गुरुवार, 10 अगस्त 2017

प्रेम की सीढ़ियां

रात का अकेलापन
कलम हाथ में लिये
मैं गढ़ना चाहती हूं
एक कविता तुम्हारे नाम
कुछ सीढ़ियां उभरती हैं
जो जाती हैं तुम तक
हर सीढ़ी पर मैं उकेरती हूं
इंतजार के  पलों को
और आगे बढ़ती हूं
इस उम्मीद में कि
शिखर पर तुम
बांह पसारे होगे
अधरों से जज्ब करने को
मेरे अकेलेपन को
रोमांचित मैं, इतराती मैं
चाल में मेरे  लचक,
और रूमानियत
उत्साह में मैं
एक की जगह दो सीढ़ियां
चढ़ती जाती हूं, लेकिन, आह!
सीढ़िया तो खत्म ही नहीं होती?
बीत रहे पल, दिवस, महीने, साल
मैं युवा से प्रौढ़ा, वृद्धा हुई
किंतु प्रेम अभी युवा है
देखो,अब भी सीढ़ियां चढ़ रहा
पूरे उत्साह से वह
सीढ़ियां इतनी लंबी
जैसे चांद पर जा बैठे हो तुम
लेकिन, तुम्हारा प्रेम अॅाक्सीजन है
थामे उसका सिलेंडर
मैं चली आऊंगी, तुम तक
क्योंकि मुझे अपने प्रेम पर यकीं है....
रजनीश आनंद
10-08-17


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