गुरुवार, 22 सितंबर 2016

...ताकि मैं भी खिल सकूं

तुम्हें एक बात बताऊं प्रिये
आज जब मैं घर के बागीचे में गयी
तो हतप्रभ थी, वर्षों से फूल के लिए तरसते
गुलाब के पौधे में खिला था एक लाल फूल
मैं भागकर उसे निहारने गयी
अद्‌भुत मनोहारी था उसका सौंदर्य
पूछा मैंने पौधे से इतने दिन क्यों तरसाया
अब जाकर  मस्तक पर तेरे खिला है लाल फूल
मेरी बात पर वह गुर्राया, तू कौन सा
खिली थी अबतक, जैसा माली वैसा बाग
तू खिल गयी तो मैं भी खिल गया
मेरे फूल पर अलि मंडराता है प्रेम की चाह में
मैं रोज खिलता रहूंगा, जानता हूं मैं
तुझे है किसके प्रेम की चाह
तो खुल कर प्रेम निवेदन कर और मुस्कुरा
ताकि मैं भी खिल सकूं जीवंतता के साथ
रजनीश आनंद
22-09-16





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