शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

धूसर आंखें

जब भी मैं देखती हूं
झुकी कमर,धूसर आंखें
लड़खड़ाते कदम, कांपते हाथ
बेचारगी नहीं पनपती ,
मन खो जाता है
अतीत के गड्ढे में
दुपट्टे से साफ करती हूं गढ्ढे को
तो धुंधली सी नजर आती है
एक खुशहाल दुनिया
आज जो आंखें धूसर हैं
उनमें संघर्ष की आग थी
झुकी कमर तन कर पड़ी थी
आग पर तवे की मानिंद
और परोस रहीं थीं
नर्म, मुलायम, गर्म रोटियां
उफ्फ!!  की आस में गड्ढे की
मिट्टी को थोड़ा और हटाया
लेकिन बेकार थी कोशिश
सहसा मैं भागी,चूम लिया
कांपते हाथों को
सहारा देने के लिए नहींं
जज्ब करने के लिए
उन कांपती हाथों की मजबूती
मैं सैल्यूट करन चाहती हूं
उस धूसर आंखों वाले व्यक्तित्व को....

रजनीश आनंद
22-09-10



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