बुधवार, 28 अगस्त 2019

लड़ाकू प्रवृत्ति की हैं ममता बनर्जी, ऐसे लिया था माकपा को बंगाल से हटाने का संकल्प-1

-रजनीश आनंद-

देश की राजनीति में अगर नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ कोई नेता मजबूती से खड़ा है, तो वे हैं ममता बनर्जी. कई ऐसे मामले सामने आये जब बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने खुलेआम प्रधानमंत्री का विरोध किया और वे अपने निर्णय से डिगी नहीं. एक तरह से ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खुली चुनौती दे रखी है कि वे उनका विरोध करेंगी. यहां तक कि फेनी तूफान के वक्त भी ममता दीदी ने केंद्र से मदद की पेशकश को ठुकरा दिया था. वर्तमान में वे केंद्र द्वारा बुलायी जाने वाले किसी बैठक में उपस्थित नहीं होतीं और एक तरह से केंद्र सरकार का बहिष्कार कर रखा. लोकसभा चुनाव के दौरान भी बंगाल में यह स्पष्ट रूप से दिखा कि किस तरह टीएमसी और भाजपा का विरोध है और यह विरोध कई बार हिंसक भी हो जाता है. हालांकि लोकसभा चुनाव में भाजपा ने बंगाल में अच्छी उपस्थिति दर्ज करायी,लेकिन सवाल यह है कि आखिर ममता दीदी विरोध की इतनी हिम्मत कहां से लाती हैं? दरअसल यह लड़ाकूपन उनके व्यक्तित्व का हिस्सा है. जिस तरह से उन्होंने बंगाल में माकपा के खिलाफ लड़ाई लड़ी और उन्हें सत्ता से हटाने का संकल्प लिया लाठियां खाईं, इनसब ने उनके व्यक्तित्व में जूझने की शक्ति को संपोषित किया है. तो आइए जानते हैं कि किस तरह ममता बनर्जी ने राजनीति में शुरुआत की और कितना संघर्ष किया और अंतत: अपनी मातृपार्टी कांग्रेस से अलग होकर टीएमसी का गठन किया.

टीएमसी के नेता सौगात राॅय के जेहन में आज भी वह दिन अच्छी तरह से अंकित है-जब ममता बनर्जी पीजी हाॅस्पिटल के इमरजेंसी वार्ड में पड़ी थीं. उनके सिर से लगातार खून बह रहा था, लेकिन उनके चेहरे पर डर या दर्द नहीं था. सौगात राॅय जब उनसे मिलने आये थे तो उन्हें यह नहीं लगा था कि वे किसी जख्मी महिला को देखने आये हैं, बल्कि उनका सामना एक ऐसी औरत से हुआ जो दृढ़संकल्पित थी और जिसने उस वक्त यह कहा था-मैं इन्हें (माकपा को) देख लूंगी. ममता ने अपने इन शब्दों को अक्षरश: सत्य साबित किया जब वे बंगाल की सत्ता पर काबिज हुईं.  आज बंगाल की राजनीतिक स्थिति में माकपा की हैसियत बस इतनी है कि वह टीएमसी और भाजपा के बाद गिनी जाने वाली पार्टी है.

घटना 16 अगस्त 1990 की है जब कांग्रेस पार्टी ने बंगाल में अपने कुछ साथियों रघुनंदन तिवारी, मानस बनर्जी, विमल डे की पुलिस फायरिंग में हुई मौत के बाद बंद का आयोजन किया था. उस दिन ममता बनर्जी को कांग्रेस के विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करना था, लेकिन ममता बनर्जी को उनकी मां गायत्री देवी घर से निकलने नहीं देना चाह रही थीं. उन्हें  शक था कि उनकी बेटी की जान को खतरा है. लेकिन जब कांग्रेस पार्टी को अपनी ‘फायरब्रांड’ की जरूरत थी उस वक्त वे अपनी मां के आंचल में नहीं छिप सकती थीं, इसलिए ममता ने अपनी मां से झूठ बोला.  उन्होंने कहा कि वे बस पार्टी आफिस में जाकर बैठेंगी और कुछ नहीं करेंगी. उन्होंने मां के पारंपरिक विदाई की प्रतीक्षा नहीं की और घर से निकल गयीं.

