रविवार, 2 जुलाई 2017

आंखों को बटन बना टांक दूं...

हर रोज जब सुबह
सूरज आकर दे जाता है
जिंदगी के बुझते चूल्हे को आग
तो हवाओं से आक्सीजन सोख
मैं सुलगा लेती हूं उसे
तुम्हारे प्रेम की हांडी में पकाती हूं
कई सजीव सपने
स्वादिष्ट भोजन की तरह
हर स्वाद है उसमें
खट्टा, मीठा, तीखा और नमकीन
खाने की मेज भी सजायी है
फूलदान में लाल गुलाब के साथ
बस तुम्हारे आने भर की देरी है
जिस पल तुम आओगे हम
साथ मिल खायेंगे उन सपनों की रोटी
कुछ तीखी तरकारियों के साथ
ज्यों छलक पड़े आंसू तो मीठे में
खा लूंगी तुम्हार प्यारी बातें
उस दिन तो चांद की दूधिया रौशनी नहीं
मुझे शीतला देगा तुम्हारा चेहरा
सोचती हूं उस रात मैं नींद को
आंंखों तक पहुंचने ना दूंगी
तुम्हें देखने की जो तड़प
मेरी आंखों में है उसे शांत करूंगी
लेकिन एक रात में क्या
आंखों की तड़प शांत होगी?
जी तो चाहता है
आंखों को बटन बना मैं
टांक दूं तुम्हारी कमीज पर
ताकि जब तुम पहनो उसे
आंखों को मिले एहसास तुम्हारा
या जब टंगी हो तुम्हारे
कमरे की खूंटी पर तो
देखती रहें तुम्हें जी भर...
रजनीश आनंद
02-07-17

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें