सोमवार, 9 मई 2016

प्रेम की भाषा...

रात झरोखे से जो मैंने देखा चांद को
उसने इतराकर कहा, ऐसे क्या देखती है
मैं प्रिये नहीं तुम्हारा, नहीं करता तुमसे प्रेम
मैंने हंसकर कहा, क्या अब तुझे मेरा देखना भी नहीं है गंवारा,
क्या करूं मैं, जो मुझे तुझ में दिख जाती है अक्स अपने श्याम की
वो दूर है मुझसे और ये भी कहता है, प्रेम नहीं करता मुझसे
लेकिन मैं जानती हूं उसके होंठ कुछ और नेत्र कुछ और कह रहे हैं
उसके आंखें कभी झूठ नहीं बोलतीं
जिसमें मुझे अपने लिए दिखता है, तो सिर्फ प्रेम और कुछ नहीं
इस बार चांद ने तंज कसा, तू भ्रम में है शायद
मैं भी कहां हार मानने वाली थी
कहा उससे, तुम क्या जानो प्रेम की भाषा
क्या कभी किया है किसी से प्रेम?
मेरी इस बात पर चांद ने मुस्कुराकर कहा
अच्छा तो तू ही बता दे, क्या है प्रेम की भाषा
मैंने कहा, तो सुन, जब मैं कहती हूं अपने प्रिये से
ए सुनो ना, मुझे तुमसे नफरत है,
तो पता है उनको क्या सुनाई देता है?
इस बार चांद ने रुखाई से पूछा, क्या?
मैंने कहा, उनके कानों में गूंजता है यह मधुर स्वर
कि मुझे उससे है आगाध प्रेम, असीमित प्रेम
मेरी इस बात पर चांद ने मुस्कुराकर कहा, हां
मैं समझ गया प्रेम की भाषा और उसने ले लिया मुझे अपने आगोश में
जहां था तो सिर्फ प्रेम और प्रेम...
रजनीश आनंद
09-05-16 

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