शनिवार, 8 जुलाई 2017

दृगों में यह अभिमान पनपने दो...

जिंदगी के कैनवास पर
उम्मीद की कूची लिये
मैं हर रोज बनाती हूं
एक लड़की की तसवीर
ना जाने क्यों वह बिलकुल
मेरी तरह दिखने लगती है
जिसकी आंंखों में सजे हैं सपने कई
जब महसूस करना चाहती उन्हें
तो उसके नयन पूछते हैं
क्या सपने कभी होंगे सच?
उसके सवालों में जब डूबती हूं
तो अंतरमन कहता है
नहीं चाहती विलासिता कोई
तुम्हारी मीठी मुस्कान बना देगी
मुझे मलिका इस जहान की
मैंने कब चाहा कि तुम कहो
मैं जिंदगी हूं तुम्हारी
पर मेरे दृगों में यह
अभिमान तो पनपने दो
कि तुम्हारी हूं मैं...

रजनीश आनंद
08-07-17

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