कायम रहती है हमारे अंदर
किसी ना किसी रूप में
तभी तो जब पुनर्जन्म होता है स्मृति का
वह रूलाती भी है, हंसाती भी
आप स्मृतियों को कागज की तरह
फाड़कर टुकड़े -टुकड़े नहीं कर सकते
क्योंकि वे अंकित होती हैं मानस पटल पर
भूल चुके पल भी सहसा सामने आ खड़े होते हैं
उस क्षण जब आप करते हों संवाद खुद से
वह समय होता है प्रेम का,
नफरत को बिसार कर प्रेम के शुक्राणु को आश्रय दीजिए
वह पल प्रसवपीड़ा सा कष्टकर हो सकता है
किंतु यह तय है शिशु नफरत का स्वरूप नहीं होगा
क्योंकि स्मृति में प्रेम हर पल जीवित है...
रजनीश आनंद
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