गुरुवार, 7 मई 2020

बड़ी की सब्जी

उस दिन बड़े प्यार से
मैंने बनायी थी बड़ी की सब्जी
जैसे बनाती थी दादी मेरी
इंतज़ार किया था, घंटों उसका
हाँ, श्रृंगार भी किया था, 
लेकिन सिर्फ मन का
उसे रिझाना मेरे बस में नहीं था
इसलिए तो बस उम्मीद की डोर बांधे थी
काश की वो इस डोर के खिंचाव को महसूस करता
इसी उम्मीद में मैंने डोर कुछ ज्यादा ही खिंची
भौतिकी में पढ़ा था प्रत्यास्थता सीमा
संभवतः मेरी उम्मीद उसी सीमा को लांघ गयी
तब मिला मुझे जिंदगी का मूलमंत्र
रिफाइन में नहीं, सरसों के तेल में बनती है
सबसे अच्छी बड़ी की सब्जी... 

रजनीश आनंद

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