बुधवार, 29 मार्च 2017

हमारा प्रेम...

बिस्तर पर पड़े-पड़े कुछ
बेरौनक सी होती जा रही थी जिंदगी
कि अचानक गर्मजोशी से पूछा तुमने कैसी हो प्रिये
लगा जैसे कड़वी दवाई के बाद किसी ने चुपके से
मुंह मे डाल दी हो मिश्री की डली
चाहा पा लूं थोड़ा तुम्हारी बांहों का घेरा
लेकिन तुम तो अदेह स्वरूप में थे मेरे पास
तो क्या बेमानी है प्रेम हमारा?
नहीं-नहीं हमारा प्रेम तो बहती नदिया है
हम-तुम इसके दो किनारे
जिन्हें बेमानी लगता है प्रेम
दरअसल उन्होंने इसे जीया ही नहीं
सूरज को देख पौधे जी उठते हैंं
सोचो तो क्या उन्होंने की होगी शिकायत
तू इतना दूर क्यों हमसे?
सूरज की गरमी तो उन्हें रोज मिलती है
यह बात दीगर है की कभी कम तो कभी ज्यादा
तुम्हारी बांहों में इतना फैलाव है कि
मैं खुद को हमेशा इसके घेरे मेंं पाती हूं
लेकिन जब यह कसता है
तो दरम्यान होता है सिर्फ और सिर्फ हमारा प्रेम...

रजनीश आनंद
29-03-17

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