शनिवार, 20 मई 2017

औरत या मशीन

रास्ते से आते-जाते
हर रोज देखती थी उसे
पैर मशीन के पहिये पर
और हाथ फिसलते कपड़ों पर
स्टूल पर बैठ वह सिलती
ना जाने किसके-किसके कपड़े
लेकिन खुद के लिये कपड़े
नहींं सिल पा रही थी वो
पड़ोंं के टुकड़ों से बने
बिस्तर पर सोई रहती थी
एक अबोध, जिसके रुंदन को भी
दरकिनार कर वो चलाती रहती थी मशीन
कई बार महसूस किया
उसकी आंखों की तड़प को
बच्ची के रुंदन पर वह
मशीन बंद नहीं करती
मुख से निकालती थी अजीब सी धुन
जिसे सुन बच्चे को होता था
मां के साथ होने का अहसास
इस अहसास को ही मां समझ बैठी थी बच्ची
और मुझे दिखती थी मां की तड़प
और बेबसी
कई बार देखा दूध से भींगा स्तन
क्योंकि मशीन छीन रहा था
बच्चे से मां का आंचल
भूख से जंग में मां तो जीत रही थी
लेकिन हार रही थी मानवता
जब भी गुजरती थी उस ओर से
सोचती थी भेद क्या बचा है
औरत और मशीन का?
रजनीश आनंद
20-05-17

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें