बुधवार, 20 अप्रैल 2016

किताब, मैं और प्रिये

हे भगवान, आज मुझे अपने सजीव होने पर दुख होता है
तुम तो कहते हो, मनुष्य योनि उत्कृष्ट है,फिर ऐसा कैसे हुआ?
मैं तुमसे जानना चाहती हूं, मुझसे अच्छी तो उस किताब की किस्मत कैसे?
जो हमेशा प्रिये के हाथों में होती है, उसके पन्नों को उलटते-पलटते
हमेशा उसे मेरे प्रिये का स्पर्श सुख नसीब होता है
वह हर वक्त उसे निहारता है
उसे सीने से लगाकर सो भी जाता है वो
उसपर भी उसका जी नहीं भरता, तो
जब वह साथ नहीं होती, तो उसकी चर्चाएं करता है
और मुझे देखो तुम, हमेशा प्रिये के साथ के लिए तरसती हूं
जब मैं कहती हूं ...क्या सुंदर नहीं मैं?
तो वो कहता है, तुम मुझे पसंद हो, अच्छी लगती हो
समझदार हो, इसलिए सुंदर भी लगती हो
फिर क्यों जब मैं पास जाना चाहती हूं, तो
वो कहता है अभी किताब है मेरे पास
हे भगवान, इंसान से अच्छी तो मैं किताब होती
हे प्रभु तुम्हारी माया क्या मुझे किताब बना सकती है?
लेकिन, भगवान इसमें उस बेचारी किताब का क्या दोष
मैं तो बेमतलब ही उसे भला-बुरा सुना रही हूं
ए किताब आ लग जा गले से मेरे
तू पहला प्यार है मेरे प्रियतम की
जब मिलेंगे तेरे मेरे अंग, तो शायद
तेरी खुशबू कुछ समा जाये, मेरे शरीर में
और इसी बहाने शायद मुझे मिल जाये मेरे प्रिये का साथ
और कुछ पल उसके वक्ष में मुंह छुपाकर, प्रेमरस में डूबकर बेसुध हो जाऊं मैं.

रजनीश आनंद
21-04-16

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