शनिवार, 22 जुलाई 2017

हर स्त्री में राधा है...

कल 'कनुप्रिया' को पढ़ते वक्त लगा जैसे मैं खुद राधा हूं और जो मैं पढ़ रही हूं वह सब मेरे कनु के लिए हैं. आदरणीय धर्मवीर भारती जी ने जिस तरह एक नारी के मन को शब्दों में उकेरा है, मानो राधे उनके हृदय में विराजमान थीं और उनसे अपनी बातें कागज पर उतरवा रही थीं. मुझे ऐसा लगता है कि हर स्त्री जीवन में एक ना एक बार राधा होती है और उसके जीवन में कोई कृष्ण जरूर होता है. यह बात दीगर है कि खुद को किसी की राधा बताना रूक्मिणी के लिए आसान नहीं होता, खैर विषयांतर का इरादा नहींं है.  लेकिन मेरी इस बात को हर औरत अपने दिल पर हाथ रखकर महसूस कर सकती है.
आदरणीय भारती जी की कनुप्रिया पढ़ते वक्त कुछ ख्याल मेरे मन में आये, जिसे अपने 'कनु ' के लिए मैंने कलमबद्ध किया है. भारती जी क्षमायाचना के साथ मैं अपने भाव लिख रही हूं. मैं तुच्छ रचनाकार किंतु मन के भाव पवित्र हैंः-
मैं तुम्हारी कौन हूं कनु?
हर क्षण मेरा मन पूछता है मुझसे
आखिर किस हक से तू
कनु को अपना बताती है?
क्या संबंध है तेरा उससे
उसके सवाल से मैं थोड़ा
घबरा जरूर जाती हूं, लेकिन
फिर उन पलों का स्मरण होता है
जिन पलों में तुम साथ होते हो मेरे
तब बड़े अधिकार से
तुम्हारे बालों में हाथ फिराकर
मैं चूम लेती हूं, तुम्हारा माथा,पलकें,होंठ और छाती
फिर कहती हूं तुमसे,
आज इतनी देर से क्यों आये कनु?
तब बड़े अधिकार से, हंसकर
तुम कस लेते हो मुझे बांहों में
और मैं इतराकर अपनी वेणी
झटक देती हूं तुम्हारे मुख पर
तभी तुम पकड़ लेती मेरी वेणी
और खींचते हो मुझे अपनी ओर
पीड़ा होती है मुझे
आह, निकल जाती है, लेकिन
उस वक्त जो सुख मिलता है
उसके लिए मैं बार-बार अपनी
वेणी झटकना चाहती हूं मुख पर तुम्हारे
क्योंकि उस पल लगता है
मानो साम्राज्ञी हूं मैं तुम्हारे मन की
लेकिन जब तुम पास नहीं होते
तब यह मन फिर कहता है मुझसे
तू कौन है कनु की ?
तब अधीरता में मैं पुकारती हूं तुम्हें
पर तुम सुनते नहीं मेरी पुकार
तब बेचैनी और आशंका में , मैं कहती हूं
एक बार तो बोल दो कनु
मैं इतनी नासमझ नहीं कि समझ
ना सकूं तुम्हारी व्यस्तता
तब हंस कर कहते हो तुम
नहीं-नहीं, नासमझ नहीं तुम तो समझदार हो
मेरी प्रिय सखी, मेरी प्रेरणा
जिसे महसूस कर मैं रत  रहता हूं कर्मपथ पर
तो अकस्मात ऐसा भान होता है
जैसे मेरे पूरे शरीर से
ऊर्जा निकल रही हो
और तुम ओतप्रोत हो उससे
तब मैं कहती हूं  अपने मन से
देखो मैं ऊर्जा हूं अपने कनु की
लेकिन पावस ऋतु में जब
मेरा मन करता है तुमसे प्रेम निवेदन
और तुम बड़ी दुष्टता से मुझे सताने के लिए
करते हो मेरे मन की अनदेखी,उपेक्षा
और करते हो छेड़छाड़ मेरी सखियों संग
तब छलक आते हैं मेरे आंसू
तब कहती हूं मैं अपने मन से
कनु कोई नहींं मेरा, वह तो दुष्ट है
कोई संबंध नहीं मेरा उससे
लेकिन अगले ही पल
जब पीछे से आकर थाम लेते हो मुझे
और अपनी अंगुलियों से मेरे
बदन का स्पर्श कर छेड़ते हो
मनुहार करते हो, कहते तो तुम सिर्फ मेरे हो
तब झगड़ना चाहती हूं तुमसे, देना चाहती हूं उलाहना
लेकिन तुम चतुर, मुझे चुप कराने के लिए
अपने मुख से बंद कर देते हो मेरा मुख
तब अधखुली आंखों और गहराती सांसों के बीच
मैं कहती हूं अपने मन से
'कनु' मेरा सर्वस्व है, जान,जिंदगी,खुशी...

रजनीश आनंद
23-07-17

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