सोचती हूं वो कैसी सुबह थी
जब मन के कहने पर
मैंने दी थी तुम्हारे दरवाजे पर दस्तक
सूरज तो पूरब से ही निकला था
हवाएं भी वैसे ही थीं
पहली ही दस्तक में
खुल गया था दरवाजा
हां ,सुना मैंने बज रह थे कई धुन
जो खींंच रहे थे मुझे अपनी ओर
मैंने रोका खुद को, मिन्नतें की
लेकिन दिल नहीं माना
मैंने दरवाजे के अंदर प्रवेश किया
तुम सीढियों के ऊपर खड़े थे
तुम तक पहुंचने लिए
मुझे करनी थी कई बाधाएं पार
मेरी जिजीविषा बालमन हो गयी
सकारात्मकता जीवन में सजग हो गयी
और मैं तुम्हारी हो गयी...
रजनीश आनंद
05.05.2017
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