सोमवार, 18 दिसंबर 2017

मुट्ठी में कैद खुशबू...

प्रेम की नदी बहती थी
मेरे घर के पीछे
जब हवा तेज चलती
तो उसकी भीनी सुगंध
मेरे कमरे तक आती
मदहोश कर जाती
एक बार हथेली में
कैद किया मैंने
जोर से पकड़े रखा
प्रेम के सुगंध को
लेकिन मैंंने जब मुट्ठी
फूंक कर खोली
तो निकला उसमें से
मात्र प्रेम का भ्रम
मैं खाली हाथ खड़ी थी
सहसा नदी की ओर से
पुकारा किसी से नाम मेरा
मैं भागकर गयी, कोई नहीं था
बस चट्टानों पर बैठा कोई
मेरी तरह फूंक रहा था
अपनी मुट्ठी को और
प्रेम की खुशबू बिखरी थी फिजाओं में
मैंने पास से देखा, खूशबू मुट्ठी से नहीं
उसकी आंखों से बिखर रही थी
और हाँ, कोई भ्रम नहीं था
अब मन में मेरे...

रजनीश आनंद
18-12-17

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