सोमवार, 2 मई 2016

...शेष सब झूठ, सब झूठ


प्रिये ना जानें क्यों मध्यरात्रि को अचानक लगा मुझे
 जैसे तुमने लगायी हो आवाज, बुलाया हो अपने पास
चौंक कर अधीरता में, झांका ज्यों झरोखे से मैंने
सन्नाटे के अलावा कुछ आया नहीं नजर
तभी हुआ एहसास जैसे तुमने फिर पुकारा मुझे
इस बार तो मैं खुद को रोक नहीं पायी,
क्योंकि ए सुनो प्रिये कहकर लगायी थी आवाज तुमने
खोल द्वार की कुंडी निकल आयी मैं देहरी से बाहर
तुम्हारा मुख तो नहीं दिखा मुझे
लेकिन आसमान में चांद मुस्कुरा रहा था
मैंने पूछा तू क्यों हंस रहा है?
क्या एक विरह में जलती प्रेयसी का उपहास कर रहा है
उसने कहा, नहीं मैं तो  गवाह हूं तुम दोनों के प्रेम का
जानता हूूं, मैं कि अपने प्रिये से मिलने को आतुर है तू
चांद ने बांहे फैलाकर जब मुझे अपने आगोश में लिया
तो उसके सीने से लगकर हुआ मुझे एहसास
अब तक तो अपने प्रिये से ही कर रही थी मैं दिल की बात
चांद सा मुख उसका देख मुझे हुआ उसके आसमान में होने का भ्रम
रात के सन्नाटे में जब मैं रहूं प्रिये की मजबूत बांहों में
तब क्या मैं जल सकती हूं विरह की आग में
चूम कर अधरों को मेरे
सांवरे ने कहा था, मेरी हो तुम और मैं तुम्हारा
शेष सब झूठ-सब झूठ...
रजनीश आनंद
02-05-16 




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