सोमवार, 12 जून 2017

...फिर चाहे बेहया क्योंं ना कहलाऊँ मैं

आज बहुत दिनों बाद
अट्टाहस करना चाहता है मन
एकदम बेफिक्री में, बिना विचारे
मैं नहींं सोचना चाहती
कितनी जोर से खिलखिलाऊं
ताकि बेशर्म ना कहलाऊं मैं
होठों के किनारों को
कहां तक खींच कर ले जाऊं
कि पोशीदा रहे परिवार की आबरू
मैं तो उसकी बांहें थामकर
फिरना चाहती हूं सड़कों पर
चाहती हूं भटकना जंगल, पहाड़, नदियां
जो नहीं है मेरे जात का, प्रांत का
पर मेरे दिल से उसका नाता
मैं संग उसके साड़ी खरीदूंगी और शार्ट्स भी
दिल से आयेगी आवाज तो चूम भी लूंगी उसे
आज प्रेम प्रदर्शन का शौक हुआ है
फिर चाहे बेहया, बेशर्म ही
क्यों ना कहलाऊं मैं
मैंं अब वह सब करूंगी
जिसे बचपन से आज तक
मैंने सीने में दफन किया
संगीत पर अकेली नाच भी लूंगी
आईने में खुद को देख इतरा भी लूंगी
आंखों में काजल डाल भी लूंगी
होठों को सुर्ख लाल भी करूंगी
खुश हूं क्योंंकि मिला है
स्वनिर्णय का खजाना
जिसे अब छुपाऊंगी नहीं,लुटाऊंगी मैं...
रजनीश आनंद
12-06-17

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