शनिवार, 30 अप्रैल 2016

क्या सच में नाराज हो प्रिये?

क्या सच में नाराज हो प्रिये?
मैं तो यूं ही कर थी ठिठोली तुमसे
ऐसे जो तुम रूठोगे, कैसे जी पाऊंगी मैं
माना मुझसे गलती हुई,  बाधा बनी मैं तुम्हारे कर्तव्यपथ में
लेकिन मंशा कहीं से भी नहीं थी तुम्हारा जी जलाने की
जो अग्रसर होगे तुम कर्तव्यपथ पर
हर्षित होगा मेरा तन-मन
नाराज हो गर तुम मुझसे, तो भी ये मेरा सौभाग्य
क्योंकि अपनों पर ही तो कोई हो ता है नाराज
कम से कम इतना तो हक तो है मुझे
कि तुम्हारी नाराजगी को ही समेट सकूं अपने आंचल में
लेकिन प्रिये ऐसा ना हो कि तुम बोलना ही बंद कर देना मुझसे
यह सह नहीं पाऊंगी मैं, चाहो, तो बोल लो कुछ भी मुझको
नहीं देना ऐसी सजा कि जीकर भी जी ना पाऊं मैं
बस इतना ही कह सकती हूं प्रिये
जो कुछ कहा वह मेरी नादानी थी
चाहती सिर्फ तुम्हारा प्रेम थी, कुछ भी करो
लेकिन मेरे प्रेम पर ना करना कभी संदेह
मर जाऊंगी मैं... मैं जाऊंगी मैं.
रजनीश आनंद
30-04-16

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