मंगलवार, 24 मई 2016

चार साल की बच्ची के साथ बलात्कार किस मानसिकता का परिचायक है?

मेरे कुछ पुरुष मित्र मुझपर यह आरोप लगाते हैं कि मैं पुरुषों की निंदा का कोई मौका नहीं चूकती. लेकिन यह सच नहीं है. पुरुषों से मेरा कोई बैर नहीं है. कई पुरुष ऐसे हैं जिनका मेरे जीवन में अहम योगदान हैं और जो मेरे लिए बहुत मायने रखते हैं. मेरा विरोध उस सोच को लेकर है, जो पुरुष को इंसान से हैवान बनाकर रख देता है. मैं यह मानती हूं कि इस धरती पर इंसानों की दो ही जाति है स्त्री और पुरुष. इन दोनों में शारीरिक भेद तो है ही मानसिक स्तर पर भी दोनों अलग होते हैं. विज्ञान भी इस बात को मानता है. दोनों के सोच का मनोविज्ञान भी अलग है.

आज मैं इस बात को कह रही हूं तो इसका कारण है वह खबर जिसे आज सुबह मैंने पढ़ा. हमारे शहर रांची में एक चार की बच्ची के साथ एक 30-32 साल के युवक ने बलात्कार किया और और उसके बाद उसकी हत्या भी कर दी. वह आदमी उस बच्ची को टॉफी दिलाने के नाम पर अपने साथ ले गया, जब वह अपने घर के बाहर खेल रही थी. वह बच्ची के पड़ोस में ही रहता था. अब बताइए यह किस तरह की मानसिकता का परिचायक है. अब अगर मैं इसके विरोध में बोलती हूं, तो क्या मैं क्या पुरुष विरोधी हूं.

क्या कोई सभ्य पुरुष इस घटना की प्रशंसा कर सकता है. मेरी समझ में आज तक यह बात नहीं आयी कि क्योंकर एक पुरुष एक चार साल-पांच साल की बच्ची को देखकर संभोग के लिए आतुर हो जाता है. क्या अब यह पुरुषवादी सोच वाला यह समाज यह कहेगा कि वह बच्ची उसे provoke कर रही थी या उसकी छोटी फ्रॉक का दोष है यह. क्या चार की बच्ची के शरीर में कोई ऐसे उभार होंगे, जो उस हैवान को उत्तेजित कर रहे थे. क्या इस इंसान को समाज के लिए खतरा बताकर सजा देने की जरूरत नहीं है. जबकि खबर में यह बात भी सामने आयी है कि वह पहले भी ऐसा कर चुका था. इस तरह की घटनाएं शहरों में तो होती ही हैं ग्रामीण इलाकों में तो आम हैं, जिन्हें हम दबा-छिपा जाते हैं. क्यों, क्योंकि हमारे समाज को बदनामी का डर है. हमारा समाज अद्‌भुत है, जहां बलात्कारी की बदनामी नहीं होती, पीड़िता की होती है.

कानून हमारे देश में कई हैं, लेकिन कई बार सजा के बाद भी ऐसी मानसिकता के लोग सुधरते नहीं हैं. जरूरत आज इस बात कि है कि हमारा समाज यह सोचे कि आखिर बलात्कार इस देश में क्यों होते रहे हैं? उसे रोकने के लिए क्या कदम उठाये जायें. सजा से बात बनती नहीं दिखती, इसके लिए जरूरी है सोच में बदलाव की. जब तक हम औरत को देह से इतर नहीं देखेंगे इस तरह की घटनाएं होती रहेंगी. ऐसा नहीं है कि कामेच्छा सिर्फ पुरुषों के अंदर है, महिलाओं के अंदर नहीं. तो फिर क्यों एक पुरुष कामेच्छा की पूर्ति के लिए किसी की हत्या तक कर देता है. उन्हें महिलाओं से संयम का पाठ सिखना चाहिए.

बलात्कार एक ऐसा अपराध है जिसमें सजा दे देना पर्याप्त नहीं है. इस अपराध से महिला टूट जाती है, वह उबर नहीं पाती. सहमति से बनाया गया शारीरिक संबंध जहां खुशी देता है, वहीं रेप महिला को जीवन भर डराता है, अत: किसी भी तरह इस अपराध को रोकना समाज की जिम्मेदारी है और यह बात समाज को समझनी ही होगी.
रजनीश आनंद
25-05-16
  

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