शनिवार, 25 नवंबर 2017

हर रोज एकदम...

प्रिये ,
सर्दी की सर्द शाम में जब ठंडी हवा बदन को छूकर जाती है, तो ठंड से ठिठुरती मैं अपने स्वेटर के पाँकेट में  कुछ यूं हाथ डालती हूं जैसे तुम्हारी अंगुलियों में फंसा ली हो अपनी अंगुली. और  महसूस होती है एक अजीब किस्य की ऊर्जा, लगता है ऐसे जैसे मैं किसी अद्श्य डोर में बंंधी खिंचती चली जा रही हूं तुम्हारी ओर...
मैं दीवानी नहीं पर बात करती हूं खुद से, तुम्हारे जबाव  भी मैं खुद ही दे लेती हूं.पर जब मैं तुम्हें पुकारती हूं -ए कनु....तुम बहुत खराब हो तो, तुम मेरे चेहरे को दोनों हाथों में थाम कर कहते हो, यह दुष्टता पसंद है ना तुम्हें. तब आह निकल जाती है मेरी. मैं इतराकर चहक  उठती हूं और कहती हूं -दुष्ट कहीं के मैं तुमसे बात ही हीं करूंगी, लेकन अगले ही पल मैं आलिंगबद्ध होती हूं तुमसेऔर कहती हूं-प्रिये तुम बहुत प्यारे हो. और इस तरह मैं रोज तुमसे बात करती ह़़ं  पता है तुम्हें? मेरे मुहल्ले की गली के हर पेड़ पौधे पर लिखा है तेरा नाम...जिनसे बातें करना मेरा रोज का शगल है और यह मुझे तुम्हारे करीब लाता है, हर रोज एक कदम...

रजनीश आनंद
25.11.17

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