सोमवार, 23 मई 2016

आज रात जो चांद को देखा...

आज रात जो चांद को देखा, ठिठक गयी मैं
नहीं देखा था पूर्णमासी का चांद पहली बार
लेकिन ना जानें क्यों आज उसका सौंदर्य लगा अद्‌भुत अप्रतिम
चाह हुई चूम लूं उसे, लेकिन ज्यों ही मैं उसके करीब जाने को हुई
एक नजर ने सकुचा दिया मुझे, घबरा कर मैंने चांद से कहा
ये किसकी आंखें हैं, जिसने बेचैन कर दिया मुझे
जाओ जाकर कह दो उससे, ऐसे ना देखे मुझे
कर दूं अगर कोई खता, तो फिर इल्जाम ना लगाना मुझपर
चांद ने हंसकर कहा, मुझे क्यों उलाहने देती हो
यह तो तेरे उसी प्रिये की आंखें हैं, जिसका अक्स मुझमें नजर आता है तुझे
अब दोष तो मुझे ना दो, सारी गलती तो तुम्हारे प्रिये की है
मैंने चांद को झिड़कते हुए कहा, ज्यादा इतराओ ना अपने रूप पर
तुम मुझे भाते हो, तो सिर्फ इसलिए कि उसकी झलक दिखती है तुममें
नहीं तो क्या पूर्णमासी का चांद और क्या स्याह रात
उसका अक्स बनाता है तुम्हें अद्‌भुत, अनोखा
जिसकी एक नजर से जी उठती हूं मैं
चाह होती है खत्म ना हो कभी जिंदगी का सफर.
रजनीश आनंद
23-05-16

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें