सोमवार, 3 अप्रैल 2017

...कि आ जाओ तुम...

तुम्हें याद हैं वो रातें?
जब एक दूसरे में खोये रहते थे हम
मेरे खुले बालों को धीरे से
मेरे चेहरे से यूं हटाते थे तुम
मानों चांद पर से बादलों को
सरकाने की कोशिश कर रहा हो आसमान
मैं पीछे से लिपट जाती थी तुमसे
इसलिए ताकि सामना ना हो
तुम्हारी नजरों से , बहुत दुष्ट हैं
छिन लेती हैं मुझे सब से और मैं बेबस
याद है तुम्हें मुझे भाता है
तुम्हारी पीठ पर अपना नाम लिखना
लेकिन कितनी रातें मैं बेनाम रही
तुम्हारी पीठ का स्लेट जो नहीं था पास मेरे
आकर देख तो जाओ
तुम्हारी जूठी चाय के लिए
मेरा दिल अब भी मचलता है
उसकी मिठास अब भी घुली हुई है मेरे मन में
कई रातों से मेरे होंठ हैं अकेले
क्योंकि तुमने अंकित नहीं की अपनी निशानी
अब बस भी करो, ना बुरा मानो किसी बात का
आ जाओ क्योंकि कायम है
हमारा प्रेम और उसकी कशिश...

रजनीश आनंद
03-04-17

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