जेहन में आज भी कायम है
वो इलाहाबाद की सर्द सुबह
जब आराम से बालकनी में बैठ
खा रही थी, शुद्ध घी में चुपड़ी लिट्टी
और धनिया पत्ती की चटनी
साथ में अदरक वाली चाय,
जायके और सेहत का पूरा इंतजाम
प्रेम प्रस्फुटित था सामने
दो किशोरवय जोड़ा
उनकी नजरें टकरातीं
तो उनकी सांसों की गरमाहट
महसूस हो जाती थी मुझे
उस गरमाहट में एक बर्फीले स्पर्श ने जगाया
सामने एक मैले से कपड़े में
छोटी सी बच्ची, एक डेढ़ साल की
मेरे प्लेट को ध्यान से देख रही थी
मैंने सोचा बच्ची है पता नहीं कहाँ से आयी
तब- तक नीचे से मकान मालिकन
ढूंढ़ती आ गयी, कर्कश आवाज और क्रूर चेहरा लिये
अरी बहुत शैतान है, ऊपर कैसे आयी?
बच्ची डरी नहीं, ढीठ होकर बोली
लिट्टी की खुशबू खींच लायी
मैं दंग थी उसके जवाब पर
हैरत से पूछा- बोलना आता है बेटा?
नाम क्या है तुम्हारा
वो बोली श्वेता, पर है काली कलूटी
दादाजी ने रख दिया है नाम
बिना सोचे समझे
वह खींचकर उसने ले जाने लगी
बच्ची की नजर मेरे प्लेट पर थी
मैं भागकर गयी और दो लिट्टी उसे थमाया
उसकी आंखों में चमक थी
फिर वो आने लगी मेरे पास
कभी चॉकलेट, कभी मिठाई या कुछ और
मैं उसे खिलाती वो आकर खाती
पता चला सात आठ साल की है
पर लंबाई बढ़ती नहीं
घर वाले ही ‘बौनी’ कहकर बुलाते
एक रात नीचे से रोने की आवाज आयी
लगा पिटाई हो रही बौनी की
मन हुआ जाकर देखूं
कलेजे पर पत्थर रखा
रात कैसे कटी मालूम नहीं
सुबह वह आयी नहीं, मैं बेचैन रही
दो दिन बीते, तीसरी सुबह आयी वो
मैंने उसे पास खींचकर पूछा कहां थी
आयी क्यों नहीं थी?
उसके चेहरे पर चोट के निशान थे
कहा- मैंने मांग दिया था अंडा
पर, मेरे हिस्से तो है छूछी रोटी
अंडा दूध तो भाई के लिए है
श्वेता का मन कलुषित था
उस व्यवहार पर, जो मिला था उसे परिवार से
मैंने देखा, वह बौनी लड़की
समाज पर बड़े सवाल खड़ी कर
चुपचाप उतर रही थी सीढ़ियां...
-रजनीश आनंद
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