रविवार, 25 सितंबर 2016

प्यार का इंद्रधनुष

अकेली बैठ जब करती हूं
मैं तुम्हारा इंतजार,
तो मन क्या कहता है
मालूम है तुम्हें प्रिये ?
चाह होती है ,
हाथ में हो तुम्हारा हाथ
और क्षितिज तक चले जायें हम
तुम्हारे प्यार के इंद्रधनुष पर बैठ
चांद को छू लूं मैं
तुम सजा दो मेरी मांग
पलाश के फूलों से
आवृत हों हम-तुम
प्रेम के लिहाफ में
लेकिन तभी अनिश्चितता की दस्तक
तोड़ देती है सपनों को
और नजर आता है
इंतजार का लंबा सफर
तो, थोड़ा अधीर होता है मन
कैसे कटेगा यह सफर?
लेकिन फिर गूंजती है
तुम्हारी कंठरागिनी
जो कहती है मुझसे
मैं तुम्हारा और तुम मेरी हो
और टूट जाता है अधीरता का मर्तबान
दिखता है खुला आकाश,तुम्हारे प्रेम का
जिसमें डैनों को फैलाकर
मैं गोते लगाना चाहती हूं
और इस तरह खत्म होता है
इंतजार का एक और दिन...

रजनीश आनंद
26-09-16

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