ममता बनर्जी को प्रदर्शन का नेतृत्व करना था, लेकिन उन्हें यह नहीं पता था कि यहां कुछ गलत होने वाला है. कांग्रेस के नेता भी प्रदर्शन स्थल तक पहुंच रहे थे. उसी वक्त पीली टैक्सी में माकपा के सदस्य वहां पहुंच गये और पुलिस नदारद थी. ममता ने देखा लालू आलम उनकी ओर लोहे का राॅड लेकर आक्रमण करने के लिए बढ़ रहा था. उसने पुलिस का हेलमेट पहन रखा था. कांग्रेसियों ने ममता को घेरकर बचाने की कोशिश की,लेकिन बचा नहीं सके. ममता डरी नहीं ना वहां से भागने की कोशिश की. परिणाम यह हुआ कि उनपर हमला कर दिया गया. उस वक्त ना तो मीडिया इतनी एक्टिव थी और ना ही सोशल मीडिया का दौर था कि उन क्षणों को कैद किया जाता , जब ममता बनर्जी शेरनी की तरह अपने मोर्चे पर डटी रहीं. लालू आलम ने उनके सिर पर वार किया और ममता के सिर से खून बहने लगा. ममता ने अपने सिर को हाथों से ढंक लिया और फिर वह बेहोश हो गयीं. यह ममता बनर्जी के जीवन की एक कथा है, जो उनकी जीवटता को प्रदर्शित करती है, साथ ही यह भी बताती है कि किस तरह और कितना संघर्ष करके ममता ने बंगाल की राजनीति से माकपा का खात्मा किया.  ममता एक ऐसी नेता थीं, जिनका यह मानना था कि उन्हें अपने साथियों के साथ ही लाठी खानी होगी, ऐेसा ठीक नहीं होगा कि प्रदर्शन के दौरान जब लाठी खाने की बारी आये तो वे अलग हो जायें. सूती साड़ी और हवाई चप्पल में रहने वाली इस कांग्रेसी फायरब्रांड नेता की यह खूबी थी. उन्होंने काॅन्वेंट से पढ़ाई नहीं की और अकसरहां वे बांग्ला भाषा में ही भाषण देती हैं, लेकिन उनकी पकड़ आम लोगों में बहुत खास थी.

1993 में केंद्रीय मंत्री रहते हुए ममता बनर्जी ने मुख्यमंत्री ज्योति बसु के आफिस (राइटर्स बिल्डिंग) के सामने धरना दिया था. वे एक गूंगी-बहरी रेप विक्टिम के लिए न्याय की मांग कर रही थीं, लेकिन सीएम ने उनसे भेंट नहीं नहीं की और वहां से चले गये.  पुलिस से ममता को लालबाजार पुलिस हेडक्वाटर्स में रात भर रोककर रखा. उसी दिन ममता ने यह प्रण लिया था कि वह तक मुख्यमंत्री कार्यालय नहीं आयेंगी जबतक वह लेफ्ट को सरकार से हटा ना दें. तकरीबन 18 साल बाद यानी 2011 में ममता बनर्जी ने राइटर्स बिल्डिंग में कदम रखा. वह दिन था 20 मई 2011 . समय दोपहर एक बजे नीली पाड़ की सफेद सूती में ममता बनर्जी यहां पहुंची थीं अपनी मां का आशीर्वाद लेकर. वह काले सैंट्रो में आयीं थीं.  लेकिन इस मुकाम तक पहुंचने के लिए ममता ने काफी संघर्ष किया. बंगाल के 2011 के विधानसभा चुनाव में ममता की पार्टी तृणमूल कांग्रेस पूर्ण बहुमत से जीती थी और लेफ्ट का सफाया हो गया था.

