शनिवार, 6 मई 2017

मैं दिकू नहीं बेटी हूं...

दिकू यह शब्द झकझोरता है मुझे
अस्तित्व पर उठाता है कई सवाल
पूछता है क्योंं चस्पां हूं मैं तुमपर?
जानना तो मैं भी चाहती हूं,
इसी माटी में जन्मी,
यहीं फनां होने की चाह
फिर भी एक परायापन क्यों
जब नंगी की जाती हैं
जबरन जंगल और बेटियां
तो दर्द सिर्फ आदिवासियों को नहीं
मुझ जैसे दिकुओं को भी होता है
जल-जंगल-जमीन पर हक की लड़ाई में
अपनों को पराया करना,
उन्हें शक की नजर से देखना
कितना न्यायोचित है?
यह सवाल उनसे जो मुझे दिकू
करार देने पर आमदा है
क्या अपनी जमीन से बेदखल किये जाने का
दर्द मुझे नहीं सालता है?
ना कभी सौदा किया धरती का
ना दलालों की सुनी कभी
चंद भेड़ियों के दोष का
ठीकरा मेरे सिर क्यों?
जब जंगल में पलाश खिलते हैं
तो मन मेरा भी बावरा होता है
रूगड़ा,खूंखड़ी का स्वाद
मुझे भी बहुत भाता है
झक सफेद लाल पाड़ की साड़ी
मुझ पर बहुत खिलती है
प्रकृति ने मुझे बेटी माना है
तो फिर वे लोग कौन हैं?
जो मुझे दिकू बताने पर आमदा हैं
यह धरती मेरी,यहां के झरने मेरे
धरती आबा मेरे,मैं दिकू नहीं
झारखंड की बेटी हूं...

रजनीश आनंद
06-05-17

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