मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

बोंसाई

बनावटी चेहरा लिये
मैं एक औरत हूं
असली चेहरा तो
कहीं गुम हो गया है
बचपन से ही बंधनों में
जीने की आदत सी है
ना तो खुलकर हंसने दिया गया ना रोने
हंसी, तो इतना क्यों हंसती हो?
रो लिया, तो बेवजह रोती हो
विचार रखे, तो बकबक ना करने की हिदायत
और फिर बोंसाई बन गयी शख्सीयत मेरी
हैरत इस बात की है , बोंसाई में चाहिए
इन्हें विशाल वृक्ष के गुण
अरे सीमित व्यक्तित्व से इतनी अपेक्षाएं क्यों?
मुझे अपने खांजे में खुश रहने दो
लेकिन नहीं किसी को
मेरा काला रंग नहीं भाता
तो किसी को कद
सोचती हूं सुंदर और बदसूरत
सिर्फ औरत ही क्यों होती है?
लेकिन आज मैं सारे बंधन तोड़
खिलखिलाना चाहती हूं
जिन्होंने मुझे बोंसाई बना
ड्राइंग रूम में सजा दिया
उन सब हंसना चाहती हूं
क्योंकि मैंने आज तय किया है
अपने शरीर पर से उन सारे
बंधनों को हटा दूंगी
जो बनाते हैं मुझे खूबसूरत बोंसाई...
रजनीश आनंद
11-04-17

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