ममता बनर्जी ने अपने कैरियर की शुरुआत कांग्रेस पार्टी से की थी और वे पार्टी के प्रति पूर्णत: समर्पित थीं. 70 के दशक में उन्होंने महिला कांग्रेस की जेनरल सेक्रेटरी का पद संभाला था. 1984 के चुनाव में वे जाधवपुर संसदीय क्षेत्र से माकपा के वेटरन नेता सोमनाथ चटर्जी को हराकर संसद पहुंची थीं और समय की सबसे युवा सांसद थीं. वे मात्र 29 साल की उम्र में संसद पहुंच गयी थीं. वे राजीव गांधी की प्रिय नेता तो थीं, साथ ही वे राजीव गांधी का बहुत सम्मान भी करती थीं.  1989 के चुनाव में कांग्रेस के विरोध में हवा बह रही थी और इसका नुकसान ममता को भी हुआ, वे चुनाव हार गयीं, जिसके बाद उन्होंने अपनी सीट बदली और दक्षित कोलकाता सीट से पांच बार सांसद चुनीं गयी. वे नरसिम्हा राव की सरकार में केंद्रीय मंत्री भी रहीं. ममता बनर्जी ने रेलमंत्री का पद भी संभाला. लेकिन धीरे-धीरे उनका कांग्रेस से मोह भंग होने लगा क्योंकि केंद्रीय मंत्री रहते हुए भी ममता बनर्जी का झुकाव बंगाल की राजनीति के प्रति ज्यादा रहा. उन्होंने यह आरोप लगाया कि कांग्रेस पार्टी बंगाल में अप्रत्यक्ष रूप से माकपा की मदद करती है, जिसके कारण माकपा इतने सालों से सत्ता में जमी है. ममता प्रदेश से माकपा के शासन का अंत करना चाहती थी, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस उसे बनाये रखना चाहती थी.

ममता बनर्जी प्रदेश की राजनीति की माहिर खिलाड़ी थीं और उन्होंने यह महसूस किया था कि प्रदेश की जनता लेफ्ट की सरकार से निराश हो चुकी है और वह ऐसी सरकार से छुटकारा पाना चाहती है, लेकिन बंगाल में कांग्रेस की राजनीति कुछ इस दिशा में थी कि वह  लेफ्ट को सत्ताच्युत करने की बजाय उसे बनाये रखने में मदद करती थी. उस वक्त पार्टी दो फाड़ हो चुकी थी जिसे ममता हार्ड लाइनर और साॅफ्ट लाइनर बताती थीं. 1992 में ममता ने एक रैली की जिसका निहातार्थ यह था कि बंगाल की जनता का उन्हें समर्थन प्राप्त है. ममता अब अपने विचारों और आइडिया के साथ प्रदेश में आगे बढ़ना चाहती थीं, उनका उद्देश्य प्रदेश से माकपा को उखाड़ फेंकना था, लेकिन यह संभव नहीं हो पा रहा था क्योंकि उन्हें पार्टी के बाॅस रोक रहे थे. इधर राजीव गांधी की मौत के बाद कांग्रेस खस्ता हाल हो चुकी थी. 1996 का विधानसभा चुनाव प्रदेश में कांग्रेस हार चुकी थी. ममता के तमाम विरोध के बावजूद कांग्रेस ने वैसे लोगों को टिकट दिया था, जो माकपा के मददगार थे. कांग्रेस में केंद्रीय नेतृत्व का अभाव भा, पार्टी कई गुटों में ऐसे में ममता बनर्जी ने अपने लिए अलग रास्ता चुना, क्योंकि उन्हें प्रदेश से माकपा को हटाना था, 1997 में ममता ने अॅाफ इंडिया तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की. इस राह में उनके साथ थे मुकुल राॅय.

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