किचन में सिंक तक भरे जूठे बरतन,
देख, कभी- कभी घबरा जाती हूं मैं
फिर आश्वासन देती हूं खुद को
नहीं बहुत थकान नहीं होगी, ज्यादा नहीं है
बेतरतीब ढंग से रखे हैं बस
फिर धीमे से नल खोल मैं पहले
कप-प्लेट और वैसे बरतनों को मांजकर
और धोकर, हटाती हूं, भ्रम बनाये रखना चाहती हूं
कम बरतनों का, फिर थाली और गिलास
कुकर और तेल से चिपचिपी काली हो चुकी कढ़ाई को
तो बस तिरछे नजर से देखा ही है, हाथ नहीं लगाया
लेकिन एक दो तीन, चार और थालियों को गिनना छोड़
मैं व्यस्त हूं मांजने और धोने की प्रक्रिया में
बीच-बीच में पानी सिंक के छलनी से निकलता नहीं
तब मैं तन्मयता से साफ करती हूं उसे ताकी पानी जमे ना
सिंक से बाहर ना आये, फिर सूंऊऊऊ की ध्वनि और
सारा पानी सिंक से बाहर, अनाज, सब्जी, रोटी के टुकड़े
जो बाधा बने तो मेरे बरतन धोने की क्रिया में सब को
निकाल कूड़ेदान में डाल दिया है मैंने, ना जाने क्यों
मजा सा आने लगा है इस द्वंद्व में, जिंदगी की जंग सा
जब भी डूबने का एहसास हुआ, खूब हाथ पैर मारा
और अंततः खाली सिंक सी साफ जिंदगी, जद्दोजहद के बीच
हर बरतन एक पड़ाव जिंदगी का, उसे मांजना-धोना
जीवन जीने की कोशिश, कठिन परिस्थितियां,
जैसे तेल में जली कढ़ाई, और उसे साफ करना, मेरा संघर्ष
जैसे-जैसे कालिख हटती है कढ़ाई निखरती है
और मजा आता है, जीने का, थकान से परे,
मेरे चेहरे पर खुशी है, संघर्ष के पलों को जीतने की...
रजनीश आनंद
lajawaab... jindagi ko har choti si chij se jod kar jeena aapki kala hai.. di
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