैं बचा पाऊंगी
अपनी लाडो को
इस दूषित समाज से
क्या इसे भी मिलेंगे
बेटी जनने पर ताने?
रजनीश आनंद
25-10-16

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2016

मौन...

कुछ रिश्तों की किस्मत
मौन में सिमट जाती है
हावी हो जाता है
हर भावना पर मौन
शेष कुछ नहीं रहता
तब उठते हैं कुछ सवाल
मन में शिद्दत से
जो खिलखिलाहट थी कभी
क्या वो बनावटी थी?
शायद हां, वरना तो
रिसते जख्मों से भी
आह निकलती है
फिर क्यों हम बुनते हैं
ऐसे रिश्ते जिसमें
 ना तो ‘आह’ है ना ‘अहा’!
है तो सिर्फ और सिर्फ
मौन, मौन और मौन
रजनीश आनंद
20-10-16

जो एक बार कह दो तुम...

तुम और मैं, बनें हम

ना तो सात वचन

ना अग्नि के फेरे

 ना साक्षी समाज 

ना कोई मंत्रोच्चार

लेकिन है विश्वास

साथ हैं हम.

जब आती है सांस

तन में लेकर तुम्हारा नाम

खिल उठता है मन

अंतस से आती है आवाज

तुम्हारी हूं मैं

सात जन्मों तक 

साथ रहे ना रहे

पर इतने का है वादा

जब भरूंगी अंतिम सांस

लेकर तुम्हारा नाम

पास हो या दूर तुम

भींग जायेंगी पलकें तुम्हारी

इतना है प्रेम मेरे मन में

लाख रोकती हूं 

रूकता नहीं सैलाब

बहते हैं आंसू मेरे दृग से

बस इतना है प्रेम निवेदन

इंतजार की रात,

चाहे कितनी भी हो लंबी

मेरी आंखें बंद होने से पहले 

मस्तक को चूम मेरे 

कह देना तुम एक बार

तुम्हारा हूं मैं....

रजनीश आनंद

20-10-16