रविवार, 25 अगस्त 2019

स्वाभाविकता

मैंने गढ़ा नहीं कुछ भी
जो भी है सब स्वाभाविक है
रोटी को बेलती हूं चकले पर
कोशिश नहीं करती कि गोल ही बने
फुलाती हूं तो कभी-कभी नहीं भी फूलते
नरमाई कम हो जाती है
अरहर की दाल उलाती हूं
स्वाद के लिए, सौंधेपन के लिए
कभी-कभी जल भी जाती है
रसोई की व्यस्तता में
पर फेंकती नहीं मैं
घी का छौंका लगाती हूं जीरे के साथ
बैंगन-बड़ी की सब्जी बहुत पसंद है
पर अक्सर बैंगन में कीड़े निकल आते हैं
तो क्या? पूरा बैंगन नहीं फेंकती
कीड़े को फेंकती हूं पहले,  फिर सड़ चुके हिस्से को
सहेजती हूं दूध की मलाई
जो अब कम पड़ती है दूध में
दूध वाले भाई साहब पानी ज्यादा डाल देते हैं
मैंने कहा भी दिया है,  पानी ही डालें
फर्जी दूध का खेल स्वीकार्य नहीं होगा
मैं प्रेम के बदले प्रेम ही देती हूं
लेकिन पता नहीं क्यों
खो गयी मेरी स्वाभाविकता...

रजनीश आनंद

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