निपटा तो रही थी मैं
प्रतिदिन के काम, पर
ना जाने कैसे की- बोर्ड
पर मेरी अंगुलियां थिरक गयीं
तुम्हारे नाम के साथ और फिर
हुआ क्या? मैं जान नहीं पायी
एक अजीब सी सिहरन
आंखों से होकर रूह तक
पसर गयी, रात की तरह नहींं,
अहले सुबह की तरह,
नयी उम्मीद के साथ
मैं जानती थी तुम नहीं,
सिर्फ एहसास है तुम्हारा
लेकिन इतनी जीवंतता, कि
जैसे मेरे होंठों ने पी लिया हो
प्रेमरस तुम्हारी उपस्थिति का...
प्रतिदिन के काम, पर
ना जाने कैसे की- बोर्ड
पर मेरी अंगुलियां थिरक गयीं
तुम्हारे नाम के साथ और फिर
हुआ क्या? मैं जान नहीं पायी
एक अजीब सी सिहरन
आंखों से होकर रूह तक
पसर गयी, रात की तरह नहींं,
अहले सुबह की तरह,
नयी उम्मीद के साथ
मैं जानती थी तुम नहीं,
सिर्फ एहसास है तुम्हारा
लेकिन इतनी जीवंतता, कि
जैसे मेरे होंठों ने पी लिया हो
प्रेमरस तुम्हारी उपस्थिति का...
रजनीश आनंद
29-08-17
29-08-17
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